Advertisement

इप्टा की ऐतिहासिक विरासत

इप्टा से बड़े-बड़े कलाकार जुड़े और इस प्रगतिशील आंदोलन ने बड़ा रूप ले लिया जो आज तक कायम है
सांस्कृतिक विरासत को सहेजती सुमंगला दामोदरन की पुस्तक

प्रेमचंद की अध्यक्षता में सन 1936 में हुए अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन से साहित्य के क्षेत्र में प्रगतिशील आंदोलन की शुरुआत मानी जाती है। इसी की अगली कड़ी में सन 1943 में इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) की स्थापना हुई जिसका लक्ष्य प्रगतिशीलता की इस धारा को संगीत, नाटक और फिल्म के क्षेत्रों में भी प्रवाहित करना था। जहां लेखक संघ के साथ हिंदी-उर्दू समेत अनेक भारतीय भाषाओं के प्रतिष्ठित लेखक जुड़ गए थे, वहीं इप्टा में भी उस समय के अनेक युवा और प्रतिभाशाली संगीतकार, रंगकर्मी, चित्रकार, फोटोग्राफर, मूर्तिशिल्पी और गायक-गायिकाएं शामिल हुए थे। वामपंथी विचारधारा से प्रेरित ये संगठन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और उससे जुड़ी शोषणपरक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध के संस्कृतिकर्म को विकसित कर रहे थे।

लेखक संघ की स्थापना के 75 वर्ष पूरे होने पर सन 2011 में जनवादी लेखक संघ ने समूचे प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की विरासत को समेटते हुए अपनी पत्रिका नया पथ का एक संग्रहणीय विशेषांक निकाला था। इप्टा की सांगीतिक परंपरा को सबके सामने लाने और व्याख्यायित करने के उद्देश्य से अभी कुछ ही महीने पहले तूलिका बुक्स ने सुमंगला दामोदरन की पुस्तक द रेडिकल इंपल्स : म्यूजिक इन द ट्रेडिशन ऑफ द इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (मूलगामी आवेग : इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन की परंपरा में संगीत) प्रकाशित की है। लेखिका अर्थशास्त्री होने के साथ-साथ प्रशिक्षित गायिका भी हैं। मलयाली परिवार की होते हुए भी उनका बचपन हैदराबाद में गुजरा और बाद में उन्होंने दिल्ली आकर शिक्षा प्राप्त की। दिल्ली में वह अपने नाना ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद के साथ रहीं जो भारत के शीर्षस्थ कम्युनिस्ट नेताओं में से एक थे। इसी दौरान वह प्रगतिशील गान-मंडली ‘परचम’ से जुड़ीं जिसके माध्यम से इप्टा की सांगीतिक विरासत से उनका परिचय हुआ। उनकी पुस्तक इस विरासत के इतिहास और समकालीन परिदृश्य में उसकी प्रासंगिकता के बारे में गहन शोध का परिणाम है।

बहुत समय से यह दुष्प्रचार जारी है कि कम्युनिस्ट गद्दार हैं। दिलचस्प बात यह है कि इस दुष्प्रचार में वही लोग सबसे अधिक बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं जिनके राजनीतिक पूर्वजों ने ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन से अपने आपको बहुत एहतियात के साथ अलग रखा। बहुत-से लोहियावादी भी इस दुष्प्रचार में संलग्न पाए जाते हैं, जबकि वास्तविकता इसके बिलकुल उलट है। प्रगतिशील आंदोलन के पीछे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम महासचिव पी.सी. जोशी की सक्रिय प्रेरणा थी और यह उनके करिश्माई व्यक्तितत्व का ही असर था जो इस आंदोलन के साथ उस समय के शीर्षस्थ साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी जुड़ सके। यह वही पी.सी. जोशी थे जिन पर केवल बाईस वर्ष की उम्र में तीस अन्य कम्युनिस्ट एवं मजदूर नेताओं के साथ सन 1929 में ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिश करने के आरोप में चर्चित मेरठ षड्यंत्र केस में मुकदमा चलाया गया था। जहां प्रगतिशील लेखक संघ के साथ हिंदी के प्रेमचंद, निराला, पंत, रामविलास शर्मा, रांगेय राघव और राहुल सांकृत्यायन तथा उर्दू के सज्जाद जहीर, अली सरदार जाफरी, फैज, फिराक, जोश, हसरत मोहानी और कृश्न चंदर जैसे लेखक जुड़े, वहीं उसे रवींद्रनाथ ठाकुर जैसी विभूतियों का समर्थन भी प्राप्त हुआ। इप्टा की कहानी भी इससे मिलती-जुलती है।

सुमंगला दामोदरन की पुस्तक से पता चलता है कि 1930 के दशक के उत्तरार्ध और सन 1940 के दशक के पूर्वार्ध में देश के विभिन्न भागों में रंगमंच, नृत्य और संगीत के क्षेत्र में सक्रिय रूप से पहल शुरू हो चुकी थी और स्थानीय संगठनों का निर्माण होने लगा था। इस पहल को राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने के लिए एक अखिल भारतीय संगठन की आवश्यकता महसूस होने लगी थी। यह वह समय था जब पूरे विश्व पर फासिज्म का संकट मंडरा रहा था और भारत में ब्रिटिश शासकों ने बंगाल को एक विराट अकाल के मुंह में धकेल दिया था। यह कोई प्राकृतिक विपदा नहीं बल्कि मनुष्य-निर्मित अकाल था। देश के संवेदनशील रचनाकर और संस्कृतिकर्मी इस सबसे बेहद बेचैन थे। सुमंगला दामोदरन बताती हैं कि इप्टा के नाम में ‘पीपुल्स थियेटर’ वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा के सुझाव को मानकर डाला गया था जो उन दिनों मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित थे। इप्टा के पहले महासचिव श्रीलंका के कलाकार अनिल डी सिल्वा और पहले अध्यक्ष ट्रेड यूनियन नेता एन.एम. जोशी थे। इसकी पहली कार्यकारिणी में विनय राय, के.टी. चांडी, मामा वारेरकर, ख्वाजा अहमद अब्बास, गरिकापति राजा राव, मखदूम मोहिउद्दीन, रशीद जहां, एस.ए. डांगे, शंभु मित्र, विष्णु डे और राजेंद्र रघुवंशी को चुना गया था। इप्टा के साथ रविशंकर जैसे प्रतिभाशाली युवा सितारवादक, पृथ्वीराज कपूर जैसे चोटी के रंगकर्मी और सलिल चौधुरी, विमल राय और चेतन आनंद जैसे फिल्म जगत के लोग जुड़ गए थे।

इसी दौर में इप्टा की प्रेरणा से बंगाल के महा-अकाल पर धरती के लाल जैसी ऐतिहासिक महत्व की फिल्म बनी जिसका निर्देशन ख्वाजा अहमद अब्बास ने किया और जिसमें शंभु मित्र, बलराज साहनी और उनकी पत्नी दमयंती ने अभिनय किया था। धरती के लाल की कहानी बंगाल इप्टा से जुड़े नाटककार और रंगकर्मी विजन भट्टाचार्य के दो नाटकों नवान्न और जुबानबंदी तथा कृश्न चंदर के उपन्यास अन्नदाता पर आधारित थी। इसका संगीत रविशंकर ने दिया था जो उन दिनों इप्टा की गतिविधियों के साथ नजदीक से जुड़े थे। रविशंकर ने ही चेतन आनंद की फिल्म नीचा नगर का संगीत दिया। संगीत निर्देशक के रूप में यह रविशंकर की पहली फिल्म थी और अभिनेत्री के रूप में कामिनी कौशल की। सन 1946 में बनी इस फिल्म ने प्रथम कान फिल्म महोत्सव में उसी वर्ष सर्वोच्च पुरस्कार प्राप्त किया था- सत्यजित राय की पाथेर पांचाली से नौ वर्ष पहले।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं।)

Advertisement
Advertisement
Advertisement