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वादाखिलाफी से गुस्से में किसान

रिकॉर्ड उत्पादन के बावजूद पिछले तीन-चार साल से किसान गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे हैं
मध्यप्रदेश में किसानों का उग्र आंदोलन

भारतीय कृषि एक बार फिर बहुत चर्चा में है। लेकिन इसके दो कारण हैं और दोनों एक-दूसरे के विपरीत। अच्छी बात यह है कि इस साल 27.3 करोड़ टन पैदावार हुई है जो अब तक सबसे ज्यादा है। खराब बात यह है कि मध्यप्रदेश के मंदसौर में आंदोलन कर रहे किसानों पर हुई पुलिस फायरिंग में छह किसान मारे गए और कई घायल हुए। राजनीतिक दल विशेष कर भाजपा और कांग्रेस सफलता का श्रेय लेने का दावा कर रहे हैं और फायरिंग के लिए एक-दूसरे को दोषी ठहरा रहे हैं। अब आंदोलन के दूसरे राज्यों में भी फैलने के संकेत मिल रहे हैं। कई किसान संगठनों ने मध्यप्रदेश के किसानों के समर्थन में बैठकें करने के अलावा प्रदर्शन भी किए हैं। एक सवाल यह पैदा होता है कि यह आंदोलन मध्यप्रदेश में क्यों शुरू हुआ क्योंकि यहां कृषि पिछले कई साल से सभी राज्यों की तुलना में सबसे तेजी से आगे बढ़ रही थी? यह इतना हिंसक क्यों हो गया? क्या इसका कोई तात्कालिक कारण था या इसकी भूमिका पहले से तैयार हो रही थी? उनकी मांगें और शिकायतें सही थीं या किसान किसी राजनीतिक फायदे के लिए उकसाए गए?

इसमें कोई शक नहीं है कि मध्यप्रदेश कृषि उपज के लिहाज से सभी राज्यों में शीर्ष पर है। हाल के वर्षों में इसने प्रतिवर्ष 11 फीसदी की दर से अद्भुत विकास दर हासिल की है। यह स्वीकार करने में कोई संशय नहीं होना चाहिए कि सरकार (चाहे वह कांग्रेस की हो या भाजपा की) की सकारात्मक नीतियों और कार्यक्रमों के बिना यह संभव नहीं हो पाता। यह भी सर्वज्ञात है कि सिंचित भूमि का रकबा बढ़ना ही पैदावार में वृद्धि का मुख्य कारण है।

पिछले तीन-चार साल से किसान गंभीर समस्याओं का सामना कर रहे हैं। सरकार और वैज्ञानिकों की सलाह के बाद उन्होंने बड़े पैमाने पर सब्जी और फल की खेती शुरू की और रिकॉर्ड उपज पाई। लेकिन कीमतें अचानक तेजी से गिरने लगीं और किसानों के लिए लागत निकालना भी मुश्किल हो गया। केंद्र द्वारा उच्चतम समर्थन मूल्य घोषित किए जाने के बाद किसानों ने तिलहन और दलहन की ज्यादा खेती की। लेकिन इन्हें इस कारण कम दाम पर बेचना पड़ा क्योंकि सरकार की ओर से खरीद की कोई समुचित व्यवस्था नहीं की गई। इतना ही नहीं, धान और गेहूं भी मंडियों में एमएसपी से कम पर बेचे गए। इस तरह की खबरें केंद्र में भाजपा सरकार के आने के बाद मीडिया में लगातार आ रही हैं। नोटबंदी के फैसले ने किसानों की परेशानी और बढ़ा दी। जाड़े में होने वाली खेती के समय नकदी की कमी के कारण खराब होने वाली सब्जी, फल, दूध, पोल्ट्री, मछली की कीमतें बहुत गिर गईं। इनमें से अधिकांश खेती छोटे या सीमांत किसान ही करते हैं।

2014 लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान भाजपा नेतृत्व और नरेंद्र मोदी द्वारा किए गए बड़े-बड़े वादों के बाद जगी आशा भी किसानों के गुस्से का अन्य कारण रही। सबसे पहले वादा किया गया था कि डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की रिपोर्ट के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण के समय कमीशन ऑन एग्रीकल्चरल कॉस्ट्स एंड प्राइसेज (सीएसीपी) की उस सिफारिश पर ध्यान दिया जाएगा जिसमें बुआई की लागत का 50 फीसदी हिस्सा जोड़ने की बात कही गई है। दूसरा, 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने और तीसरा प्राकृतिक आपदा के समय किसानों के हित में व्यापक कृषि बीमा योजना लाने का वादा किया गया था। भाजपा को सत्ता में आए तीन साल बीत चुके हैं पर पहले दो वादे पूरे होने बाकी हैं। कहा यह जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर होने के कारण एमएसपी में 50 फीसदी जोड़ना संभव नहीं है। जहां तक आय दोगुनी करने की बात है सरकार को इसके लिए अभी रोड मैप लाना बाकी है। एनएसएसओ सर्वे समेत कई आंकड़े और रिपोर्ट यह बताते हैं कि किसानों की वास्तविक आय धान और गेहूं की एमएसपी में प्रतिवर्ष 3.5 फीसदी की बढ़ोतरी के बाद भी घटी है। इसका कारण है कि पिछले तीन साल में मुद्रास्फीति औसतन सात फीसदी के करीब रही है। पूसा 1121 और पूसा 1509 जैसी अच्छी क्वालिटी का धान 2013 में सभी मंडियों में खुली बोली के दौरान 4,800 रुपये और 3,500 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिका था। 2014 में यह 3,300 रुपये और 2,200 रुपये और 2015 में 2,400 रुपये और 1,300 रुपये पर आ गया। 2016 में भी यही स्थिति रही। सरकार द्वारा लाई गई बीमा योजना की शर्तें और प्रणाली किसानों के लिए बहुत जटिल और दुरूह हैं। मंजूरी के समय ही किस्त देने की बाध्यता गुस्सा बढ़ाने वाली है। इतना ही नहीं, मुआवजा न तो समुचित है न ही समय पर मिलता है और यह स्पष्ट भी नहीं है। दूसरी ओर, यह योजना किसानों से ज्यादा कंपनियों के लिए ज्यादा फायदेमंद है। ऐसे में किसानों को लगता है कि वे ठगे गए हैं। मध्यप्रदेश में हुए आंदोलन का तात्कालिक कारण उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किसानों का कर्ज माफ करने का फैसला हो सकता है। यह स्वाभाविक है कि दूसरे राज्यों के किसान भी इसी तरह की उम्मीद करें और कर्ज माफी की मांग करें। महाराष्ट्र के किसानों को इसका लाभ भी मिल गया है। लोग यह सवाल कर रहे हैं कि यदि भाजपा शासित एक राज्य ऐसा कर सकता है तो दूसरा क्यों नहीं। भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेता इसे चुनावी जुमला बता रहे हैं। अगर यह सही है तो यह झूठ और धोखे के सिवा कुछ भी नहीं है। हालांकि इसका जिक्र भाजपा के घोषणापत्र में भी है, जिसे पूरे देश ने देखा और पढ़ा है। लेकिन अगर ऐसा है तो यही राजनीति है!

अब सवाल यह है कि क्या किसान खुद गुस्से में आए या फिर इसके पीछे राजनीतिक षड्यंत्र था, जैसा कि कांग्रेस पर आरोप लग रहा है। इसका जवाब पूरे विश्वास से नहीं दिया जा सकता है। लेकिन एक बात तय है कि राज्य में भाजपा 2003 से सत्ता में है और कांग्रेस इन 14 साल में सबसे कमजोर स्तर पर आ गई है। ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि कांग्रेस ऐसा करने में सक्षम है। एक स्वीकार्य जवाब यह है कि किसानों के अंदर धीमा गुस्सा पहले से था, पर यह अचानक भड़क कैसे गया? इस आंदोलन से कैसे निपटा जाए यह महत्वपूर्ण सवाल है। हिंसा की घटनाओं के बाद मध्यप्रदेश सरकार ने कुछ अच्छे फैसले लिए जिससे यह कहा जा सकता है कि सही समय पर समस्या पर ध्यान देना और शीघ्र सकारात्मक कार्रवाई करना ही इसका जवाब है। सरकार द्वारा समस्याओं को नजरअंदाज करना, किसानों को क्षुब्ध करना और फिर उनके भड़कने के बाद आग बुझाने की आदत पर रोक लगाए जाने की जरूरत है। किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए व्यापक तरीके से काम करने की जरूरत है। इसके लिए समयबद्ध तरीके से काम करना होगा और इसके लिए कागजों पर निर्धारित सीमा के ज्यादा समय देना होगा।

(लेखक पूर्व कृषि और जल संसाधन राज्य मंत्री हैं और राष्ट्रीय किसान आयोग के पहले अध्यक्ष रहे हैं)

 

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