Advertisement

उपन्यास एक प्रार्थना, परत-दर-परत ब्रह्मांड

इंटरव्यू
समाजिक कार्यकर्ता, लेखिका अरुंधती राय

पुरानी दिल्ली में स्थित जामा मस्जिद की एक गली से कुछ ही दूर पुराने जमाने का अहसास कराने वाले एक कैफे में अरुंधती राय अपने नए उपन्यास द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस की कुछ परतें खोलती हैं। उपन्यास की मुख्य भूमि यही है, अजीबोगरीब शहर। इसके किस्से उन सभी विषयों को एक सूत्र में पिरोते हैं जिसका सफर वह अपने पहले उपन्यास गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के बाद 20 बरसों में आलेखों-निबंधों में करती रही हैं। सुनील मेनन से उनकी बातचीत के अंश :

 

यह लाजवाब कृति है। हालांकि आपको अहसास होगा कि इसके कई अंश स्वतंत्र रूप से आकार ले रहे होंगे, जिन्हें आपने एक सूत्र में पिरोने का तरीका तलाश लिया होगा ?

नहीं, नहीं, मैं शुरुआत से ही लगभग साथ-साथ लिखती जा रही थी। मैंने ऐसे नहीं लिख रही थी कि एक अध्याय के बाद दूसरा लिखूं।

यानी वाकई कोई मास्टर प्लान... किसी वास्तु शिल्पकार जैसी योजना रही होगी ?

हां, मेरे लिए किस्सागोई का यही बुनियादी सूत्र है।

लिखते हुए क्या कुछ भी हाथ से फिसल नहीं जाता, कोई स्वाभाविक रचना प्रक्रिया?

नहीं, सब कुछ वास्तुशिल्प के भीतर निहित है। आप अगर सचमुच वास्तुशिल्प पर नजर डालें, जैसे शिराज सिनेमा। आप पहले उसके बारे में गैरसन होबार्ट से सुनते हैं, उसे अशफाक मीर के दफ्तर में देखते हैं, उसके बाद लॉबी देखते हैं और फिर इंट्रोगेशन सेंटर। यानी यह ऐसा ही है कि आप एक इमारत अलग-अलग नजर से देखते हैं।

और कश्मीर, अलग आवाजों के साथ। बीस सालों में आपका पहला साहित्य दरअसल बहुत सारा गैर-साहित्य है क्या ?

ठहरिए, उसमें गैर-साहित्य कहां है ?

जो कश्मीर में हो रहा है वह तो कथा नहीं है। और दिल्ली में क्या ?

मुझे लगता है, कथा-साहित्य के बारे में आपकी और मेरी समझ में कुछ उलझन है। यह दिलचस्प विषय है। सभी कथा साहित्य एक मायने में (थोड़ा रुककर) मेरा बैग देखिए! (नीले रंग के कपड़े के थैले को उठाती हैं जिस पर एक ओर कुछ लिखा है)। क्या लिखा है? ‘सभी कथा सच्ची होती हैं।’ इसलिए जब आप कहते हैं कि कश्मीर या केरल महज गल्प नहीं है। यकीनन बेहद बुनियादी स्तर पर ऐसा है। लेकिन इसमें ऐसे तत्व हैं जिन्हें हम वास्तविक संसार में पहचान सकते हैं। हर कहानी अपने में त्रासदी होती है। फिर भी, तमाम निराशा-हताशा के बावजूद, किसी असंभव से प्लॉट के जरिये जैसे, चंगेज खान के वंशज की किसी केजरीवाल से मुठभेड़ (हंसती हैं)। यह नितांत असंभव नहीं है! यहां शहर के इस हिस्से में ऐसे लोग हैं जो खुद को चंगेज खान का वंशज बताते हैं लेकिन मैं यह कह रही हूं कि कथा साहित्य वह सच्चाई है जो शायद उससे भी सच्ची होती है जिसे आप सिर्फ वास्तविक घटनाओं और सबूतों के आधार पर ही लिख सकते हैं। कश्मीर को ही लें। आप उस जगह की सच्चाई के बारे में महज किसी रिपोर्ताज या मानवाधिकारों की रिपोर्ट द्वारा हालात नहीं बता सकते। आप यह नहीं बता सकते कि किसी सैन्य सरकार की सरपरस्ती में जीने वाले लोगों के दिलोदिमाग पर क्या असर होता है। कथा साहित्य ही वह एकमात्र विधा है जिसमें सच्चाई का बयान कर पाते हैं या बयान करने की कोशिश करते हैं।

हां, लेकिन, जैसे मुख्यधारा के तमाम शरणार्थी कब्रगाह में एक गणतंत्र जैसी पनाह पाते हैं क्या अद्भुत विचार है, मगर यह रहस्यमय नजारा है, माहौल में उम्मीद भरने जैसा।

मुझे यह बड़ा दिलचस्प लगता है कि अलग हकीकतों वाली दुनिया के लोग दूसरों की हकीकतों को जादुई या रहस्यमय मानते हैं। अगर आपने शहर के इस हिस्से में वक्त बिताया हो तो आप देख पाते हैं कि कितने लोग कब्रगाहों में रहते हैं। यह जादुई नहीं, वास्तविक है। जिसे रहस्यमय बताया जाएगा, वह पाठकों की आंखों के सामने हो रहा है...यह देखने का दूसरा तरीका है। यह कई बार रहस्यमय लगता है क्योंकि हम उस तरह नहीं देखते मगर वह मौजूद है और उसे देखा जाना चाहिए। गाहे-बगाहे मैं अखबार खोलती हूं तो देख-पढ़कर सहसा यकीन नहीं होता (अपने मोबाइल में सेव की गई कुछ तस्वीरें निकालती हैं)। एक गाड़ी फुटपाथ पर सोए लोगों को रौंदती हुई निकल जाती है और पुलिस बाकियों से फुटपाथ से हट जाने को कहती है। लेकिन मनोज ने कहा कि यह जगह दूसरी जगहों से सुरक्षित है। ‘मेरे पास जाने को कोई जगह नहीं है। मैं पार्क में गया पर वहां ढेरों मच्छर थे।’ इसलिए वह लौट आया। बताइए, यह पागलपन नहीं है क्या!

फिर भी, यहां उम्मीद है। सभी साथ-साथ रहते हैं, बड़े प्यार से, बावजूद इसके कि एक-दूसरे पर कुछ शक करते हैं, एक-दूसरे की कुछ तौहीन करते हैं।

मेरी एक किताब उन लोगों को समर्पित है जिन्होंने उम्मीद को तर्क से अलग करना सीख लिया है। हममें वे लोग जो आज मुख्यधारा में चल रही चीजों से सहमत नहीं हैं, कब्रगाहों की ओर ठेल दिए गए हैं और हम असंभव-सी एकजुटता की उम्मीद कर रहे हैं। एक तरह हम जन्नत गेस्ट हाउस में रह रहे हैं।

जब जन्नत ईंट-दर-ईंट ढहती है तो लगता है कयामत आ रही है, जैसे अब बचना मुश्किल है?

इसके बदले, उम्मीद का एक नखलिस्तान भी बनता है लेकिन ऐसा मैंने देखा है। जब मैं जंगल में जाती हूं या जहां भी जंग जारी रहती है, वहां भी कुछ हलकी-फुलकी बातें, हंसी-ठट्ठा चलता रहता है। जो एकदम हाशिये पर नहीं होते हैं, उनके लिए उम्मीद खो बैठना आसान होता है। लेकिन हाशिये के लोगों के लिए यह सुविधा नहीं होती है। किताब में कई मामलों में विचित्र सीमा-रेखाएं हैं। हां, कब्रगाह में जीवन और मृत्यु के बीच रेखा कुछ धुंधली-सी है। अंजुम को स्त्री-पुरुष भेद की एक दीवार बांट रही है तो टीलों के आगे जाति की दीवार खड़ी है। सद्दाम का सामना जाति और धर्म परिवर्तन की दीवार से है। हां, मूसा के लिए जरूर राष्ट्रीय सीमा ही है। गैरसन होबर्ट, जो सत्ता-तंत्र की भाषा बोलता है, भी इस बंटवारे में...।

बेचारा...

मेरी राय में वह अद्भुत शख्स है। मतलब उसके लिए चीजें बहुत आसान हैं लेकिन वह ऐसा नहीं करता। वह बहुत समझदार है।

गॉड ऑफ स्माल थिंग्स में अम्मु-वेलुता के जरिये आप सीरियाई ईसाइयों और कम्युनिस्ट पार्टी को एक ही जमीन पर दिखाने में सफल हुई हैं!

(हंसती हैं)

फिर भी यह सामाजिक हदें पार करना है। यहां आप सेक्सुअलिटी की हदें पार करती दिखती हैं। अंजुम न यह है, न वह या वह दोनों हो सकता है ?

लडक़ी...स्त्री है।

जैसे सूफी संत न यह हैं, न वह...

वह अजूबों का हजरत है।

यह अजूबापन और यह अनिश्चितता, आप पुरानी दिल्ली, यहां तक कि कश्मीर के बारे में भी कह सकती हैं। न यह है, न वह, दोनों ही है और कुछ और भी हो सकता है। आपको इस संक्रमण की स्थिति की ओर क्या आकर्षित करता है ?

मैं अपना घर इसी संक्रमण जैसे हालात में तैयार करती हूं। मेरे लिए उससे बाहर भारी हिंसा है। हजरत सरमद शेख एक सुंदर विचार है। आस्तिकों के बीच एक नास्तिक, नास्तिकों के बीच एक आस्थावान। वह बहुसंख्यकवाद से इनकार करता है, महज प्यार और खुशी का हजरत है। अगर आप किसी तरह की शुद्धता में यकीन करते हैं तो यह बीच की स्थिति वाले पापात्मा हैं लेकिन अगर आप शुद्धता या उसकी संभावना में यकीन नहीं करते तो हम सभी बीच की, संक्रमण की स्थिति में हैं, दहलीज पर बैठे हैं। असल में यही हम कहने की कोशिश करते हैं। यह देश असल में अल्पसंख्यकों की धरती है। हालांकि हमारे इर्द-गिर्द लोहे की चहारदीवारियां डाल दी गई हैं, यह दरअसल ओछी बुद्धियों का नतीजा है। हमारी अपनी प्रजाति में खूबसूरती की तलाश ही इस बुद्धि को चुनौती दे देगी।

अंजुम बहुत कुछ प्रतीकात्मक किस्म की शख्सियत जैसी है ?

अंजुम प्रतीकात्मक नहीं बल्कि उसका उलटा है! वह सिर्फ प्रतीक नहीं है। इसी वजह से ख्वाबगाह दुनिया में तमाम विविधताओं से भरा हुआ है। अंजुम के जरिए मैं कोई समाजशास्त्रीय बात कहने की कोशिश नहीं कर रही हूं। वह गुजरात के कत्लेआम में क्यों फंस जाती है? हिजड़ा होने की वजह से नहीं बल्कि इसलिए कि वह मुसलमान है। वह उससे कैसे बच निकलती है? इसलिए कि वह हिजड़ा है। अगर मैं कोई सामाजिक बात कर रही होती तो ऐसा नहीं होता। हमें मालूम है कि उन पर कैसी हिंसा टूट पड़ी थी।

अब, एक सवाल जिससे आप भी परेशान रही होंगी। फिक्शन या नॉन-फिक्शन और उसका अंतराल। आपका 20 साल का अंतराल। दोनों के बीच क्या फासला है ?

जिसे लोग फासला कहते हैं मैं उसे सिर्फ उसी रूप में नहीं देखती क्योंकि मैं ऐसी नहीं हूं कि सोचूं, ‘मैंने वह उपन्यास लिखा और वह ‘सफल’ रहा तो मुझे दूसरा भी लिखना चाहिए।’ मैं कभी असेंबली लाइन (कारखाना) नहीं बनाना चाहती। मेरे लिए उपन्यास प्रार्थना की तरह है। यह परत-दर-परत है, महज उपभोग करने के लिए नहीं। यह वह ब्रह्मांड है जिसमें आप हो। मैं यह भी नहीं जानती कि मैं अगला उपन्यास लिखूंगी। लेकिन मुझे इतना यकीन है कि मैं तब तक नहीं लिखूंगी जब तक मुझे लिखने की जरूरत महसूस नहीं होगी। मैं खुशनसीब हूं कि गॉड ऑफ स्माल थिंग्स की रॉयल्टी से मेरी माली हालत ठीक है। दूसरे भी हैं (हंसती हैं) इससे झंझटों से मुक्त छोटा संसार बन गया है! जब मैंने लिखना शुरू किया, आउटलुक उस सफर का बहुत हद तक साथी रहा है लेकिन प्रसिद्धि, पैसा, इस सबके लिए मैं तैयार नहीं थी। मैं दिमागी तौर पर हमेशा हाशिये पर रहती हूं। लगभग किसी फितूरी की तरह (हंसती हैं)! और अचानक आप मुख्यधारा में आ जाते हैं। यह कुछ ऐसा ही है कि आप साइकिल चलाते-चलाते अचानक भारी-भरकम बस चलाने लगते हैं। इसके लिए अपने दिमाग को बहुत संभालना पड़ा।

लेकिन उसी दौरान परमाणु परीक्षण हो गया। उससे वह भद्दी सार्वजनिक बहस शुरू हुई जो आज स्वीकार्य हो चुकी है। बुकर पुरस्कार पाकर हर पत्रिका के कवर पर छपने के साथ ही परमाणु परीक्षण हो गया। इस पर चुपचाप रह जाना वैसा ही नहीं था जैसे कोई अनाम आदमी हो। उस चुप्पी का एक राजनीतिक वजन भी होता। और फिर एक से दूसरे वाकये जुड़ते गए, एक से दूसरे मुकाम के सफर जैसे। उन पर ध्यान लगाने से काफी कुछ सीखने को मिला। यह दो ध्रुवों पर चलने जैसा था। एक में मुझे लगता कि अपने जीवित होने के अहसास के लिए मुझे फौरन दखल देना चाहिए क्योंकि मैं कई बार गुस्से को बर्दाश्त करने की हालत में नहीं होती थी। लेकिन दूसरे धरातल पर देखना, समझना चलता रहता। किसी कथाकार के नजरिये से। एक प्रतिक्रिया फौरी, नाराजगी की है और दूसरी एकदम शांत, जहां कोई जल्दबाजी नहीं, वक्त जरूरी नहीं है।

फिर भी, ये दोनों भावनाएं साथ-साथ काम करती रहीं। लेखों में कथाकार पूरी तरह गैर-मौजूद नहीं रहा।

वह हमेशा ही रहा है। दरअसल, मैं फिक्शन के बारे में बता रही थी। मैंने इसे लगभग 10 साल में लिखा। अगर मैं तब नहीं शुरू करती तो मुझे नहीं लगता कि इतना फासला तय कर पाती। डरावने मंजर तैयार हो रहे थे, उसमें कुछ गुंजाइश भी थी। फिर जैसे बिना ऑक्सीजन के फूलती सांस के साथ लिखते हैं।

जब आप मुद्दों पर दखल देती हैं, फौरी प्रतिक्रिया को जरूरी मानकर तो आपके मुताबिक वह स्वर मन के अंदर से फूटते हैं। क्या यह, एक मायने में आपके अंदर की, आपके विवेक की सच्ची आवाज है, बनिस्पत इसके कि किसी मुद्दे पर सोच-समझकर आगे बढ़ा जाए ?

यह विचार हमेशा रहता है कि सुचिंतित, तार्किक, तात्कालिक भावनाओं से ऊपर उठना है। मेरी राय में यह बेहद दुखद है कि हमने दिल की आग और जुनून को दक्षिणपंथियों के हवाले कर दिया है क्योंकि हम सभी एकाउंटेंट जैसा हिसाब-किताब लगाते रहते हैं। यह जरूरी है कि अपने दिल में उपजे गुस्से और भावनाओं से सब कुछ उलट-पलट दें, सिर्फ सोच-विचार कर ही आगे न बढ़ते रहें। भावनाओं को काबू में रखने का यह तर्क मुझे कुछ हद तक ब्राह्मणवादी नजरिया लगता है। 

आपके लेखों में हमेशा लेखक के अहं की गहरी मौजूदगी रहती रही है। क्या वह कोई कमी थीमसलन, नर्मदा आंदोलन को 80 के दशक में बड़ी स्वीकार्यता हासिल थी। आप खुद को बड़े नाटकीय ढंग से क्रांतिकारी की तरह उसमें पूरी तरह डूबकर आगे बढ़ीं तो क्या आपके इस हस्तक्षेप से मूल उद्देश्य को किसी तरह झटका लगा? आपके लेख के साल भर बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा...

नहीं, सुप्रीम कोर्ट का फैसला पहले आया, जब रोक हटा ली गई। उसी वजह से मैं नर्मदा घाटी में गई। मेरी फितरत अपना बचाव करने की नहीं है, इसलिए यह सवाल आपको उन्हीं से पूछना चाहिए। आंदोलन वालों से पूछिए। मुझे याद है, लिखने के पहले मेरी मेधा पाटकर से लंबी बातचीत हुई। मैंने उनसे कहा था कि वे बांटने की कोशिश करेंगे, वे कहेंगे कि वह यह कर रही है, वह कर रही है, आप उसके लिए तैयार हैं? क्योंकि ऐसा हमेशा होता है। यह कहना कि ‘अरे, अरुंधती राय का लेख बांध की ऊंचाई बढ़ाने का कारण बना’ बेहद बकवास है। नर्मदा पर हर सोचने-समझने वाला आदमी जानता है कि यह गलत है लेकिन फिर भी वह हुआ। मेरी या मेधा की वजह से नहीं। मेधा के बारे में भी वे ऐसा ही कहते हैं। असली दबाव तो कहीं और से आया। दंडकारण्य से आने के बाद वहां ‘अंदर’ से मुझे एक बड़ी सुंदर चिट्ठी मिली (हंसती हैं) आप जानते हो, मैंने उसे फौरन आग के हवाले कर दिया। मैं वाकई उस रूप में देखा जाना नहीं चाहती। उसमें लिखा था, ‘आपके आने के बाद, लिखने के बाद यहां खुशी की लहर फैली थी।’ और सब कुछ गलत है, हथियार उठाना गलत है, न हथियार उठाना गलत है, लिखना गलत है, न लिखना। जरा बहसों पर गौर कीजिए छत्तीसगढ़ हो या फिलिस्तीन। यह ऐसे किया जाता है मानो अत्याचारों का विश्लेषण किया जा रहा हो। आप कुछ करते हो तो ‘अंदर’ से भी प्रतिक्रिया होती है। तब वे कहते हैं, ‘ओह, यह सब बड़ा भयावह है, दोनों ही गलत हैं।’ यह कम बुद्धि वाला विश्लेषण है। हर लड़ाई में दोनों ओर से गरमी दिखाने के लिए बहाने तलाशे जाते हैं। यह एक दुष्चक्र बन जाता है। लेकिन मामला यह है कि आप वैसे तेवर नहीं दिखाओगे तो हार जाओगे। वे कहेंगे, ‘अरुंधती, आप भाजपा के बारे में कुछ अच्छा क्यों नहीं कहतीं।’ और उनसे पूछताछ होगी? वाकई?

अब एक पुरानी बात। ईएमएस (नंबूदिरीपाद) वाला संदर्भ। आपको होटल वाली बात पर अफसोस है? क्या वह वामपंथ पर हमला करने की रवायत का हिस्सा नहीं था?

यह बकवास है। मैंने यह नहीं कहा कि ईएमएस होटल चलाते थे। असली सवाल यह है, जो अब साफ हो गया है कि वामपंथ ने जाति का सवाल उठाया या नहीं? होटल वाली बात एक उपमा जैसी है। मैं हमेशा से वामपंथ की प्रशंसक रही हूं और केरल में मुख्यधारा वाले वामपंथ की मौजूदगी से बहुत फायदा हुआ है लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि आप पार्टी लाइन पर ही चलें और कुछ न कहें। यह भारी भूल रही है जैसे वामपंथ जाति के सवाल पर अंधा बना रहा, ऐसा करने में उसने जैसी उग्रता दिखाई। यही सवाल उपन्यास में उठाया गया है, बीस साल पहले! जाति पर गौर न करना भयावह है।

मैंने यह सवाल इसलिए पूछा कि इसका एक ताजा संदर्भ है। यह विचार कि किसी आदमी की आलोचना उसकी जाति से जुड़ी हो सकती है, क्या इसका उस विवाद से कुछ लेना-देना है जो आंबेडकर की किताब के मामले में आपके साथ हुआ? उस प्रकरण से आप कितनी आहत हुईं?

मैं इससे बहुत दुखी हुई, फिर भी मेरे मन का एक कोना इसे समझ रहा है। हम जो बात कर रहे हैं, वह सदियों से घर कर चुकी है, इसलिए एक स्तर पर आपको पता होता है कि यह झेलना ही पड़ेगा। यह वैसा ही है, जैसे आप इतने करीब जा पहुंचें की पत्थर की जद में आ जाएं, क्योंकि दूसरे काफी दूर हैं।

फिर भी, आप जिन मुद्दों को छूती हैं, मसलन कश्मीर, जाति पूरी तरह खारिज करने के बावजूद शोर-शराबा रुकता नहीं है।

शोर-शराबा नहीं रुकेगा। जिग्नेश मेवानी, तेलतुंबड़े या भीम आर्मी को ही देख लीजिए। हम सभी पर फर्क पड़ेगा या नहीं पड़ेगा। बड़ा विचित्र लगता है जब लोग कहते हैं कि मैं भारत विरोधी हूं या ऐसा ही कुछ। क्योंकि मैं वहां हूं, उस दलील में हूं, मार खा रही हूं, बोली सुन रही हूं। सब कुछ एक तरह का प्यार है, कुछ अलग दिखने की चाहत है, यह नहीं कहने की फितरत है कि मैं चली जाऊंगी और कैलिफोर्निया जाकर बस जाऊंगी।

क्या आंबेडकर प्रकरण एक उकसावा है? किताब में आपने तिलोत्तमा को एक जाति से जोड़ा है जबकि वह...

नहीं, यह आंबेडकर वाली किताब के पहले का था। मुझे उसके लिए उपन्यास से हटना पड़ा। तिलो प्रतीकात्मक तौर पर अम्मु और वेलुता की संतान है। मुझे यह अजीब लगता है कि लोग जब किताब लिखते हैं या फिल्म बनाते हैं तो जाति को भुला देते हैं। यह रंगभेद की चर्चा किए बिना दक्षिण अफ्रीका पर लिखने जैसा है। जाति आपको शोषण की व्यवस्था को आत्मसात करा देती है, चाहे आप शोषित ही क्यों न हों।

लोगों को भूल जाइए। इन सब पात्रों को रचना-प्रक्रिया में ढालते हुए आपके भीतर क्या चल रहा था?

लेखक निर्मम होते हैं। वे अपनी ही संतति को खा जाते हैं। यह इसमें भी है (किताब की ओर इशारा करती हैं)। इससे फर्क नहीं पड़ता कि यह कैसे होता है।

और कश्मीर, वे आपको जीप पर देखना चाहते हैं!

(हंसती हैं) मुझे सैर तो कराओ।

क्या कश्मीर भी संक्रमण जैसी स्थिति में है? एक ओर अंजुम, जिससे हमारी ऐकांतिक धारणा को पिघलाने में कुछ मदद मिल सकती है?

यकीनन, यह हमारे सामने ऐसी पेचीदगी पेश करता है जो हमें किसी और नजरिये से देखने पर मजबूर करता है।

भगवा राजनीति के मानवीकरण का कोई तरीका है क्या?

मैं इस पर जितना सोचती हूं, मुझे लगता है कि हम पर किसी चीज का किसी तरीके भूत सवार है, हमें दौरे पड़ रहे हैं और हम असहाय है। मैं टीवी पर जब लोगों को जहर उगलते देखती हूं तो मुझे वे ऐसे ही लगते हैं जैसे फिल्म एक्जार्सिस्ट में वह लडक़ी हरे रंग की उलटी करती है। वह लड़की बुरी नहीं है। देश को ऐसे ही दौरे पड़ रहे हैं। हमें किसी ओझा-गुनी की दरकार है (हंसती हैं) जो नफरत को निकाल बाहर करे। उम्मीद यही है कि इससे देह फिर स्वस्थ हो जाएगी। 

-जब मैंने लिखना शुरू किया, आउटलुक उस सफर का बहुत हद तक साथी रहा  लेकिन प्रसिद्धि, पैसा, इसके लिए मैं तैयार नहीं थी

-केरल में मुख्यधारा वाले वामपंथ से फायदा हुआ है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप पार्टी लाइन पर चलें और कुछ न कहें

-हमें दौरे पड़ रहे हैं, हम असहाय हैं। हमें किसी ओझा-गुनी की दरकार है (हंसती हैं) जो नफरत को निकाल बाहर करे

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement