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विविधता का विस्तृत कैनवास

हिंदी रंगमंच पर अंतरराष्ट्रीय कृतियों का प्रभाव है लेकिन कुछ युवा निर्देशकों की प्रयोगधर्मिता ने स्वरूप भी बदला
घासीराम कोतवाल का दृश्य

हाल ही में हुए राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ग्रीष्मकालीन नाट्य समारोह के बहाने रंगमंच के विस्तार और विविधता पर बात की जा सकती है। इस समारोह से यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि रंगमंच कैसे विविधताओं को समेट रहा है। एक ओर लोकनृत्य और संगीत से पगा घासीराम कोतवाल है तो दूसरी ओर महानगर की जद्दोजहद से गुंथा नाटक आधा चांद भी है। यथार्थ को खदेड़ता बायेन है और कल्पना-वास्तविकता के बीच का व्यंग्य ताजमहल का टेंडर है। घासीराम कोतवाल में राजनीति पर कटाक्ष है जो मंच पर हिंदी के मौलिक नाटक की कमी को शानदार तरीके से भरते हैं। ऐसे नाटक बताते हैं कि हिंदी नाटक के दायरे संकीर्ण नहीं हुए हैं। हिंदी रंगमंच पर अंतरराष्ट्रीय कृतियों का भी प्रभाव है और युवा निर्देशकों की रचनात्मकता के साथ सक्रियता का भी। इधर कई निर्देशक प्रयोगधर्मी हुए हैं और सफलता भी पाई है। इतने सूत्रों का समावेश इस मंच को संपन्न करता है और उन संभावनाओं की ओर इंगित भी करता है जो इस मंच से उपज सकती हैं। यह अभिनेताओं के लिए भी चुनौती है कि उन्हें विभिन्न शैलियों में पारंगत होना पड़ता है। क्योंकि दर्शक भी कई तरह के व्याकरण समझते हैं। भिन्न संवेदनाएं और दृष्टि आपस में जब टकराती हैं तब नाट्योत्सव दोनों के बीच संवाद का सिलसिला बनाता है। दर्शक भी इस भिन्नता को ग्रहण करते हैं। क्योंकि अंत में नाटक वही है जो दर्शक के भीतर टिका रह जाता है।

विविधता का एक आयाम यह भी है कि दर्शक के सामने चुनाव की गुंजाइश हो। हिंदी रंगमंच ने ऐसी स्थिति की रेखा को छू लिया है। इसकी वजह है कि टिकट लेकर नाटक देखने की आदत धीरे-धीरे मजबूत हो रही है। अब रंगमंच लीक से हटकर काम करने की प्रवृत्ति बढ़ा रहा है जिससे हिंदी मंच की अपनी पहचान बनी हुई है। भारतेंदु के समय से ही प्रयोगधर्मी नाट्यकर्म का चलन बना हुआ है। नाटक का कोई निश्चित ढर्रा कभी नहीं रहा। लोककलाओं के साथ पश्चिमी शिल्प से भी रचनाकारों ने तत्व ग्रहण किए हैं। इससे रंगभाषा समृद्ध हुई है। नाट्य आलेख के अलावा उपन्यास, कहानी, कविता लोकगाथा-सभी ने इस मंच पर स्थान पाया है। इसका श्रेय रंगकर्मी और दर्शक दोनों को जाता है। बदलते व्याकरण की स्वीकृति ने इसे प्रयोगशील बनाए रखा है।

मिथक का भी मंच पर विशेष प्रभाव रहा है। साधारण जब विशिष्ट रूप धारण कर प्रकट होता है तो वह बिंब कई युगों को अपने में समेट लेता है। सदियों का इतिहास एक भंगिमा में उजागर हो जाता है और समकालीन तथा ऐतिहासिक जड़ के साथ प्रस्तुत होता है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि द्रोपदी के कई रूप आज मंचित हो रहे हैं। कर्ण, द्रोणाचार्य के माध्यम से आज की वास्तविकता पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। आसपास जो घट रहा है उसे लेकर सवाल करना भी इस मंच के स्वभाव में है। अरविंद गौड़ द्वारा निर्देशित कोर्ट मार्शल वर्षों से सफलतापूर्वक खेला जा रहा है। गांधी और आंबेडकर के बीच का विवाद भी दर्शकों को बांधता है। इतिहास को लेकर भी जिज्ञासा दिखाई पड़ती है। चाणक्य, औरंगजेब, दारा पुन: मंचित हो रहे हैं। इतिहास की परिकल्पना में जब आज की प्रतिध्वनि मुखरित होती है, तब दर्शकों के लिए मंच जीवन से जुड़ जाता है। रंग क्रिया की यही परिभाषा है। नाटक किसी भी काल या स्थान का चित्रण कर रहा हो मगर उसका बोध तो उस वर्तमान में निहित है जब उसे खेला जा रहा है। मंचन सदा इसी वर्तमान के लिए है, यही उसे प्रासंगिक बनाता है, उसकी पुष्टि करता है, उसे अर्थ प्रदान करता है। हिंदी मंच समय के साथ अपने इस संबंध को बनाए रखने का भरसक प्रयास कर रहा है। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, मुख्य रूप से कई धाराएं आपस में भिन्न होते हुए भी इस सार्थकता की तलाश में सक्रिय हैं।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ग्रीष्मकालीन नाट्य समारोह में इस बार जो सात नाटक हुए उस श्रृंखला में पहला नाटक था बायेन। यह महाश्वेता देवी की कहानी पर आधारित था। इस नाटक की मंच प्रस्तुति का श्रेय सुप्रसिद्ध रंग निर्देशिका उषा गांगुली को दिया जाना चाहिए। डोम परिवार की लड़की गांव के स्वार्थ और रू‌ढ़िवादिता से अकेले जूझती है। विडंबना और विषमता से टकराता कथानक संवेदना को झकझोरता है। उत्सव का प्रारंभ इस नई प्रस्तुति से हुआ तो दूसरा नाटक ताजमहल का टेंडर ऐसा नाटक था जिससे दर्शक भली भांति परिचित हैं। नाटक अपने विचित्र ढंग से भ्रष्टाचार का खुलासा करता है। यदि शाहजहां आज के युग में होते तब क्या टेंडरों के घोटालों के बीच ताजमहल बन पाता? इसी मूल प्रश्न से नाटक का व्यंग्य उभरता है और चितरंजन त्रिपाठी का निर्देशन उसे हास-परिहास युक्त कई स्थितियों में बांधता चला जाता है। यही रंगमंच की ताकत है कि दो विभिन्न आयामों का एक साथ कदमताल करा सके।

मोहन महर्षि द्वारा रचित विद्योत्तमा ने भी युग लांघा। कालिदास और विद्योत्तमा की रचना यात्रा का पारस्परिक सूत्र एकाएक टूट जाता है, जब समय और काल की सीमा को पार करती विद्योत्तमा भयावह परिस्थितियों का शिकार हो जाती है। तब विद्योत्तमा आज की स्त्री जान पड़ती है जिसका अस्तित्व निजी स्वतंत्रता से समझौता नहीं कर सकता, जो अंधेरे में भी मुक्त रहना चाहती है किंतु चौराहों पर जुटी भीड़ को यह स्वीकार्य नहीं। उसी के क्रूर प्रहार का परिणाम है कि विद्योत्तमा का जीवन छिन जाता है और कालिदास की रचना-शक्ति लुप्त हो जाती है। रंग प्रस्तुति में जब विद्योत्तमा आधुनिक शहर की रेड लाइट पर आ खड़ी होती है तो नाटक भी अकस्मात समकालीन घटनाओं के दुष्चक्र का मुहावरा बन जाता है। आज स्त्री, जिस तेजी से स्वतंत्र हो रही है, उसी रफ्तार से माहौल खतरनाक होता जा रहा है। इस अंधेरे को तोड़ता उत्सव का अगला नाटक आधा चांद महानगर के जीवन पर आधारित है। कॉल सेंटर में काम करने वाले युवक और युवतियां यदि नए अवसर पा रहे हैं तो दूसरी ओर इसी जीवन शैली से उत्पन्न कई विरोधाभास उन्हें घेरे हुए भी हैं। गरीब मां-बाप के बच्चे जो विदेशी लहजे से अंग्रेजी बोलना सीख लेते हैं और फोन पर व्यापार के एजेंट बन जाते हैं, वास्तविक जीवन और वर्चुअल जोन के दरम्यान अपनी धुरी को थाम कर रखने का प्रयास करते हैं। उनकी मेहनत और ईमानदारी किसी के कारोबार के लिए मात्र जरिया है, जिसे कभी भी किनारे किया जा सकता है। ग्रीक नाटक लिसिसटाटा से प्रेरित गजल तेरी अदा वामन केंद्रे का ऐसा नाटक है जो युद्ध की पृष्ठभूमि में स्त्री संकल्प को दर्ज करता है। स्त्री की लड़ाई व्यक्तिगत नहीं है, उसकी लड़ाई उस सत्ता और प्रवृत्ति से है जो पुरुष को युद्ध में धकेलती है। घर-घर में पनपता संकल्प, पुरुष की कामुकता पर आघात करता, गंभीर हास्य और गंभीरता के बीच एक संगीतमय रास्ता बनाता है। वामन केंद्रे द्वारा निर्देशित दूसरा नाटक लागी लगन भी संगीत में ढला है। नाटकों की उम्र उनकी सफलता है। घासीराम कोतवाल का फिर-फिर मंचन यही बताता है। वरिष्ठ रंग निर्देशक राजेंद्रनाथ के निर्देशन में रंगमंडल ने इसे पहली बार 19 जून 1993 को प्रस्तुत किया था। सन 1999 में प्रथम भारत रंग महोत्सव के लिए उन्होंने इसे पुन: तैयार किया। इतिहास नाटक को बिंब प्रदान कर सकता है लेकिन रंगमंच उस बिंब को अमर कर सकता है।

(लेखिका राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्राध्यापक हैं)

 

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