सामान्य हालात में ईद पर केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह की यह उम्मीद बेमानी नहीं है कि ''मुझे पूरा विश्वास है कि इंसानियत का यह पर्व घाटी में अमन-चैन और दोस्ती का माहौल लौटा लाने में मददगार होगा।’ लेकिन मंत्री महोदय को भी पता है कि ये सामान्य हालात नहीं हैं। ईद भी प्रदर्शनकारियों से पुलिस की झड़प से मुक्त नहीं हो पाई और अनंतनाग, सोपोर, कुलगाम, पुलवामा, बारामुला वगैरह में कम से कम 10 लोग जख्मी हो गए। यही नहीं, श्रीनगर की जामिया मस्जिद के सामने डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित की सरेआम पीटकर हत्या से घाटी में हालात और संगीन हो गए हैं। जिन हालात में ये वारदातें सरेआम होने लगी हैं, उससे स्थानीय पुलिस में दहशत बिलाशक राजनाथ और केंद्र के लिए चिंता का सबब हो सकती है।
पंडित ही पहले शिकार नहीं हैं लेकिन जैसे वे भीड़ के गुस्से का शिकार हुए उससे दहशत बढ़ गई है। 22 जून को शब-ए-कद्र के पवित्र मौके पर जामिया मस्जिद के पास सुरक्षा की निगरानी के लिए जम्मू-कश्मीर पुलिस के डीएसपी पंडित पहुंचे थे। पुराने शहर के बेहद संवेदनशील इलाके में मस्जिद में उनकी मौजूदगी को लेकर कुछ विरोधाभासी बातें कही जा रही हैं। लेकिन एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का कहना है, ''वहां कुछ अप्रत्याशित-सी बात हुई जिससे अफसर ने अपनी पिस्तौल से गोलियां दाग दीं।’
चश्मदीदों के मुताबिक, पंडित मस्जिद में तस्वीरें ले रहे थे तभी कुछ नौजवानों से उनकी कहासुनी हो गई। मामला बढ़ा तो मस्जिद के बाहर अफसर ने अपनी पिस्तौल दाग दी, जिसमें तीन लोग जख्मी हो गए। उसके बाद तो भीड़ ने उन्हें पकड़ लिया और कपड़े उतार दिए और पीट-पीटकर मार डाला।
इस घटना से पुलिस ही नहीं, लोग भी दहशत में आ गए। हर राजनैतिक दल और हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ने भी इसकी निंदा की। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने इसे ''पाशविक’ हरकत बताया।
इसके पहले अनंतनाग पुलिस लाइन में 16 जून की शाम जब आतंकी हमले में शहीद हुए 32 साल के एसएचओ फिरोज अहमद डार समेत छह पुलिसकर्मियों के शव श्रद्धांजलि के लिए लाए गए तो वहां का माहौल गमगीन हो गया। सभी पुलिसकर्मी श्रीनगर से 65 किलोमीटर दक्षिण स्थित अचबल पुलिस स्टेशन जा रहे थे तभी उनकी जीप पर आतंकियों ने घात लगाकर हमला किया। पिछले दो दशक में यह पुलिसकर्मियों पर सबसे बड़ा हमला था।
वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के अनुसार प्रदर्शनकारियों से लगातार बढ़ता टकराव और हालात से निबटने के लिए जरूरी सार-संजाम के अभाव की वजह से घाटी में पुलिसवालों की जान पर खतरा बढ़ गया है। यह राज्य के दक्षिणी हिस्से में ज्यादा है जहां स्थानीय लोग आतंकी गतिविधियों में ज्यादा लिप्त हैं। एक अधिकारी के अनुसार, ''घाटी में पुलिस को गद्दार की तरह देखा जाता है जो अपने ही लोगों के खिलाफ काम कर रहे हैं। यही कारण है कि लोगों के मन में पुलिस के खिलाफ गुस्सा और घृणा है।’ ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि सुरक्षा बलों के हाथों मारे गए लोगों की शवयात्रा में बड़ी संख्या में लोग उमड़ पड़ें जबकि पुलिसवालों की अंत्येष्टि नजरअंदाज हो जाती है।
इस इलाके में तैनात एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी इसकी एक वजह की ओर इशारा करते हैं। उनके अनुसार, ''दक्षिण कश्मीर में सक्रिय अधिकांश आतंकी कभी न कभी पुलिस हिरासत में रह चुके हैं या उनसे पूछताछ हो चुकी है। पत्थरबाजी में शामिल होने की सूचना के बाद बड़ी संख्या में नौजवानों को हिरासत में लिया गया है। इससे उनमें पुलिस के प्रति नफरत करने की बात घर कर गई है।’
22 साल के जुबैर अहमद तुरे का उदाहरण लें। पुलिस के अनुसार वह एक मई को शोपियां जिले में उसकी हिरासत से भाग गया। उसके तीन दिन बाद उसका एक वीडियो सामने आया। इसमें उसने सेना की वर्दी पहन रखी है और उसके हाथ में एके 47 राइफल है। इस वीडियो में वह कहता है, ''पुलिस और भारतीय शासन व्यवस्था की क्रूरता की वजह से उसे आतंकी संगठन का हाथ थामना पड़ा।’
जुबैर 2004 में जब 11 साल का था तभी वह आर्म्स एक्ट के तहत पकड़ा गया था। 2008 के आंदोलन के बाद वह लगातार या तो जेल में या पुलिस रिमांड पर रहा। इस साल 24 फरवरी को उसे तब छोड़ा गया जब जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने उस पर लगे पब्लिक सेक्रटी एक्ट (पीएसए) के आखिरी आरोप को खारिज कर दिया। उसके बाद भी वह घर नहीं पहुंच पाया क्योंकि जम्मू-कश्मीर पुलिस के आतंक विरोधी दस्ते ने उसे पूछताछ के लिए हिरासत में लेने के बाद शोपियां की स्थानीय पुलिस को सौंप दिया। वह भागने से पहले एक मई तक हिरासत में रहा। इसके तीन दिन बाद वह आतंकी था।
एसएचओ फिरोज और आतंकी जुबैर की दुखद दास्तां उस सिलसिले का ही एक हिस्सा है जिससे मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती बतौर विपक्ष की नेता पहले काफी करीब से वाकिफ रह चुकी हैं। डेढ़ दशक या उससे कुछ पहले पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की स्थापना के बाद वे दक्षिण कश्मीर में आतंकी हिंसा और जवाबी कार्रवाई में मारे गए लोगों के परिजनों को सांत्वना देने जाया करती थीं। इस 19 जून को भी वे श्रीनगर-अनंतनाग हाईवे पर स्थित फिरोज के गांव पहुंचती हैं, मारे गए एसएचओ के मां-बाप, पत्नी और दो बच्चों को सांत्वना देने के बाद घोषणा करती हैं कि जल्दी ही उनके नजदीकी परिजन को नौकरी दी जाएगी। लेकिन पुलिस मुख्यमंत्री से इससे ज्यादा की इच्छा रखती है। इसका कारण यह है कि जब मार्च, 2015 में वह भाजपा से गठबंधन कर सरकार में आई थीं तो उन्होंने सुलह और शांति का वादा किया था।
असल में 2008 में लोगों और स्थानीय पुलिस के रिश्तों में बड़ा बदलाव आया था। उस साल घाटी की वन भूमि को श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को स्थानांतरित करने के विरोध में हुए प्रदर्शन को दबाने के लिए पुलिस और सुरक्षा बलों की कार्रवाई में 60 से ज्यादा लोग मारे गए और हजारों घायल हुए। उसके दो साल बाद एक और आंदोलन हुआ। यह सेना, सीआरपीएफ और स्थानीय पुलिस द्वारा आम नागरिकों को मारे जाने के खिलाफ था। 2010 का पुलिस और प्रदर्शनकारियों का आमना-सामना छह महीने तक चला। इस दौरान सौ से अधिक युवाओं की जान गई। पुलिस सूत्रों के अनुसार 2,952 पुलिसकर्मी भी इस दौरान घायल हुए। आठ जुलाई, 2016 को हिज्बुल मुजाहिदीन के 22 वर्षीय कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से पुलिस को लगभग रोज ही प्रदर्शन का सामना करना पड़ रहा है। इस दौरान हुए संघर्ष में सौ से ज्यादा प्रदर्शनकारी मारे जा चुके हैं जबकि 16,000 घायल हुए हैं। इनमें से अधिकांश की आंखों में चोट लगी है। श्रीनगर के प्रमुख सरकारी अस्पताल एसएमएचएस के डॉक्टरों के अनुसार तकरीबन हर दिन एक व्यक्ति छर्रे से आंखों में चोट खाकर यहां आता है। पिछले साल प्रदर्शनकारियों को नियंत्रित करने के लिए पेलेट गन से की गई फायरिंग में 1,100 युवाओं की आंखों में छर्रों घुस गए जबकि घायल पुलिसवालों का आंकड़ा 4,000 तक पहुंच गया था।
पुलिस अधिकारियों के अनुसार आतंकवाद विरोधी कार्रवाइयों में शामिल होने के कारण वे आतंकियों के निशाने पर आ जाते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें आतंकियों की जानकारी देने वाला भेदिया भी माना जाता है।
पिछले चार महीने में 15 पुलिसकर्मी और दो विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) कई घटनाओं में मारे जा चुके हैं जबकि पिछले साल 17 लोगों को जान गंवानी पड़ी थी। 16 जून को अचबल में हुए हमले के बाद पुलिसवालों में दहशत है। कई पुलिस अधिकारियों ने अपने परिवार को श्रीनगर भेज दिया है और एसएचओ खुद के लिए बुलेट प्रूफ गाड़ियों की मांग कर रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि अपने इलाके में स्थानीय आतंकियों की सक्रियता की वजह से एसएचओ फिरोज ने भी बुलेट प्रूफ गाड़ी की मांग की थी। राज्य के पुलिस महानिदेशक एस.पी. वैद ने आउटलुक से कहा कि अतिसंवेदनशील पुलिस स्टेशनों को बुलेट प्रूफ वाहन उपलब्ध करा दिए जाएंगे। उन्होंने कहा, ''हालांकि ऐसे वाहनों की खरीदारी की प्रक्रिया जटिल है पर हम अधिकारियों को बुलेट प्रूफ वाहन और बख्तरबंद गाड़ियां मुहैया कराएंगे। इसमें कुछ समय लगेगा। इस पर काम हो रहा है।’
पुलिसवालों पर ड्यूटी के दौरान जानलेवा हमले का खतरा तो बना ही रहता है पर आतंकवादी यह भी संदेश देना चाहते हैं कि वे छुट्टियों के दौरान या परिजनों से मुलाकात के दौरान भी सुरक्षित नहीं हैं। 14 जून को लश्कर-ए-तैयबा ने पुलिसकर्मियों को नौकरी छोड़ने की धमकी देते हुए उन्हें आतंकी संगठन में आने को कहा। इसके ठीक अगले दिन जम्मू-कश्मीर पुलिस की विशेष आतंकरोधी शाखा स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप (एसओजी) के शब्बीर अहमद डार की हत्या उनके कुलगाम जिले स्थित घर पर गोली मारकर कर दी जाती है। शब्बीर डीजीपी वैद द्वारा मार्च में जारी आदेश के बावजूद अपने घर गए थे। उस आदेश में कहा गया था कि जब तक हालात सामान्य नहीं हो जाते तब तक पुलिसवाले अपने घर जाने से बचें। वैद अपने बल का मनोबल कायम रखने के लिए यह चेतावनी भी देते हैं, ''हम लोगों ने आतंकियों के परिवार वालों से सभ्य व्यवहार किया है। लेकिन उन लोगों ने हमारे परिजनों पर हमला किया। आतंकियों को यह जान लेना चाहिए कि उनके परिजन भी कश्मीर में ही रहते हैं।’
कुछ पुलिस अधिकारी 16 जून को हुए हमले का बदला लेने की बात भी कहते हैं। एसएसपी इम्तियाज हुसैन ट्वीट करते हैं, ''एसएचओ फिरोज अहमद समेत छह पुलिसकर्मी अनंतनाग आतंकी हमले में शहीद हो गए हैं। फिरोज हम तुमसे वादा करते हैं कि हम पूरे आतंकी हत्यारे ग्रुप को नेस्तनाबूद कर देंगे...।’ इस घटना पर सोशल नेटवर्किंग साइट पर भी जोरदार प्रतिक्रिया हुई है। अधिवक्ता बाबर कादरी के अनुसार, ''यह कश्मीरियों द्वारा कश्मीरियों को मारने का गेम प्लान है। मैं पुलिस प्रशासन का बचाव नहीं करना चाहता। कश्मीरियों पर अत्याचार किया जा रहा है जिसके लिए वे जिम्मेदार हैं। लेकिन राजनीतिक तौर पर कश्मीरी पुलिसवालों को मारना सही नहीं है।’ कादरी ने अपनी बात फेसबुक पर कही। इसी तरह के सैकड़ों पोस्ट और भी देखने को मिले।
पुलिस अधिकारियों के अनुसार 16 जून की हत्या के बाद आलोचनाओं और प्रतिक्रियाओं का स्थानीय आतंकियों पर कोई असर नहीं पड़ा। एक अधिकारी के अनुसार, ''पाकिस्तानी आतंकियों के विपरीत इन पर किसी का सीधा नियंत्रण नहीं होता। वे पुलिस और अन्य सैन्य बलों के खिलाफ अपनी समझ, याददाश्त और अनुभवों के आधार पर काम करते हैं। वे अपनी कार्रवाइयों पर होने वाली आलोचनाओं पर ध्यान नहीं देते।’ स्थानीय पुलिस लोगों की पहुंच में होती है इस कारण स्थानीय आतंकी आसानी से उन्हें अपने निशाने पर ले लेते हैं।
एसएचओ फिरोज और उनके सहयोगियों की शहादत के अगले दिन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने आतंकियों की कार्रवाई को कायरतापूर्ण बताया। उन्होंने विधानसभा में कहा, ''राज्य को अनिश्चितता की इस स्थिति से बाहर लाने का एकमात्र रास्ता बातचीत है। दोनों देशों (भारत और पाकिस्तान) में चार युद्ध हो चुके हैं पर जम्मू-कश्मीर में अभी भी खून बह रहा है। यही कारण है कि सभी पक्षों से बातचीत करना ही उनकी साझा सरकार का एजेंडा है।’ पीडीपी की सहयोगी भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार घाटी में खराब हो रही स्थिति की अनदेखी करने के मूड में नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो आने वाले दिनों में कश्मीर में पुलिस को युवाओं के सड़कों पर प्रदर्शन और युवा कश्मीरी आतंकियों से राहत मिलने वाली नहीं है।