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किसान का दम निकालता दाम

सस्ते आयात और नोटबंदी ने किसानों की कमर तोड़ दी, कम कीमत पर फसल बेचना बनी मजबूरी
मंडी में गेहूं तो पहुंचा पर इसे खरीदने की समुचित व्यवस्था नहीं

करीब एक साल पहले दालों के आसमान छूते दाम राष्ट्रीय चिंता का विषय थे। बाजार में अरहर का भाव 180-200 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच चुका था। महाराष्ट्र के अकोला जिले के किसान लक्ष्मण वांगे के लिए अरहर की ज्यादा से ज्यादा बुवाई की इससे बड़ी वजह क्या हो सकती थी! अच्छे दाम की आस में उन्होंने दो के बजाय चार एकड़ में अरहर की बुवाई की। दो साल के सूखे के बाद इस बार मौसम ने भी साथ दिया और पैदावार अच्छी रही। लेकिन फसल बाजार में आने से पहले ही अरहर के दाम गिरने लगे। वजह? देश में बंपर दलहन उत्पादन के बावजूद म्यांमार, तंजानिया और मोजांबिक जैसे देशों से दालों का खूब आयात हुआ। वर्ष 2016-17 में जब देश का कुल दलहन उत्पादन 37 फीसदी बढ़कर 224 लाख टन तक पहुंचा, तब दालों का आयात भी करीब 20 फीसदी बढ़कर 57 लाख टन तक पहुंच गया। बंपर उत्पादन और बंपर आयात के सामने लक्ष्मण वांगे जैसे किसानों की दाल कहां गलनी थी!

रही-सही कसर नोटबंदी ने पूरी कर दी। मंडियों में कारोबार ठप पड़ा तो फरवरी-मार्च आते-आते अरहर के दाम 3,500-4,000 रुपये प्रति क्विंटल तक गिर गए। जबकि न्यूनतम समर्थन मूल्य 5,050 रुपये है। महाराष्ट्र के किसानों को जिस उपज का दाम 10-12 हजार रुपये मिलने की आस थी, उसके पांच हजार रुपये भी नहीं मिल पाए। कैश की किल्लत झेल रहे कई किसानों को 3,000 रुपये प्रति क्विंटल से भी कम भाव पर अरहर बेचनी पड़ी। यह सिर्फ दलहन की दिक्कत नहीं है बल्कि सोयाबीन, प्याज, गन्ना, धान और गेहूं में भी कमोवेश यही स्थिति है। पैदावार घटने पर तो किसान मरता ही है, उत्पादन का बढ़ना भी उसके लिए जानलेवा साबित हो रहा है। इस साल कई फसलों का उत्पादन तो केवल 10 फीसदी बढ़ा लेकिन दाम 50 फीसदी गिर गए।

कृषि मामलों के जानकार और शेतकरी संगठन से जुड़े प्रकाश पोहरे बताते हैं कि जिस साल दालों का बंपर उत्पादन होने जा रहा था, तब सरकार ने दालों का खूब आयात किया और निर्यात पर प्रतिबंध भी जारी रखा। ऊपर से स्टॉक लिमिट की पाबंदियों के चलते प्राइवेट ट्रेडर्स भी ज्यादा खरीद नहीं कर पाए और इस तरह दाम गिरते चले गए। हमारी कृषि नीतियों की खामियों का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि जिस प्याज को पैदा करने की लागत ही 800-1000 रुपये क्विंटल है, किसान उसे दो-तीन रुपये किलो के भाव पर बेचने को मजबूर हैं। यह देश के उन किसानों की आपबीती है, जिनका आक्रोश महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में अब आंदोलन की शक्ल ले चुका है। आंदोलन नहीं भी होता, तब भी देश में रोजाना खुदकुशी करने वाले औसतन 34 किसानों की पीड़ा को कीमतों में गिरावट के दुष्चक्र से समझा जा सकता है।

भारतीय किसान यूनियन के महासचिव धर्मेंद्र मलिक सवाल उठाते हैं कि जो सरकार सातवें वेतन आयोग पर एक लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर सकती है और बड़े-बड़े उद्योगपतियों को लाखों करोड़ रुपये का कर्ज डुबोने देती है, किसान के लिए उसका खजाना खाली है। पिछले 45 वर्षों में सरकारी कर्मचारियों के वेतन व भत्ते 120 से 150 गुना तक बढ़े हैं, जबकि गेहूं का एमएसपी सिर्फ 19 गुना बढ़ा। जाहिर है इन वर्षों में किसान पर खर्चों का जितना बोझ बढ़ा है, उसकी आमदनी में उतना इजाफा नहीं हुआ। यही कृषि संकट की जड़ है, जिससे सरकारें मुंह मोड़ रही हैं। पश्चिमी यूपी से ताल्लुक रखने वाले धर्मेंद्र बताते हैं कि कैसे गन्ने की नकदी फसल अब उधारी फसल बन गई है। पिछले चार साल में गन्ने का दाम मुश्किल से 10 फीसदी बढ़ा, इसके बावजूद आज भी चीनी मिलों पर यूपी के गन्ना किसानों का करीब तीन हजार करोड़ रुपये का भुगतान बकाया है।

किसान को उपज का उचित दाम नहीं मिल पा रहा है, यह बात राजनीतिक दल बखूबी समझते हैं। यही वजह है कि न सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में लागत पर 50 फीसदी मुनाफा दिलाने का वादा किया था। देवेंद्र फडणवीस भी मुख्यमंत्री बनने से पहले सोयाबीन का दाम 3,800 रुपये से बढ़ाकर 6,000 रुपये करने जैसी मांगें उठाया करते थे। उस समय के फडणवीस के भाषण वाट्सएप पर खूब फैल रहे हैं। मध्यप्रदेश में भड़के किसान आंदोलन को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसे कांग्रेस की साजिश करार दिया है। संभव है कि आंदोलन को हिंसक बनाने का प्रयास राजनीतिक दलों या अराजक तत्वों ने किया हो, लेकिन इस कारण किसानों की दुर्दशा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

साठ के दशक से देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने वाली हरित क्रांति का एक प्रमुख आधार उन्नत तकनीक और अच्छे बीजों के साथ-साथ गेहूं व धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर सरकारी खरीद सुनिश्चित कराना भी था। इससे किसान दाम की चिंता किए बगैर पैदावार बढ़ाने को प्रेरित हुए। पिछले पांच दशक में गेहूं उत्पादन में हुए करीब दस गुना बढ़ोतरी के पीछे न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद का बड़ा हाथ है। लेकिन 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद सबसे पहले मध्यप्रदेश जैसे राज्यों को आगाह किया कि वे गेहूं, धान जैसी फसलों पर अतिरिक्त बोनस देना बंद करे, अन्यथा ज्यादा बोनस की वजह से हुई खरीद का जिम्मा केंद्र सरकार की एजेंसियां नहीं उठाएंगी। दरअसल, एमएसपी के ऊपर दिए जाने वाले अतिरिक्त बोनस की वजह से भी मध्यप्रदेश में गेहूं उत्पादन और सरकारी खरीद में उछाल आया था। इसी से राज्य में कृषि क्षेत्र की विकास दर बढ़ी और मुख्यमंत्री की झोली कृषि कर्मणा पुरस्कारों से भर गई।

यह तर्क आसानी से समझा जा सकता है कि कोई भी सरकार किसानों की पूरी पैदावार की खरीद नहीं कर सकती है। उदार अर्थव्यवस्था में किसान को काफी हद तक बाजार के भरोसे रहना ही होगा। लेकिन जब इसी खुले बाजार में कृषि उपज के दाम बढ़ते हैं तो सरकार आयात और निर्यात से जुड़े हस्तक्षेप करती है, यानी देश का पेट भरने के साथ-साथ महंगाई को काबू में करने का दारोमदार भी किसान के कंधों पर ही है। पिछले साल दिसंबर में केंद्र सरकार ने गेहूं के रिकॉर्ड उत्पादन के अनुमान के बावजूद 25 फीसदी आयात शुल्क को पूरी तरह समाप्त कर दिया। रिकॉर्ड उत्पादन के बावजूद आयात के खोलते ही बाजार में गेहूं के दाम गिरने लगे। ऐसा ही तिलहन की फसलों के साथ भी हुआ। गत खरीफ सीजन में नई फसल बाजार में आने से पहले ही क्रूड व रिफाइंड पाम ऑयल पर आयात शुल्क पांच फीसदी घटा दिया गया। नतीजा फिर वही, घरेलू बाजार में सोयाबीन और मूंगफली के दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी नीचे जा गिरे।

कृषि आयात को बढ़ावा देने की नीतियों के चलते ही आज भारत खाद्य तेलों और दालों का प्रमुख आयातक बन गया है। सन 1993-94 तक हम अपनी जरूरत का मात्र तीन फीसदी खाद्य तेल आयात करते थे, लेकिन खाद्य तेलों पर आयात शुल्क में हुई कटौतियों ने हमारे बाजारों को सस्ते पाम ऑयल और सोयाबीन तेल से भर दिया। आज भारत अपनी जरूरत का करीब 65-70 फीसदी खाद्य तेल आयात करता है, जिस पर सालाना करीब 60-70 हजार करोड़ रुपये का खर्च होता है। यह रकम देश के किसानों की जेब में जाने के बजाय विदेशी कंपनियों के खाते में जा रही है।

मध्यप्रदेश के मालवा-निमाड़ क्षेत्र में किसानों के गुस्से को सोयाबीन के संकट से भी समझा जा रहा है। सोयाबीन इस इलाके की पहचान रहा है, लेकिन पिछले दो साल से इंदौर की मंडी में सोयाबीन का भाव 3,000-3,300 रुपये प्रति क्विंटल से ऊपर नहीं गया। किसान आंदोलन का केंद्र पिपलिया मंडी सोयाबीन का गढ़ है। यहां के किसान अशोक गोस्वामी का कहना है कि चार-पांच साल पहले सोयाबीन की उपज 6-7 हजार रुपये तक बिकी लेकिन अब उसका भाव 2,700-2,800 रुपये से ज्यादा नहीं मिल पा रहा है। मध्यप्रदेश के हरदा जिले के किसान केदार सिरोही 2,500 रुपये प्रति क्विंटल पर बिकी मूंग की एक रसीद दिखाते हुए कहते हैं कि जब 5,225 रुपये के न्यूनतम समर्थन मूल्य का आधा दाम भी नहीं मिलेगा तो किसान के सामने सड़कों पर उतरने के अलावा क्या रास्ता बचा है। सिरोही के मुताबिक, गेहूं, धान, मूंग, मक्का और सोयाबीन के अलावा मध्यप्रदेश में किसान लहसुन, मेथी, प्याज और ग्रीष्मकालीन मूंग की खेती भी करते हैं। इनकी हालात और खराब है क्योंकि इनके लिए एमएसपी की भी व्यवस्था नहीं है।

मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक में इस साल किसानों को एमएसपी से काफी कम 3500-4000 रुपये के भाव पर अरहर बेचनी पड़ी। जबकि इसी साल सरकार ने 27.86 लाख टन अरहर का आयात 10,114 रुपये प्रति क्विंटल के रेट पर किया है। मतलब, जो सरकार अपने किसानों को न्यूनतम मूल्य भी नहीं दिला पा रही है, वह विदेश से दोगुने दाम पर दालें मंगवा रही है। सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन कह चुके हैं कि 60 फीसदी किसानों को एमएसपी से कम पर दालें बेचनी पड़ीं।

अगर किसान को फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य का आधा भी नहीं मिलेगा तो उसके सामने सड़क पर उतरने के अलावा क्या रास्ता है

 

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