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पहले तैयारी तो हो मुक्कमल

युद्ध की फिजां बरकरार पर हम कितने तैयार, भारतीय सेना की ताकत पाकिस्तानी फौज से दोगुनी, पर आधुनिकीकरण के धीमे प्रयासों से मारक क्षमता थोड़ी कमतर। परमाणु युद्ध का खतरा भी मौजूद
सेना दिवस के मौके पर आयोजित परेड में शामिल भारतीय युद्ध टैंक

भारतीय सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने अपने विवादास्पद इंटरव्यू के आखिरी हिस्से में यह विश्वास जताया था कि पाकिस्तान के साथ 'सीमित युद्ध’ की आशंका नहीं है। इससे साफ है कि जनरल युद्ध का नगाड़ा बजाने के मूड में नहीं हैं। लेकिन ऐसा उनके दूसरे सहयोगी वायु सेना प्रमुख बी.एस. धनोवा के बारे में नहीं कहा जा सकता। उन्होंने पिछले महीने वायु सेना को पाकिस्तान के साथ अल्पकालिक युद्ध के लिए तैयार रहने को कहा है। पहले हुई कई लड़ाइयों से तो यही सीख मिलती है कि युद्ध छेड़ना तो आसान होता है पर उसे खत्म करने का फैसला लेना बहुत मुश्किल होता है। जर्मनी के लोगों से 1939, जापानियों से 1941 या फिर पाकिस्तानियों से 1965 की जंग की बाबत पूछिए। युद्ध छिड़ जाए तो हालात ऐसे मोड़ लेते हैं जो वश में नहीं होते। माहौल एकदम अस्थिर हो जाता है।

जम्मू-कश्मीर के विस्फोटक हालात के मद्देनजर इस पर विचार करना बेजा नहीं है, जहां भारतीय सेना का दृढ़ विश्वास है कि वह वहां पाकिस्तान के साथ छद्म-युद्ध में उलझी है। हालांकि सेना फिलहाल पाकिस्तान के साथ सीधे युद्ध का कोई खतरा नहीं देखती है, मगर सोशल मीडिया या जिहाद के जुनूनियों का जज्बा तो कुछ और ही कहता है। सरकार की सुविचारित नीति का अभाव ऐसे तत्वों को अतार्किक ढंग से नीतियों को प्रभावित करने का मौका दे देता है। यकीनन कागज पर तो भारतीय सेना संख्या बल और मारक क्षमता दोनों में पाकिस्तानी फौज से काफी भारी है। भारतीय सेना में 12 लाख सैनिक हैं जबकि पाकिस्तान के पास 6.5 लाख सैनिक हैं। भारतीय सेना के पास चार हजार टैंक हैं जिनमें 1,600 टी 90 हैं। जबकि पाकिस्तान के पास करीब 650 एमबीटी और 1,000 सेकेंड लाइन टैंक हैं। ऐसा ही अंतर दोनों देशों की वायु सेना और नौसेना में भी है।

लेकिन भारत के पास अल्पकालिक युद्ध में लंबी दूरी से पाकिस्तानी फौज पर हमला करने की वैसी क्षमता नहीं है जैसी क्षमता का प्रदर्शन अमेरिका ने सद्दाम हुसैन या तालिबान के खिलाफ किया। भारतीय सेना के पास आज की तारीख में न तो ऐसे उपकरण हैं और न ही उसका ढांचा ऐसा है कि वह पाकिस्तानी पंजाब की खाई और बांध वाली सुरक्षा को एक झटके में भेद सके या उसे बाईपास कर सके। यही स्थिति पर्वतीय इलाकों में भी है। वहां सेना और गोलीबारी करने वाले हथियारों को एक सीमा तक ही तैनात किया जा सकता है। लेकिन रेगिस्तानी इलाके में भारतीय सेना बेहतर कर सकती है। वहां सैन्य साजो-सामान ले जाना आसान है।

भारतीय सेना के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया अपूर्ण है और उसके ढांचे में भी थोड़ी ढिलाई है। उदाहरण के लिए, उसके पास स्वचालित हथियारों की कमी है जो पाकिस्तान पर किसी हमले के लिए जरूरी है। इसी तरह भारतीय सेना की मोबाइल वायु सुरक्षा प्रणाली भी पूरी तरह पुरानी हो चुकी है। ऐसे में भारत को दो तरह के प्रयास करने चाहिए। पहला यह कि सेना का आधुनिकीकरण किया जाए और अप्रचलित और पुराने हो चुके उपकरणों को बदला जाए। दूसरे, सेना अपनी क्षमता और गुणवत्ता को नए और उच्च स्तर पर बढ़ाए। सैन्य रिकॉर्ड के मुताबिक, आधुनिकीकरण की प्रक्रिया तो चल रही है लेकिन रक्षा बजट में मामूली बढ़ोतरी से पुरानी प्रणाली को बदलना और नए उपकरण खरीदना बेहद कठिन है।

वैसे भी, मोदी सरकार अगर आधुनिकीकरण की दिञ्चकतों से पार पाने का रास्ता निकाल लेती है तब भी भारतीय सेना में नए उपकरणों को शामिल करने और उसमें बदलाव लाने में एक दशक लग जाएगा। निस्संदेह, मौजूदा सरकार का ध्यान हथियारों, मिसाइलों और मारक हथियारों में कमी की भरपाई करने की ओर है, जिसे तथाकथित वार वेस्टेज रिजर्व्स कहा जाता है। ऐसे में, भारत को अभी युद्ध में भाग लेने लायक बनना है तो उसे तत्काल अपनी ताकत बढ़ानी होगी। पुराने और अप्रचलित हो चुके हथियारों को युद्ध में इस्तेमाल करने लायक बनाना होगा ताकि मौके पर उनका सटीक इस्तेमाल किया जा सके।

करगिल युद्ध के बाद भारत ने पाकिस्तान के छद्म-युद्ध को नाकाम करने और ऐसे किसी प्रयास के बारे में पता लगाने का तरीका खोज लिया है। पहले सीमित युद्ध से निपटने के सिद्धांत पर काम किया गया और 2002 में 'ऑपरेशन पराक्रम’ के गड़बड़झाले के बाद उसने 'कोल्ड स्टार्ट डॉक्ट्रिन’ के बारे में सोचना शुरू किया, जिसका मकसद युद्ध की स्थिति में पाकिस्तान के प्रमुख ठिकानों पर फौरन कब्जा करना है ताकि पाकिस्तान अपने परमाणु हथियारों का इस्तेमाल न कर पाए।

मगर मौजूदा हालात ये हैं कि सीमा के पास मोर्चे पर न तो आक्रमण करने वाली सेना तैनात है, न ही उसे ऐसे हथिरयार या उपकरण दिए गए हैं। इसलिए भारतीय सेना का कोई भी आक्रमण ज्यादा नतीजा नहीं दे पाएगा। इतना ही नहीं, यह कोल्ड स्टार्ट और अति सक्रिय रहने की नई युद्ध नीति को भी बेमानी बना देगा।

उधर पाकिस्तान के फौजी हुक्मरानों का मानना है कि उनके पास भारतीय सेना के किसी भी आक्रमण की धार कुंद करने के लिए आवश्यक सैन्य क्षमता है। 1965 और 1971 की लड़ाई के बाद पाकिस्तानी युद्ध योजनाओं में वह ख्वाब तो अब दूर की कौड़ी हो गई होगी कि उसे लाल किले पर झंडा गाड़ना है। बजाय इसके पाकिस्तानी फौज का जोर इस पर है कि भारतीय सेना को अपने इलाके में घुसने से कैसे रोका जाए और भारतीय सैनिकों को कैसे बंधक बनाया जाए।

भले ही पाकिस्तान की सेना भारत से आधी हो पर उसके यहां पांच लाख रिजर्व्स (टुकड़ियां) हैं। भारत के पास भी ऐसी रिजर्व्स हैं पर पाकिस्तान को इस मामले में इस कारण बढ़त हासिल है कि उसकी सेना में पंजाब के तीन जिले के लोगों की ही हिस्सेदारी ज्यादा है। इसकी वजह से उन्हें किसी भी मोर्चे पर भेजना आसान होता है। कहीं भी आना-जाना बहुत जल्द, आसानी से और सार्थक तरीके से हो जाता है। पाकिस्तानी फौज का गठन इस तरीके से किया गया है कि सैनिक सीमा के आसपास से ही हो। इस तरह अग्रिम चौकियों पर फौरन सेना तैनात करना आसान होता है। वास्तव में, 2002 से लेकर अभी तक स्थिति में खास बदलाव नहीं आया है। उस समय पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुशर्रफ ने अहंकार से भरकर दावा किया था कि उन्होंने भारतीय सेना को रोक दिया है। उन्होंने कहा था कि इसका कारण यह है कि पाकिस्तानी सेना का अनुपात भारतीय सेना को रोकने के हिसाब से सही था। भारतीय वायु सेना को पाकिस्तानी वायु सेना पर महत्वपूर्ण बढ़त हासिल है। वह अपने लक्ष्य पर बमबारी और हमला करने में सक्षम है। पाकिस्तान ऐसे हमले होने पर पलटवार करने की क्षमता रखता है। ऐसा करने के लिए उसके पास बैलेस्टिक मिसाइल भी मौजूद हैं।

हम पाकिस्तान और चीन के बीच रिश्तों में आई प्रगाढ़ता के बाद शुरू हुई गतिविधियों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। भारतीय कूटनीति इस गठजोड़ को तोड़ने में विफल रही है। हालांकि यह 1960 से चला आ रहा है। यह गठजोड़ अब मजबूत होता जा रहा है और इसके महत्वपूर्ण मायने भी हैं। 1971 के बांग्लादेश युद्ध और 1999 के करगिल युद्ध के दौरान चीन पाकिस्तान का समर्थन करने से एक सीमा तक बचता रहा लेकिन इस बार ऐसी स्थिति नहीं रहने वाली है। इस बार चाइनीज पीपुल्स लिबरेशन आर्मी मोर्चे पर डटने को तैयार है। इसका कारण भारत-चीन के बीच खराब रिश्ते और अरुणाचल प्रदेश का विवाद है।

भारत को चीन के रक्षा खर्च में तेजी से हुई बढ़ोतरी से सचेत हो जाना चाहिए। वैसे यह भी साफ-साफ जान लेना चाहिए कि हमारी सरकार सैन्य जरूरतों के हिसाब से रक्षा बजट में इजाफा नहीं कर सकती है। भारत और चीन की तुलना के लिए किए गए रैंड अध्ययन में यह बात साफ तौर पर उभरी कि दोनों देशों के सैन्य खर्च के अनुपात में इजाफा होगा। इसमें यह भी कहा गया कि भारत को शोध, विकास और उपलब्धि के क्षेत्र में अपनी बेअसर और प्रभावहीन स्थिति में महत्वपूर्ण बदलाव लाना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता है तो भारत और चीन के बीच गुणवत्ता और संख्या दोनों मामलों में सैन्य क्षमता के बीच विशाल अंतर सामने आएगा। रैंड की यह रिपोर्ट 2011 में आई थी लेकिन इसके छह साल बाद भी ऐसा कुछ नहीं हुआ है जिसके आधार पर यह कहा जाए कि भारत ने अपनी सेना को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए उपकरण और संगठनात्मक स्तर पर गंभीर प्रयास किए हैं।

परमाणु हथियारों के बारे में जानकारी देना भी एक बड़ा सवाल है। भारत के हमला करने की जबरदस्त क्षमता और पाकिस्तान की आसन्न हार के बाद यह आशंका है कि इस्लामाबाद के हाथ परमाणु हथियारों के ट्रिगर की ओर बढ़ें। इसके बाद खतरा यहीं से पैदा होगा। भारत और चीन दोनों बड़े देश हैं इनके लिए परमाणु रहित झटका बहुत ज्यादा विनाशकारी नहीं होगा लेकिन पाकिस्तान के बारे में यह स्थिति नहीं है। इसका भौगोलिक ढांचा ऐसा है कि यह सहज रूप से उसके सामने अत्यंत संवेदनशील और खतरनाक स्थिति पैदा करने वाला है। भारत के सामने वह मनोवैज्ञानिक रूप में कमजोर है। ऐसे में पाकिस्तान की हार के बाद परमाणु हथियार का इस्तेमाल सबसे बड़ा खतरा है।

युद्ध की स्थिति होने के बाद जो सबसे बड़ा खतरा सामने आएगा वह किसी बाहरी ताकत के हस्तक्षेप का होगा। यह या तो अमेरिका और उसके सहयोगियों की ओर से संभव है या फिर चीन की ओर से। ऐसे में अमेरिका की दोहरी चिंता है। पहली यह कि इससे उत्पन्न अस्थिरता का असर अफगानिस्तान पर पड़ेगा और दूसरे, वाशिंगटन को सहायता के लिए इस्लामाबाद की ओर रुख करना पड़ेगा लेकिन परमाणु युद्ध होने पर न तो अमेरिका, न ही विश्व समुदाय इसके पीछे खड़ा होगा, क्योंकि हमले से उत्पन्न गर्मी का असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा। भारत में युद्ध पर जोर देने वाले बहुतों का मानना है कि पाकिस्तान की परमाणु-शस्त्र की धमकी केवल बंदर-घुड़की है। शायद यही हो, लेकिन इसी को सच मान लेना जोखिम भरा है। उनसे निबटना इतना आसान नहीं है। जरा गौर कीजिए, उत्तर कोरिया के पास केवल चार या पांच परमाणु बम और एक मिसाइल ही तो है जो अमेरिका की आधी दूरी तक ही जा सकती है, फिर भी वह दुनिया की सबसे बड़ी ताकत के नाक में दम किए हुए है। भारत में भले ही यह राय हो कि परमाणु हथियार मात्र विरोधी को डराने के लिए हैं लेकिन पाकिस्तान की रणनीति बिलकुल साफ है कि परमाणु बम इसलिए है कि उसे भारत के हाथों हार न झेलनी पड़े। पाकिस्तानी फौजी हुक्मरानों में भारत के प्रति नफरत से परिचित हर किसी को मालूम होना चाहिए कि उन्हें भारत पर थूकने के बदले अपनी नाक कटा लेना भी मंजूर होगा।

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के फेलो हैं)

दक्षिण एशिया की कूटनीतिक स्थिति

भारत और पाकिस्तान के अमेरिका, चीन और रूस से ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध-दोनों देशों के बीच विवाद उत्पन्न होने के बाद महत्वपूर्ण

भारत-अमेरिका

दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देशों के बीच के रिश्ते शीत युद्ध के दौरान से ही मैत्रीपूर्ण तो हैं पर दोनों ने सुरक्षित दूरी भी बनाए रखी है। पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्ते बहुत नजदीकी हैं। 1971 के युद्ध में अमेरिका ने पाक को भारत के खिलाफ सैन्य सहायता भी दी थी। इससे भारत-अमेरिका के रिश्तों में तनाव आया। बाद में रिश्ते सुधरे और 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद इसमें और मजबूती आई। लेकिन अमेरिका प्रतिद्वंद्वियों के साथ रिश्तों को संतुलित बना कर रखता है। ऐसे में ट्रंप के राष्ट्रपति काल में क्या स्थिति रहती है इस पर अनिश्चितता बरकरार है।

पाकिस्तान-अमेरिका

शीत युद्ध के समय से ही दोनों निकट के सहयोगी। पाकिस्तान का अमेरिका के साथ सैन्य गठजोड़ भी है। 70 के दशक की शुरुआत में दोनों के रिश्तों में और प्रगाढ़ता आई। चीन और अमेरिका की घनिष्ठता इस्लामाबाद के सहयोग से ही बढ़ी। रूस अधिकृत अफगानिस्तान में अमेरिकी सरगर्मी के बाद पाकिस्तान का कद और बढ़ा। एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन के मारे जाने के बाद रिश्तों में खटास आई। लेकिन अमेरिका-अफगानिस्तान की स्थिति के कारण ट्रंप के सलाहकार इस्लामाबाद का दर्जा ऊपर ही रखना चाहेंगे।

भारत-चीन

दो नए प्रजातांत्रिक देशों के बीच शुरुआती दौर में मिलनसार रहे रिश्तों का अंत 1962 में सीमा विवाद को लेकर हुए युद्ध के बाद हो गया। वर्तमान में रिश्तों में तनाव का कारण पाकिस्तान और चीन के बीच बढ़ता गठजोड़ है। हालांकि सहयोग और प्रतिद्वंद्विता के बीच रिश्ते चल रहे हैं पर हाल में अरुणाचल प्रदेश और बौद्धों के तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा को लेकर संबंधों में कड़ुवाहट आई है। सीपीईसी जिस तरह इस्लामाबाद को प्रश्रय दे रहा है उससे यह संदेह पैदा होता है कि युद्ध की स्थिति में चीन तटस्थ रहेगा।

पाकिस्तान-चीन

दोनों देशों के बीच 1960 से नजदीकियां बढ़ीं। पाकिस्तान ने अपने हिस्से के कश्मीर का कुछ हिस्सा चीन को उपहार में दे दिया। भारत को दक्षिण एशिया में रोकने के लिए पाकिस्तान चाहता है कि इसके लिए चीन महत्वपूर्ण भूमिका निभाए। इसलिए वह चीन से रिश्ते को और मजबूत रखना चाहता है। चीन ग्वादर बंदरगाह और जिंगसियांग को जोड़ने के लिए 50 अरब डॉलर की राशि खर्च कर रहा है। यह चीन की बेल्ट-रोड परियोजना का महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारत के साथ तनावपूर्ण रिश्ते के कारण दोनों देश और नजदीक आए हैं।

भारत-रूस

गुटनिरपेक्ष मुद्दे पर अलग रुख रखने के बाद भी भारत और रूस के रिश्ते शीत युद्ध के दौरान मजबूत हुए। अमेरिकी धमकी के बाद भी 1971 की लड़ाई में रूस के सहयोग के कारण दोनों में निकटता और बढ़ी। यूएसएसआर की टूट के बाद भारत का झुकाव अमेरिका की ओर बढ़ने के कारण रिश्तों में थोड़ा तनाव जरूर आया। रूस अब भी निकट सहयोगी बना हुआ है लेकिन इसका झुकाव पाकिस्तान की ओर भी हुआ है। पाकिस्तान जिस तरह से चीन पर आश्रित है उससे यह संदेह उत्पन्न होता है कि युद्ध की स्थिति में रूस तटस्थ रहेगा।

पाकिस्तान-रूस

शीत युद्ध के दौरान दोनों देशों के रिश्तों में कोई गर्मी नहीं। पाकिस्तान इस दौरान रूस के खिलाफ अमेरिकी गठजोड़ का हिस्सा था। बाद के वर्षों में इस्लामाबाद ने मास्को से संबंध सुधारने की कोशिश की। भारत-अमेरिका के रिश्तों ने पाकिस्तान और रूस को नजदीक आने का मौका दिया। मास्को ने 2014 में हथियारों की बिक्री पर से प्रतिबंध हटा लिया और पाकिस्तान को लड़ाकू हेलीकॉप्टर दिए। 2016 में दोनों ने संयुक्त सैन्य अभ्यास भी किए। रूस अमेरिका को अफगानिस्तान से दूर रखना चाहता है, इस वजह से नजदीकी और बढ़ सकती है।

एलओसी और घाटी पर अमेरिका की भी नजर

लोगों से मिल राजनयिकों ने जाना वहां का हाल

श्रीगर से नसीर गनई

नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव पर अमेरिका की भी पैनी नजर है। 24 मई को अमेरिका के दो राजनयिक श्रीनगर पहुंचे। यह पहला मौका नहीं था जब इस स्तर के अधिकारी तनावग्रस्त कश्मीर में आए हों। एक खुफिया रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास में राजनीतिक मामलों के प्रमुख डेविड पी. अरुलानानथम और दूसरे राजनयिक रॉबर्ट जैकब दुवाल यहां आए थे। जब इनसे सिविल सोसाइटी ग्रुप और अन्य लोगों ने मुलाकात की तो उन्होंने कहा कि वे दोनों देशों के बीच बढ़ते तनाव से 'ज्यादा चिंतित और आशंकित’ हैं।

इन राजनयिकों ने एक कैबिनेट मंत्री, वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से मुलाकात के अलावा डल झील के निकट रहने वाले लोगों के घरों का दौरा भी किया। इनसे मिलने वाले एक वार्ताकार ने कहा, 'उन्हें इस बात की जानकारी है कि एलओसी, विशेषकर राजौरी सेक्टर, पर दोनों सेनाओं के बीच क्या हो रहा है। वे यह भी जानते हैं कि घाटी में क्या हो रहा है।’ पहले के दौरों की तरह इस बार भी राजनयिकों ने अलगाववादी नेताओं से दूरी बनाए रखी। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के पूर्व चेयरमैन प्रो.अब्दुल गनी बट कहते हैं, 'यह कोई मसला नहीं है कि अमेरिकी राजनयिक हमसे मिलते हैं या नहीं। लेकिन उन्होंने कश्मीर में हिंसा की आवाज सुनी, यह हमारे लिए महत्वपूर्ण है।’ उनकी इस आशा के पीछे भारतीय मूल की अमेरिकी और संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की राजदूत निकी हेली का बयान है। हेली ने अप्रैल में कहा था कि ट्रंप प्रशासन भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव को लेकर चिंतित है और स्थिति और खराब होने के इंतजार में चुप नहीं बैठेगा। इतना ही नहीं, अमेरिका दोनों देशों के बीच मध्यस्थता करने को भी तैयार है और इसके लिए ट्रंप सक्रिय भूमिका निभाने को भी तैयार हैं। हालांकि भारत ने अमेरिका के इस प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि यह दोनों देशों का द्विपक्षीय मुद्दा है। हुर्रियत के उदारवादी धड़े के चेयरमैन उमर फारूक कहते हैं, 'सुपर पावर होने के नाते अमेरिका ने जिस तरह का सकारात्मक रुख अपनाया है वह कश्मीर में रहने वाले लोगों के लिए संतोषप्रद है।’

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