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आंदोलन की आग

नासिक से निकली चिंगारी मंदसौर में पहुंची तो आंदोलन की आग ऐसी भड़की कि पूरे देश में उसकी आंच महसूस होने लगी, लेकिन बड़ा सवाल यही कि क्या यह आंदोलन देश में किसानों के हक में नीतियों में बदलाव का झंडाबरदार बनेगा?
शाजापुर में प्याज और सब्जियां बिखेर कर प्रदर्शन करते किसान

मध्य प्रदेश और वह भी खेती-किसानी में अपेक्षाकृत संपन्न मंदसौर से ऐसी आग उठेगी कि समूचे देश के किसानों में अपनी लाचारी-मजबूरी झाड़कर उठ खड़ा होने का जज्बा पैदा कर देगी! यह भी कि अरसे से किसान खुदकुशी के लिए बदनाम महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के एक नामालूम-से गांव पुणतांबा से ऐसी चिनगारी उछलेगी कि मंदसौर धू-धू कर जल उठेगा, जिसकी आंच से समूचा देश तपने लगेगा! लगभग ढाई दशक से देश की अर्थव्यवस्था और नीतियों से बाहर हो चुके किसानों का यह मंजर देख देश के हुक्मरान ही नहीं, उदारीकरण की नीतियों के पैरोकार भी हैरान हैं। इसलिए यह सवाल भी मौजूं हो गया है कि क्या किसानों का अपना वाजिब हक हासिल करने का यह मोर्चा नीतियों में बदलाव को मजबूर करेगा? या फिर, थोड़ी आंच पैदा करने के बाद आग यह बुझने लगेगी?

असल में यही सवाल सत्ता तंत्र को परेशान कर रहा है, जिससे निपटने के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस किसान कर्ज माफी के करीब 30,000 करोड़ रुपये की व्यवस्था करने के लिए सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर अमल टालने के अलावा इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं पर निवेश घटाने की योजना बना रहे हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ऐसा कुछ अभी नहीं सोच पाए हैं इसलिए मंदसौर में मारे गए किसानों को मुआवजे के एलान के आगे नहीं बढ़ पाए हैं। वे करें भी क्या? कई वर्षों से तो वह कृषि विकास में सबसे ऊंची दर हासिल करने का तमगा लूटते रहे हैं। इधर केंद्र सरकार और नीति आयोग भी मध्यप्रदेश मॉडल को समूचे देश में लागू करने का ख्वाब देखते-दिखाते रहे हैं। वैसे, किसानों को फसल का दाम लागत से डेढ़ गुना दिलाने और उनकी आमदनी 2022 तक दोगुना करने का ख्वाब भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व भी दिखाता रहा है। लेकिन किसान जब वादों का हिसाब मांगने के लिए आगे बढ़ रहा है तो सरकार के हाथ-पांव ही नहीं फूल रहे हैं, वह चालाकियां भी कर रही है और धैर्य भी खो रही है। यही मंदसौर में आग का कारण बन गई।

मंदसौर में 1 जून को किसानों ने अपनी उपज के अधिक दाम और सरकारी खरीद के लिए आंदोलन शुरू किया तो सरकार का ध्यान खींचने के लिए युवा किसानों ने सब्जियां, फल और दूध सड़कों पर बहाने की रणनीति अपनाई। आंदोलन की अगुआई भारतीय किसान यूनियन के अलावा राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के नेता शिवकुमार शर्मा 'कक्का जी’ कर रहे थे। कक्का जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ के नेता हुआ करते थे लेकिन 2010 और 2012 में उग्र आंदोलन से शिवराज को नाराज कर बैठे तो उन्हें संगठन से निकाल दिया गया। उन्होंने अपना अलग संगठन बना लिया। शायद इसी से मुख्यमंत्री आंदोलन के जज्बे को भांपने में नाकाम रहे और सोचा कि राजनीतिक चतुराई से वह इससे निपट लेंगे।

सो, मुख्यमंत्री चौहान ने 4 जून को भारतीय किसान संघ (बीकेएस) और मध्यप्रदेश किसान सेना के साथ उज्जैन में बातचीत की और इन संगठनों ने किसान आंदोलन समाप्त करने की घोषणा कर दी। आंदोलनकारी किसान ठगे-से रह गए। आखिर जिन संगठनों का कोई लेना-देना नहीं था, उन्होंने ही आंदोलन समाप्ति का एलान कर दिया था। फिर अगले दिन मुख्यमंत्री कह बैठे, 'आंदोलन करने वाले किसान नहीं, असामाजिक तत्व हैं।’ इससे किसानों के सब्र का बांध टूट गया। किसान सड़क पर उतर आए। मंदसौर के पिपलिया मंडी में सरकारी वाहनों को आग के हवाले कर दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान के पुतले फूंके गए। पुलिस ने काबू पाने के लिए पहले लाठीचार्ज, फिर आंसू गैस और फायरिंग का फैसला किया। फायरिंग में पांच किसानों की मौत हो गई।

मौत की खबर आग की तरह फैली तो आंदोलन प्रदेश के दूसरे इलाकों में भी फैल गया। मंदसौर के आसपास कुछ जिलों का आंदोलन पूरे पश्चिम मध्य प्रदेश में फैल गया। रतलाम, मंदसौर, नीमच, उज्जैन, शाजापुर, खरगोन, खंडवा, देवास, धार और यहां तक की प्रदेश की राजधानी भोपाल के करीब सीहोर तक में आंदोलन की लौ धधकने लगी। इससे सरकार सकते में आ गई। फौरन उसने मृतकों के परिजनों और घायलों के लिए अपना खजाना खोलने का फैसला किया। सरकार की घबराहट का आलम यह था कि पहले मृतकों के परिजनों को पांच लाख रुपये सहायता और घायलों का नि:शुल्क इलाज करवाने के एलान के साथ न्यायिक जांच के आदेश दिए जाते हैं। कुछ घंटे बाद मृतकों के परिजनों को 10 लाख रुपये मुआवजे और घायलों को एक लाख रुपये मदद का एलान होता है। घोषणाओं में फिर संशोधन होता है और आखिरकार मृतकों के परिजनों को एक करोड़ रुपये के मुआवजे, किसी एक योग्य परिजन को सरकारी नौकरी और घायलों को पांच लाख रुपये सहायता राशि मुकर्रर की जाती है।

लेकिन ये घोषणाएं किसानों पर मरहम लगाने में नाकाम रहीं। किसान नेता तरुण बाहेती ने कहा, 'यह अच्छा तरीका है, पहले गोली मारो और फिर मुआवजे का एलान कर दो। अब तो किसानों को अपना वाजिब हक चाहिए।’ मामला शांत होता न देख सरकार और भाजपा ने कहना शुरू किया कि कांग्रेस अपने राजनीतिक फायदे के लिए किसानों को मोहरा बना रही है। जाहिर है, कांग्रेस को भी इसमें राज्य में अपनी वापसी का मौका दिखा। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने मांग की, 'मुख्यमंत्री कैबिनेट की बैठक बुलाएं और किसानों का कर्ज माफ करें, फसल की लागत की डेढ़ गुना कीमत दें, किसानों पर लगाए झूठे मुकदमे वापस लें।’ प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर तमाम नेता सक्रिय हुए। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी मंदसौर पहुंचे तो उन्हें गिरफ्तार कर राजस्थान की सीमा पर छोड़ दिया गया तो उन्होंने मोटरसाइकिल की सवारी करके दोबारा घुसने की कोशिश की। कांग्रेस उपाध्यक्ष ने कहा, 'यह सरकार हमारे देश के किसानों के साथ युद्ध कर रही है। बीजेपी के न्यू इंडिया में हक मांगने पर हमारे अन्नदाताओं को गोली मिलती है।’

इस बीच हर बढ़ी घटना और दुर्घटना में सबसे पहले ग्राउंड जीरो पर पहुंचने वाले मुख्यमंत्री भोपाल में ही कैंप किए रहते हैं। वह गांधीगीरी करने का एलान करते हैं। 10 जून की सुबह 11 बजे से भेल दशहरा मैदान में उपवास शुरू कर देते हैं। आखिर अगले दिन वह एक किसान के हाथ से जूस का गिलास लेकर उपवास तोड़ते हैं। वह एलान करते हैं, 'राज्य में जब-जब किसानों पर संकट आया, मैं मुख्यमंत्री आवास से निकलकर किसानों के पास पहुंचा। हम नए आयोग का गठन करेंगे जो फसलों की सही लागत तय करेगा। उस लागत के हिसाब से किसानों को सही कीमत दिलाएंगे।’

लेकिन पश्चिम मध्यप्रदेश से शुरू हुआ आंदोलन अब पूर्वी मध्यप्रदेश के सतना, रीवा, जबलपुर पहुंच चुका है। रीवा में किसानों ने डिविजनल कमिश्नर के दफ्तर के आगे कई क्विंटल प्याज फेंक दिया। मंदसौर में तनाव रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। तनाव फिर बढ़ गया जब पुलिस की पिटाई में घायल छठे किसान घनश्याम धनकड़ की इंदौर के अस्पताल में मौत हो गई। पहले सरकार उसे युवा कांग्रेस का नेता बताने की कोशिश करती रही लेकिन गांव वालों के अड़ने के बाद मंदसौर कलेक्टर ओपी श्रीवास्तव और एसपी मनोज कुमार सिंह को मुआवजे का एलान करना पड़ा।

पड़ोसी छत्तीसगढ़ में भी किसानों के मुद्दे करवट लेने लगे हैं। दरअसल मध्यप्रदेश में किसानों के भड़नके के पहले महाराष्ट्र में किसानों के बीच फसल के वाजिब दाम, कर्ज माफी वगैरह को लेकर पिछले कुछ महीने से सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। अहमदनगर जिले की पुणतांबा ग्राम सभा ने 3 अप्रैल को 1 जून से हड़ताल का फैसला किया। यह अहमदनगर और नासिक की सीमा पर सबसे बड़ी मंडी है। वहां से आसपास के शहर-कस्बों में दूध, फल और सब्जियों की सप्लाई रोक दी गई। सरकार के कान पर जूं न रेंगती देख भाजपा के सहयोगी स्वाभिमानी शेतकरी संगठना के नेता तथा सांसद राजू शेट्टी ने 22 मई से 30 मई तक पुणे में ज्योतिबा फुले की प्रतिमा से लेकर मुंबई सचिवालय तक मार्च निकाला। इसे 'आत्मक्लेश’ यात्रा नाम दिया और हर गांव में किसानों से इसलिए माफी मांगी कि उन्होंने चुनावों में उनसे भाजपा और एनडीए को वोट देने को कहा था। मध्यप्रदेश में किसानों पर सरकारी कार्रवाई के बाद उन्होंने कहा, 'मैं (बीजेपी के साथ) अपने गठबंधन पर पुनर्विचार कर रहा हूं। मैं किसानों की मांग के समर्थन पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन की योजना बना रहा हूं।’

देशव्यापी आंदोलन होता है या नहीं, यही शायद आगे की सियासत तय कर सकता है। वैसे, हरियाणा, कर्नाटक, आंध्र, उत्तर प्रदेश में ऐसी सुगबुगाहटें शुरू हो गई हैं। देश भर के किसान संगठनों की समन्वय समिति बनाने की कोशिशें तेज हो गई है। यह बैठक 16 जून को दिल्ली में हो रही है। इसमें देशव्यापी रणनीति बनाने की रूपरेखा तैयार की जाएगी।

जाहिर है, यह सरकार को भला क्यों रास आता। यह तो बताना मुश्किल है कि सरकार इससे निपटने को क्या कर रही है, लेकिन 10 जून को दिल्ली में कुछ संगठनों की बैठक हुई, जिसमें 16 जून को ही राष्ट्रीय राजमार्गों को बंद करने का फैसला किया गया है। फिर, भारतीय किसान यूनियन के राकेश टिकैत धड़े ने 15 जून को दिल्ली में महापंचायत बुलाई है। जाहिर है, किसी तरह आंदोलन से निजात पाने की कोशिशें भी एक तरह तेज हो गई हैं। इसके विपरीत कांग्रेस और विपक्षी दलों को इसमें मौका दिख रहा है।

खबरें ये भी हैं कि राकांपा नेता शरद पवार और जदयू नेता शरद यादव भी किसानों के हक में तमाम विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिश में हैं। शरद यादव ने कहा, 'देश में हर जगह किसान मारे जा रहे हैं लेकिन सत्ताधारी पार्टी गाय जैसे गैर-जरूरी मुद्दों में व्यस्त है।’ लेकिन केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह कहते हैं, 'आज जो लोग किसानों की चिंता करने का नाटक कर रहे हैं, आखिर यह समस्या किसकी देन है? मध्यप्रदेश के शिवराज जी देश में सबसे ज्यादा किसानों की चिंता करने वाले मुख्यमंत्री हैं। इस मुद्दे पर राजनीति करने वाले न देश का और न ही किसान का भला चाहते हैं।’ इसके जवाब में राकांपा नेता तथा पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार कहते हैं, 'यह किसानों का आंदोलन है और इसका नेतृत्व उनके प्रतिनिधियों ने ही किया। आंदोलन को राजनीतिक रंग देने की कोई तुक नहीं है। ऐसा करना मुख्यमंत्री के पद को शोभा नहीं देता।’

उधर, आंदोलन के कुछ मद्धिम पड़ते ही किसानों की खुदकुशी का सिलसिला भी शुरू होता दिख रहा है। मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री के उपवास तोड़ने के 48 घंटों के भीतर ही कम से कम दो ऋणग्रस्त किसानों ने आत्महत्या की। इनमें एक तो बुधनी विधानसभा सीट से है, जिसका प्रतिनिधित्व खुद मुख्यमंत्री करते हैं। इससे पहले की सरकार कुछ संभल पाती, होशंगाबाद जिले में एक और किसान की आत्महत्या खबर आ गई।

इस साल फरवरी में, मध्यप्रदेश सरकार ने वरिष्ठ कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत के एक प्रश्न के लिखित उत्तर में कहा था कि पिछले तीन महीनों में 287 किसानों ने आत्महत्या कर ली है। वहीं, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, इस साल फरवरी से पिछले साल फरवरी के बीच मध्य प्रदेश में कम से कम 1,982 किसानों या खेत मजदूरों ने आत्महत्या की। अगर आंकड़ों का औसत निकला जाए तो राज्य में हर पांच घंटे में एक आत्महत्या होती है यानी मध्यप्रदेश के हालात गंभीर हैं। अब किसान नीतियों में बदलाव करने का दबाव नहीं बना पाए तो और मुश्किल के ही आसार हैं। शायद यही आशंका किसान आंदोलन को बल दे रही है।

यह भी याद करें कि किसानों के भूमि अधिग्रहण के मामले में ही इससे पहले केंद्र की मोदी सरकार फंसी थी और उसके बाद दिल्ली तथा बिहार के विधानसभा चुनाव हार गई थी। लेकिन इस सियासत से भी बड़ी बात यह है कि क्या किसानों के मुद्दे नीतियों के केंद्र में आएंगे? उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में किसान कर्ज माफी पूरे देश में एक नई धारा बहा सकती है।

यूं भड़की चिंगारी

3 अप्रैल: महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले की पुणतांबा ग्राम सभा ने 1 जून से शहरों-कस्बों में दूध, फल और सब्जी की सप्लाई रोकने का फैसला किया।

22 मई: महाराष्ट्र में भाजपा के सहयोगी स्वाभिमानी शेतकरी संघटना के नेता और सांसद राजू शेट्टी ने 22 मई से लेकर 30 मई तक पुणे से मुंबई की 'आत्मक्लेश’ यात्रा शुरू की।

1 जून: महाराष्ट्र के नासिक और मध्यप्रदेश के मालवा और निमाड़ इलाके में किसानों ने कृषि उपज के उचित मूल्य के साथ 19 सूत्रीय मांगों को लेकर आंदोलन शुरू किया।

2 जून: इंदौर में हिंसक हुआ किसान आंदोलन, पुलिस से झड़पें हुईं। धार के सरदारपुर में व्यापारी और किसान आमने-सामने।

3 जून: इंदौर में हालात बेकाबू, बिजलपुर में बवाल, रतलाम जिले में हिंसा भड़की, पुलिस ने हवाई फायरिंग की।

4 जून: मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भाजपा समर्थित भारतीय किसान संघ और किसान सेना से बात कर मांगें मानने का एलान किया। लेकिन किसान यूनियन हड़ताल पर कायम रही।

5 जून: मुख्यमंत्री ने साफ किया कि किसानों का कर्ज माफ नहीं होगा, 1000 करोड़ का मूल्य स्थिरीकरण कोष बनाने का एलान।

6 जून: मंदसौर के पिपलिया मंडी में किसानों ने चक्काजाम किया। उग्र भीड़ ने 25 ट्रकों को आग के हवाले कर दिया। पुलिस फायरिंग में पांच की मौत।

10 जून: मुख्यमंत्री का उपवास। अगले दिन किसान कल्याण के एलान के साथ उपवास तोड़ा

16 जून: ऑल इंडिया किसान कोऑर्डिनेशन कमेटी की दिल्ली में बैठक और देशव्यापी आंदोलन की रूपरेखा तैयार करने की कोशिश।

'शिवराज सरकार ने की वादाखिलाफी’

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा भारतीय किसान संघ से टूटकर राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ का गठन करने वाले इसके राष्ट्रीय संयोजक शिवकुमार शर्मा 'कक्काजी’ मौजूदा किसान आंदोलन के एक धड़े का नेतृत्व कर रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से उनकी अदावत तब से है जब उनके नेतृत्व में हजारों किसान ट्रैक्टरों में कंडे, दाल, जलाऊ लकड़ी, कंबल और अन्य जरूरत का सामान लादकर मुख्यमंत्री के बंगले के सामने जा पहुंचे। फिर मई 2012 में बरेली में किसानों के विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया। आखिर शिवकुमार शर्मा के खिलाफ कई धाराओं में केस दर्ज कर उन्हें जेल भेज दिया गया। इसके बाद भाजपा ने शिवकुमार के निष्कासन की मांग की और आरएसएस ने उन्हें संघ से बाहर कर दिया। मौजूदा आंदोलन के बारे में उनसे बातचीत के अंश:

 

सरकार से बातचीत करेंगे?

नहीं। कई बार बातचीत का नतीजा शिफर रहा है। सरकार लिखित में क्यों नहीं देती। अब तो केंद्र और राज्य दोनों में इनकी सरकार है। 

और कोई रास्ता?

हां, सरकार किसानों की आवाज दबाने के बजाय आत्मनिरीक्षण करे। 

आंदोलन कब तक?

जब तक मांगें पूरी नहीं होंगी। आपको बता दूं कि किसानों में यह गुस्सा पिछले कई वर्षों से घुमड़ रहा था। 

आंदोलन में हिंसा क्यों?

आंदोलन हमारा पर हिंसा के पीछे हम नहीं हैं। मैं इसके आगे और कुछ नहीं कहूंगा। शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने किसानों के साथ वादाखिलाफी की।

बदला राजनीति का एजेंडा

महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से शुरू हुआ किसान आंदोलन भाजपा के केंद्रीय और राज्य नेतृत्व के लिए भारी सिरदर्द बन गया है जबकि कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों को इसमें राजनीतिक ताकत हासिल करने का मौका दिख रहा है। खास बात यह रही है कि इस मसले पर सबसे पहले भाजपा के सहयोगी दलों ने ही झटका दिया। महाराष्ट्र में सरकार में शामिल शिवसेना ने देवेंद्र फडणवीस सरकार की किसान हितों की अनदेखी के लिए लगातार आलोचना की और कई बार पार्टी के नेताओं और शीर्ष नेतृत्व ने बयान देकर साझा सरकार को किसान विरोधी कहा। किसानों के लिए सत्ता में हिस्सेदारी छोड़ने तक की बात की गई। यही नहीं, केंद्र और महाराष्ट्र में एनडीए के सहयोगी स्वाभिमानी शेतकरी पक्ष ने लगातार सरकार की किसान विरोधी नीतियों की आलोचना के बाद स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के बैनर तले इसके प्रमुख और सांसद राजू शेट्टी ने 22 मई से 30 तक सरकारी किसानों से वादाखिलाफी को लेकर 'आत्मक्लेश’ यात्रा निकाली और कर्ज माफी समेत दूसरी मांगों को पूरा करने के लिए दबाव बनाया। राजू शेट्टी कहते हैं, 'मैंने ऐसा इसलिए किया कि हमने एनडीए के लिए 2014 के लोकसभा चुनावों में जिन वादों पर वोट मांगा था, उनको पूरा करने के लिए मैं पश्चाताप करने लोगों के बीच गया। लेकिन महाराष्ट्र की भाजपा सरकार राजनीति खेल रही है और उसने हमारे आंदोलन को तोड़ने की कोशिश की।’

सरकार से पहले दौर की वार्ता टूटने के बाद शेट्टी किसान क्रांति की समन्वय समिति में शामिल हो गए थे। मध्यप्रदेश में किसानों पर पुलिस फायरिंग में पांच किसानों की मौत के बाद कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी जिस तरह मंदसौर पहुंचे और कांग्रेस के दूसरे नेता मध्यप्रदेश का रुख कर रहे हैं, वह साबित करता है कि कांग्रेस किसान आंदोलन के सहारे अपनी जमीन मजबूत करने की उम्मीद कर रही है। उधर, मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जिस तरह भाजपा के सहयोगी संगठन भारतीय किसान संघ के निशाने पर आए, वह भाजपा में सब कुछ सही नहीं होने की ओर इशारा कर रहा है। अब भी मध्यप्रदेश में हालात सामान्य नहीं हैं। राजनीतिक सूत्रों की मानें तो शिवराज सिंह के लिए आगे की राह बहुत आसान नहीं है।

कुछ इसी तरह की दिक्कतें हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के लिए भी पैदा हो रही हैं। उनकी पार्टी के ही नेता उनको किसान विरोधी बताकर राज्य में आने वाले दिनों में पार्टी के लिए संकट की बात करने लगे हैं। हालांकि इस आंदोलन को कमजोर करने के लिए भाजपा भी कोशिश कर रही है। जिस तरह किसान संघ ने मध्यप्रदेश में आंदोलन वापस लिया और भारतीय किसान यूनियन के राज्य जनरल सेक्रेटरी से शिवराज के उपवास के मौके पर आंदोलन वापस लेने की घोषणा कराई गई, ये सभी राजनीतिक रूप से आंदोलन को साधने की कोशिश की ओर ही इशारा करती है। हालांकि उसी शाम भाकियू के प्रदेश अध्यक्ष जगदीश सिंह ने आंदोलन जारी रखने की बात कही।

दिलचस्प बात यह रही कि केंद्रीय नेतृत्व के स्तर पर अभी चुप्पी है जबकि आंदोलन देश के अधिकांश हिस्सों में धीरे-धीरे बढ़ रहा है। विपक्ष भी कोई मौका नहीं जाने देना चाहता। जिस तरह जदयू के वरिष्ठ सांसद शरद यादव कांग्रेस के नेताओं के साथ मंदसौर पहुंचे, वह साफ संकेत है कि विपक्ष इस मुद्दे को सरकार के खिलाफ इस्तेमाल करेगा। जदयू के वरिष्ठ नेता, पूर्व सांसद के.सी. त्यागी ने आउटलुक को बताया, '17 दलों की विपक्षी एकता केवल राष्ट्रपति चुनाव तक ही सीमित नहीं है। हम इसके एजेंडे में किसान और उससे जुड़े मुद्दों को भी ला रहे हैं। इस पर बातचीत चल रही है। कई साल बाद किसान पहली बार राजनीतिक एजेंडे के केंद्र में है और केंद्र सरकार की नाकाम नीतियों का नतीजा किसान की बदहाली के रूप में हमारे सामने है। हम इस मुद्दे पर संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग करने वाले हैं। इसके अलावा संवैधानिक दर्जा प्राप्त किसान आयोग के गठन के लिए भी सरकार पर दबाव बनाएंगे।’

कोट - 'यह सरकार किसानों के साथ युद्ध कर रही है। बीजेपी के न्यू इंडिया में हक मांगने पर अन्नदाताओं को गोली मिलती है।’ राहुल गांधी, कांग्रेस उपाध्यक्ष

'कब तक भुलावे में रहे किसान’

आंदोलन के दूसरे बड़े घटक भारतीय किसान यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष जगदीश सिंह ने भी आंदोलन और किसानों की मांगों पर खुलकर बातचीत की। कुछ अंश:

 

क्या सरकार बातचीत को तैयार लगती है? 

सरकार लिखित में क्यों नहीं देती कि वह सारे किसानों के कर्ज कब माफ करेगी। आखिर कब तक किसानों को रिझाने के लिए मुख्यमंत्री और उनकी सरकार वादों से मुकरती रहेगी। 

सरकार तो कह रही है कि किसानों की सब्सिडी सीधे किसान को दी जाएगी।

पर कृषि के लिए पर्याप्त बिजली, हर खेत को पानी और हर हाथ को काम जैसे वादे किए गए थे, उनका क्या होगा? सभी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य और किसान आयोग की सिफारिशों का वादा भी भुला दिया गया है। छोटे किसान को आय की गारंटी देने वाली स्कीम, वृद्धावस्था पेंशन का आखिर क्या हुआ? किसान से किए सारे वादों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।

 

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