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'हालात सुधरे पर मशक्कत बाकी’

इंटरव्यू
केंद्रीय इस्पात मंत्री बीरेंद्र सिंह

देश में स्टील इंडस्ट्री पिछले कई साल में संकट के दौर से गुजरी। इसके चलते जहां इकोनॉमी के लिए अहम इस क्षेत्र में एक्सपेंशन पर प्रतिकूल असर पड़ा वहीं इस इंडस्ट्री को बैंकों से मिले कर्ज भी संकट में फंसे। मांग में कमी और सस्ता स्टील आयात इसकी मुख्य वजह रहीं। लेकिन पिछले करीब डेढ़-दो साल में सरकार ने कई ऐसे फैसले लिए जो स्टील इंडस्ट्री को पटरी पर ला पाने में सहायक हो रहे हैं। नई स्टील पॉलिसी समेत इस इंडस्ट्री से जुड़े तमाम मसलों पर केंद्रीय इस्पात मंत्री बीरेंद्र सिंह से आउटलुक के संपादक हरवीर सिंह ने विस्तार से बातचीत की। कुछ अंश :

करीब साल भर पहले तक स्टील इंडस्ट्री की स्थिति अच्छी नहीं थी। इसे पटरी पर लाने के लिए आपके मंत्रालय और सरकार ने क्या उपाय किए?

पिछले कुछ साल से दुनिया भर में स्टील इंडस्ट्री दबाव में थी। सिर्फ हमारे देश की बात नहीं है बल्कि दूसरे देशों का भी यही हाल था। एक वक्त ऐसा आया कि चीन में उसकी जरूरत से बहुत ज्यादा उत्पादन हो रहा था। जिसे उसने सस्ती कीमतों पर दूसरे देशों में निर्यात किया। इस सस्ते आयात का बहुत बड़ा हिस्सा भारत में भी आया। इससे हमारा घरेलू उद्योग संकट में आ गया। वहीं देश में भी स्टील की मांग कम थी क्योंकि रियल एस्टेट और कंस्ट्रक्शन सेंटर में गतिविधियां कमजोर पड़ गई थीं। 2016-17 को छोड़कर पिछले तीन साल में इंडस्ट्री दबाव में रही है। एक समय में यह हालत थी कि इंडस्ट्री बैंकों के कर्ज को लौटाने की स्थिति में भी नहीं थी। ऐसे में वित्त मंत्रालय के सहयोग से हमने कदम उठाए। करीब आठ महीने पहले चालीस हजार करोड़ रुपये से ज्यादा के कर्ज के लिए कॉर्पोरेट डेट डिस्ट्रक्चरिंग (सीडीआर) का रास्ता अपनाया गया। इंडस्ट्री पर कुल तीन लाख 17 हजार करोड़ रुपये के करीब कर्ज था। इसके साथ ही सस्ते आयात को रोकने के लिए मिनिमम इंपोर्ट प्राइस (एमआईपी) लागू की गई। नतीजा यह हुआ कि सस्ता आयात कम हो गया और सकारात्मक नतीजे आने शुरू हो गए। उसके बाद एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाई। ताजा आंकड़ों के मुताबिक कोर सेक्टर में स्टील सबसे तेज बढ़ने वाली इंडस्ट्री बन गया। कोर सेक्टर में आठ उद्योगों में स्टील उद्योग की वृद्धि सबसे ज्यादा रही।

एमआईपी और एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाने का फैसला कितना फायदेमंद रहा।

एमआईपी और एंटी डंपिंग ड्यूटी लगाने का रिजल्ट यह हुआ कि आयात में करीब 37 फीसदी गिरावट आई। सस्ता आयात बंद हो गया। कई स्टील उत्पादों का आयात शून्य हो गया। बाद में एमआईपी को वापस ले लिया गया। यह इस बात प्रमाण है कि एमआईपी और एंटी डंपिंग का स्टील इंडस्ट्री को सीधा फायदा हुआ है।

पिछले दिनों स्टील के दाम लगभग 25-30 फीसदी बढ़े हैं।

हां, सामान्य तौर पर आप यह कह सकते हैं कि दाम छह-सात हजार रुपये प्रति टन बढ़ा है। इससे उद्योग को राहत मिली। लेकिन उद्योग के सामने जो प्रतिकूल परिस्थिति आई थी, वह आगे भी पैदा हो सकती है। उस स्थिति को टालने के लिए सरकार ने नई राष्ट्रीय इस्पात नीति लाने का फैसला किया।

राष्ट्रीय इस्पात नीति की क्या विशेषता है और इसमें किस तरह के प्रावधान किए गए हैं।

देखिए, इसमें हम दो चीजों को लेकर चले हैं। एक तो यह कि हमारे देश में स्टील की खपत का स्तर बहुत कम है। यह 64 किलोग्राम प्रति व्यक्ति है जबकि दुनिया का औसत 204 किलो के करीब है। हमारा लक्ष्य 2030-31 तक इसे 160 किलो तक ले जाने का है। एक और फैसला हमने कैबिनेट से कराया है। अमेरिका में मेल्टिंग एंड मैन्युफैक्चरिंग सिस्टम है। अमेरिका की सरकार या राज्यों को प्राथमिकता के आधार पर वहां बने उत्पाद का इस्तेमाल करना होता है। हम ऐसा ही भारत में भी करना चाहते हैं। यह शर्त थोपी नहीं जाएगी लेकिन यह प्राथमिकता की तरह होगी। अब जितने भी सरकारी टेंडर निकलेंगे, उनमें यह क्लॉज होगा कि देश में बने हुए स्टील के इस्तेमाल को प्राथमिकता दी जाएगी। 50 करोड़ रुपये से ऊपर का कोई भी टेंडर चाहे रेलवे का हो, नेशनल हाईवे का हो, या शिपिंग का, सभी के लिए यह व्यवस्था रहेगी। दूसरा एक बड़ा सेक्टर जो अब खुला है, वह है प्रधानमंत्री आवास योजना। इसके तहत ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में पांच करोड़ मकान बनने हैं। सरकार गांव में किसी भी लाभार्थी की डेढ़ लाख से एक लाख 60 हजार रुपये तक की मदद करेगी। अगर वे और अच्छा मकान बनाना चाहते हैं तो 70 हजार रुपये तक का उनका बैंक से टाईअप भी सरकार कराएगी। हमने इसके लिए स्टील के मकान का प्रोपोटाइप तैयार कराया है। अगर प्रधानमंत्री आवास योजना में इन मकानों को अपनाया जाता है तो स्टील की खपत बढ़ेगी। पॉलिसी में स्टील उत्पादन क्षमता को 12.4 करोड़ टन से 2030-31 तक 30 करोड़ टन पहुंचाने का लक्ष्य है। 

उत्पादन लक्ष्य में सरकारी और निजी क्षेत्र की कंपनियों की हिस्सेदारी का क्या अनुपात है। 

इस समय उत्पादन क्षमता में सरकारी कंपनियों (पीएसयू) का हिस्सा 12-13 फीसदी प्रतिशत है। बाकी 57 प्रतिशत सेकेंडरी स्टील का है। इस पॉलिसी में हमने पीएसयू का लक्ष्य 20 फीसदी रखा है। विस्तार के बाद यह दोगुना यानी 65-70 लाख टन तक हो जाएगा। लेकिन मैं एक बात कहूंगा कि हमारे पीएसयू को नए सिरे से सोचना होगा। स्टील का वैल्यू एडीशन होना चाहिए। हमें क्वालिटी स्टील का उत्पादन करना चाहिए, लेकिन हम बनाते हैं क्रूड स्टील। मेरा मानना है कि हमें इसमें बदलाव लाना होगा। दूसरी अहम बात है, नई तकनीक के इस्तेमाल की नीति में साफ कहा है कि ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलॉजी का हम स्वागत करेंगे।

सेल-आर्सेलर मित्तल के संयुक्त उद्यम की क्या स्थिति है?

पहले हमारा एमओयू साइन हुआ था। 31 मई को इसे फाइनल करने की आखिरी तारीख थी पर उस दिन तक ऐसा नहीं हो सका। इसके लिए हमने तीन महीने का समय बढ़ा दिया है। आर्सेलर और सेल में जो मतभेद थे वे पिछले दो-तीन महीने के प्रयास से 99.99 फीसदी खत्म हो गए हैं। अब इसके लीगल फ्रेमवर्क पर काम कर लिया जाएगा।

सरकार के पास स्टेनलैस स्टील बनाने वाला सेलम का बहुत पुराना संयंत्र है लेकिन उसकी कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। 

कुछ चीजें ऐसी हैं जिसमें कहीं न कहीं कमी रही है। सबसे बड़ी कमी यह है कि एक बड़ा प्लांट है। तीन-चार छोटे हैं। सेल एक बड़ी कंपनी है लेकिन इसका प्रबंधन इन संयंत्रों को न तो अपना बेटा मानता और न ही भाई। एक तरह वे उपेक्षित हैं। तो यह सबसे बड़ी कमी हमारे पीएसयू में रही है। इसलिए यह स्थिति आ गई कि वह लगातार घाटे में है।

सरकार सेल की कुछ यूनिट्स का विनिवेश करना चाहती है। इसकी स्थिति क्या है?

कैबिनेट से फैसला हो चुका है। हमारे तीन छोटे प्लांट हैं, जिसमें सेलम भी है। इनका स्ट्रेटजिक डिसइन्वेस्टमेंट होगा। मतलब एक तो टेक्नोलॉजी शामिल है और दूसरे, उसकी जो भी एसेस्ट्स, लायबेलिटी वो जो अफोर्ड कर सके। इसके लिए हमें वैल्यूअर अप्वाइंट करने होते हैं। तो उसका कार्य हमने शुरू कर दिया है लेकिन पूरे तौर पर जिन्हें वैल्यूएशन करनी है उन्हें तकीनीकी और वित्तीय कारणों से थोड़ा समय तो लगेगा ही।

स्क्रैप से स्टील बनाने वाली यूनिटों के बारे में क्या योजना है?

संसद में कानून लंबित हैं, जिसमें 15 साल से ऊपर की गाड़ियों, खासकर डीजल गाड़ियों को चलाने की मंजूरी न देने का प्रावधान है। अगले सत्र में अगर कानून पारित हो गया तो स्क्रैप की उपलब्धता पूरी हो जाएगी। यह स्क्रैप मिलने से एक बात तो यह है कि उसका बना स्टील बेहतर क्वालिटी का होगा। दूसरा लाभ यह होगा कि उत्तर भारत के चार-पांच राज्यों में ही 44 फीसदी स्क्रैप है। अगर हमें यह मिल गया तो उत्तर भारत में भी हम स्क्रैप बेस्ड स्टील प्लांट लगा सकते हैं। पश्चिमी तट, ज्यादातर गुजरात व महाराष्ट्र, में कुल इंपोर्ट होने वाले स्क्रैप का 67 फीसदी आता है। हम वहां भी एक प्लांट लगाना चाहते हैं, ताकि इंपोर्ट भी कम हो।

स्टील में चार-पांच बड़ी कंपनियां हैं जो इंडस्ट्री को नियंत्रित करती है, दाम को लेकर इन पर कार्टेल बनाकर काम करने के आरोप लगते रहे हैं। ऐसे में उपभोक्ताओं के हितों के लिए क्या करेंगे।

देखिए, एक तो यह डिरेगूलेटेड सेक्टर है। दूसरे, इन मामलों में सरकार का कोई एकाधिकार नहीं है। कोई अपना माल कैसे भी बेचे। लेकिन मेरा मानना है कि कीमतों के मामले में नेशनल और इंटरनेशनल बेंचमार्क बनाने की जरूरत है। मान लें हमारे देश का 40 हजार रुपये टन का एक बेंचमार्क स्थापित हो गया। तो 40,000  का 42,000 या 38,000 रुपये टन तो दाम ठीक है। लेकिन अगर यह 50,000-55,000 रुपये टन होता है तो यह गलत है। बेंचमार्क होने पर हम यह कह सकेंगे कि हम यह उत्पाद इतनी कीमत तक खरीद सकेंगे। यह तय होने के बाद कोई ज्यादा दाम नहीं देगा। इस व्यवस्था से कंज्यूमर का भी भला हो सकेगा।

 

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