निर्वाण के कई रास्ते, कई ठौर-ठिकाने हैं। ऐसे ही एक ठौर पर जमैका में जन्मे एंथनी पॉल मू-यंग उर्फ 'मूजी’ के शिष्य बालमुरलीकृष्ण दुरैराज नए दौर के अद्वैत गुरु के प्रबंधकों के फोन के इंतजार में हैं। यह इंतजार एक यात्रा के लिए है। जी नहीं, ठीक-ठीक स्वर्ग के अलौकिक संसार की नहीं, बल्कि लिस्बन में समुद्र के किनारे एक मनोरम ठिकाने की। पुर्तगाल की राजधानी के पास इस अंतरराष्ट्रीय शांत-सुरम्य ठिकाने की यात्रा बेहद खर्चीली है और सब कुछ की भारी कीमत अदा करने पर ही हो पाती है। बेशक, वहां मौजूदगी पक्की करने के लिए अच्छे कर्मों का विलक्षण रिकॉर्ड, जो बकौल दुरैराज उनके पास है, और कुछ भाग्य का आसरा भी चाहिए। आखिरकार यह कर्म फल की लॉटरी निकलने जैसा ही तो है।
लेकिन ऐसे ही दूसरे आध्यात्मिक गुरुओं के शिष्य महज संयोग के ही आसरे नहीं रहते। निहारिका प्रधान के लिए उनके गुरु रिचर्ड अल्पर्ट, जिन्होंने भारत की आध्यात्मिक यात्रा के बाद गुरु रामदास का नाम धारण कर लिया है, की वाणी ही सब कुछ है। जब वे मनोविकार मिटाने वाली बातें करते हैं तो निहारिका की जिंदगी जीवंत हो उठती है। जब वे जादुई छतरी की बात करते हैं तो उनके जीवन में रंग भर जाता है। अल्पर्ट करिश्माई व्यक्तित्व के मालिक हैं। हार्वर्ड, जहां वह मनोवैज्ञानिक और मनोविकारों संबंधी शोध के प्रवर्तक थे, से निकाले जाने के बाद वह मैक्सिको जाते हैं। वहां वह अपने विचारों से लोगों को खासा प्रभावित करते हैं। प्रधान कहती हैं, ''गुरु जी की चेतना फैलाने वाली बातें ज्ञान के स्रोत की प्रस्तावना होती हैं। जब वह बोलते हैं तो ऐसा लगता है जैसे मधु और अमृत का पान किया जा रहा हो।’’
विश्व के कई देशों के लोग प्रभु की खोज, मुक्ति या मोक्ष की चाहत लिए भारत आते हैं। यहां आने के बाद वे पराभौतिक शक्तियों के बारे में जानकारी देने वाले बन जाते हैं। यहां घूमने के दौरान उन्हें दुरैराज या प्रधान जैसे अंध समर्थक भक्त मिल जाते हैं। इसके बाद हर मामले में ये विदेशी गुरु बिना किसी नियम के लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान देने लगते हैं। इनके यहां न तो कठिन योग कराया जाता है न ही भक्तों के लिए ध्यान का कोई कार्यक्रम होता है। इतना ही नहीं जीवन के लिए न तो कोई कठिन नियम होता है, न ही खास शिक्षा या मंत्रोचारण। तर्कवादी सानल एडमारुकु कहते हैं, ''इन पश्चिमी गुरुओं के यहां अध्यात्म का फार्मूला साधारण, आधुनिक और नियम रहित होता है। इसकी वजह से आसानी से जागृति चाहने वाले सीधे-सादे लोग इनसे काफी प्रभावित हुए और जुड़ते चले गए।’’
फिर भी, मूजी के यहां दुरैराज के अंदर आध्यात्मिक जागृति पैदा करना आसान नहीं था। दुरैराज एक मेडिकल हादसे की वजह से कई दिनों तक कोमा में रहे थे। इससे बाहर आने के बाद दुरैराज के मन में आध्यात्मिक शांति पाने की इच्छा हुई। इसके बाद वह मूजी से जुड़े। दुरैराज के अनुसार, ''मैंने भारत में कई गुरुओं के प्रवचन सुने। लेकिन मुझे मूजी की बातें ज्यादा आसान और सही लगीं। यहां कोई थकाने वाला प्रवचन नहीं था, न ही कठिन मंत्रोच्चार और न ही सख्त ध्यान।’’ मूजी की तरह ही कई और लोग हैं। पर सवाल यह है कि ये मूजी हैं कौन?
63 वर्षीय मूजी का जन्म अमेरिका में हुआ था। वह स्ट्रीट पोट्रेट कलाकार होने के अलावा ब्रिक्सटन (लंदन) में शिक्षक भी रहे हैं। एक इसाई रहस्यवादी से अचानक हुई मुलाकात के बाद उनका जीवन बदल गया। मूजी की वेबसाइट के अनुसार, ''उनकी आध्यात्मिक जानकारी ने मुझे जागृत कर दिया। इसके बाद मेरे अंदर अद्भुत और आध्यात्मिक परिवर्तन हुए।’’ छह साल की घुमक्कड़ी, जिसे मूजी स्वत:ध्यान कहते हैं, के बाद वह 1993 में भारत आते हैं। यहां वे अपने गुरु श्री हरिलाल पूंजा से मिलते हैं, जो 20वीं सदी के संत रमन महर्षि के भक्त थे। पूंजा को उनके अनुयायी 'पापा जी’ के नाम से पुकारते थे। उनके निधन के बाद मूजी ने ज्ञान बांटना शुरू किया। उनके सत्संग में कई अनुयायी आने लगे।
मूजी के सरल ज्ञान की बातों की वजह से मैसाच्युसेट्स की 45 वर्षीय नर्स क्रिस्टीना कोर्नेलिसन उनके नजदीक आईं। वह कहती हैं, ''मूजी का एक सामान्य दर्शन है। यह 'मैं हूं’ (आई एम) की खोज पर केंद्रित है, जो किसी धर्म या राजनीतिक शक्ति के प्रति निष्पक्ष है।’’ हालांकि अभी तक उनकी मूजी से मुलाकात नहीं हुई है पर वह अगले साल भारत के ऋषिकेश स्थित उनके आश्रम में जाने की योजना बना रही हैं। इसके लिए वह अपनी बचत का बड़ा हिस्सा खर्च करने को तैयार हैं। उनका मानना है कि गुरु कम खर्चे से किसी को कभी नहीं मिलते हैं।
रिचर्ड अल्पर्ट, आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए 1967 में भारत आए थे। यहां वे अपने गुरु नीम करोली बाबा से मिलते हैं। इन्हें महाराज जी के नाम से जाना जाता है। ये वही बाबा हैं जिन्होंने नामी अमेरिकी व्यवसायी स्टीव जॉब्स को आशीर्वाद दिया था। बाबा ने अल्पर्ट को 'रामदास’ का नाम दिया। दास जिस तरह की आध्यात्मिक इच्छा रखते थे उनके लिए उनके विचार उत्प्रेरक की तरह काम करने लगे। उनकी आत्मकथा के अनुसार इसके बाद उनका धार्मिक जीवन शुरू हो गया। अब उनकी बातों का संस्कृति पर असर पड़ने लगा और उनके शब्द 'अब यहां रहो’ (बी हियर नाउ) गूंजने लगे।
तब से, उन्होंने लोगों के सामने आध्यात्मिक विधि और कार्यों का विस्तृत विवरण रखना शुरू किया। इनमें प्राचीन ज्ञान के वैभव, बौद्ध ध्यान, सूफी और यहूदियों के रहस्यवाद की शिक्षाओं का जिक्र होता था। निहारिका प्रधान कहती हैं, ''लेकिन उनके बारे में सबसे अद्भुत बात यह थी कि वे लोगों तक अपने अनुभव के सहारे पहुंचते थे और चेतना के प्रसार के लिए अपनी यात्राओं का जिक्र करते थे।’’ वह कहती हैं कि मैंने कई गुरुओं की खोज की और दास में अपना उद्धारक देखा। द आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन और साईं बाबा संस्थान में भी कोर्स किया। वह कहती हैं, ''रामदास लोगों को जोड़ने वाले हैं। वह भी तब जब वे चेतना प्रसार पर हमारे विश्वास की बात करते हैं। यही कारण है कि पूरी दुनिया का युवा वर्ग उनका अनुसरण करता है।’’
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े विशेषज्ञ आसानी से आध्यात्मिकता से जुडऩे को वक्त की जरूरत बताते हैं। मैक्स हॉस्पिटल में मानसिक स्वास्थ्य और व्यवहारवादी विज्ञान के निदेशक समीर मल्होत्रा कहते हैं, ''कठिन समय में अधिकांश लोग जब अपनी शंकाओं का समाधान चाहते हैं तब वे गुरु की जरूरत महसूस करते हैं। जब वे कमजोर होते हैं तो गुरुओं पर बहुत ज्यादा विश्वास करने लगते हैं। ऐसे में यदि गुरु खुद को किसी पीठ से नहीं जोड़ता तो उस पर विश्वास और ज्यादा बढ़ जाता है।’’ इतना ही नहीं यह विश्वास रासायनिक इस्तेमाल से भी लाया जाता है।
एक दूसरी घटना इजरायल में पैदा हुए टियोहार कैसटिल की। कैसटिल ने सैन्य सेवा खत्म करने के बाद रेव डीजे के रूप में विश्व भ्रमण किया था। भारत दौरे के दौरान पुणे में उनकी मुलाकात विवादास्पद गुरु ओशो से हुई। वह कहते हैं, ''आचार्य जी से आध्यात्मिक मुलाकात के बाद मेरे लिए ध्यान और रहस्यवाद के द्वार खुल गए। इसके बाद मैंने 'स्वतंत्रता और पूरी दुनिया एक है’ की सोच के साथ अनगिनत दिन हिमालय में बिताए।’’ वह अभी भी घूम रहे हैं और लोगों के बीच अपनी बुद्धिमत्ता बांट रहे हैं।
कैसटिल ने कोस्टा रिका में लोगों को जागरूक करने के लिए पाचा मामा नामक संगठन की स्थापना की। यहां लोग एक साथ रह कर खुद की खोज करने के अलावा आंतरिक शांति भी महसूस करते हैं। कैसटिल का मंत्र है: 'स्वतंत्रता स्थगित नहीं की जा सकती’ (फ्रीडम कैननॉट बी पोस्टपोन्ड)।
सेड्रिक पार्किन एक अन्य विदेशी गुरु हैं जिनकी आध्यात्मिक यात्रा तब शुरू हुई जब उन्होंने मृत्यु को काफी नजदीक से देखा। इसके बाद उनके 'एक जीवन का अंत और दूसरे की शुरुआत हुई।’ पूंजा (1910-97) के शिष्य रहे 55 वर्षीय जर्मन नागरिक पार्किन 1990 में एक कार हादसे के बाद दो दिन तक कोमा में रहे। इसके बाद उनकी आत्मा को उन्नत करने वाली यात्रा शुरू हुई। अब उन्होंने पूर्वी अद्वैत परंपराओं में ईसाई रहस्यवाद और आधुनिक मनोवैज्ञानिक पद्धति को जोड़कर हैंबर्ग में अपना 'मिस्ट्री स्कूल’ शुरू किया है। यहां बना शांति-स्थल पुराने तरीके के गढ़ की तरह है। इसमें वैसे लोगों के लिए जो 'स्वयं की तलाश में हो’ (लुकिंग फॉर देमशेल्व्स) के लिए घर, सेमिनार हाउस, आधुनिक आश्रम, आश्रय स्थल बने हैं।
अमेरिका की मर्ले एंटोइनेट रॉबर्सन (74) भी एक अन्य आध्यात्मिक गुरु हैं जो पूंजा की धारा से निकली हैं। सैन फ्रांसिस्को में रहने के दौरान ही उनका झुकाव पराभौतिक शक्तियों की ओर हुआ। इसके बाद उन्होंने बोधिसत्व की प्रतिज्ञा ली और जेन और विपासना का अभ्यास किया। उन्होंने सैनफ्रांसिस्को में तिब्बती बौद्ध ध्यान केंद्र की स्थापना में भी सहयोग किया। लेकिन इससे उन्हें ज्यादा बातें समझ में नहीं आईं और आखिरी प्रार्थना के लिए वह भारत रवाना हो गईं। गंगा नदी के तट पर उनकी मुलाकात पूंजा से हुई, जिन्होंने इनका नाम 'गंगा’ रखा। उनके एक अनुयायी जेनजी लेक कहते हैं, ''पापा जी ने गंगा जी के आत्मज्ञान की धारा का द्वार खोल दिया और अब वह यही हमारे लिए कर रही हैं।’’
लेक अपनी पारिवारिक परेशानियों के कारण गंगा के पास पहुंचे थे। उनकी मां का मानना था कि 'ध्यान’ शैतान का काम है। जब मां को मालूम हुआ कि वह भारत के एक आश्रम में ध्यान कर रहे हैं तो उन्होंने उनके बीटल्स के सभी रिकॉर्ड तोड़ डाले। इसके बाद उन्होंने खुदकुशी कर ली। लेक के भाई की मौत ड्रग्स के ओवर डोज की वजह से हो गई।
लेक कहते हैं कि अपनी आध्यात्मिक यात्रा के लिए वह केवल गंगा जी को धन्यवाद देते हैं। वह कहते हैं, ''आध्यात्मिकता के इस व्यावसायिक दौर में जब अमेरिका में कई लोग कहते हैं कि आप हमें एक हजार डॉलर दें और मैं आपको मुक्त कर दूंगा। ऐसे में गंगा जी व्यथित लोगों के बीच मरहम की तरह हैं।’’ लेक गंगा जी से इतना प्रभावित हैं कि उन्होंने खुद को आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में बदल डाला। वह खुद को 'द रॉग गुरु’ (दुष्ट गुरु) कहते हैं। इसका कारण यह है कि वह नहीं चाहते कि कोई उनका अनुयायी हो। वह कहते हैं, ''मैं यहां पूजे जाने के लिए नहीं हूं।’’
बिना तामझाम के लोगों को आध्यात्मिकता के मार्ग पर ले जाना इन सभी विदेशी गुरुओं को जोड़ता है। इतना ही नहीं तर्कवादी सानल एडमारुकु और इनमें ज्यादा समानता देखते हैं। वह कहते हैं, ''इनमें क्या समानता है, आध्यात्मिकता को देखने का इनका अलग नजरिया, इनका मोटा पासपोर्ट और इनका विशाल यात्रा बजट।’’ वह कहते हैं कि इनमें आधा मजाक है। एडमारुकु के अनुसार, ''इन गुरुओं के लिए भोले-भाले लोगों से भरा बड़ा बाजार है। जो इनके पास आने के लिए बेताब है।’’ अगर हाल में जिंदगी में कोई गहरा झटका लगा हो तो आप कई गुरुओं से जुड़ सकते हैं और अपनी समस्या से बाहर आ सकते हैं।