मध्यप्रदेश में किसानों के आंदोलन पर पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने के बाद, स्थिति को काबू में लाने के लिए, अफवाहों पर रोक लगाने के लिए, प्रशासन ने सबसे पहला काम किया—वाट्सऐप पर रोक लगाने का। इंटरनेट की सर्वव्यापकता के इस युग में संप्रेषण बहुत आसान हो गया है, वाट्सऐप इस आसानी का सबसे सुलभ रूप है, बस एक सेलफोन की ही तो दरकार है। और इसीलिए, मंदसौर हो या सहारनपुर या नासिक, अफवाहों पर रोक लगाने के लिए वाट्सऐप पर रोक लगाना जरूरी माना जाता है। कश्मीर की स्थिति तो हम सब जानते ही हैं।
तनाव की स्थिति में वाट्सऐप की ऐसी भूमिका, जाहिर है, चिंताजनक है। अगर ऐसी स्थिति से अलग, सामान्य दिनों में भी वाट्सऐप की दुनिया में झांका जाए तो हालत खासी मनोरंजक भी लगती है। लेकिन, केवल ऊपर-ऊपर से। असल में, सामान्य दिनों में सामान्य लोग वाट्सऐप पर क्या कर रहे हैं, क्या दे और पा रहे हैं, उसे समझने से ही मालूम पड़ेगा कि तनाव की स्थिति में वाट्सऐप से प्रशासन को इतना डर क्यों लगता है।
अधिक को तो झेलना असंभव है, मैं कुछ वाट्सऐप ग्रुप्स पर निगाह रखता हूं। इनमें से एक पर अभी दो ही दिन पहले तुलसीदास और रहीम के बीच का वह संवाद, जिसमें दान देने के लिए विख्यात रहीम की विनम्रता रेखांकित होती है, तुलसीदास और राजा हरिश्चंद्र के बीच का संवाद बना दिया गया। रहीम के बजाय सतयुग के राजा हरिश्चंद्र कलियुग के तुलसीदास को ब्रजभाषा में दोहा लिख कर भेजते मिले—'लोग भरम हम पै करैं ताते नीचे नैन।’ इस ग्रुप में सब 'पढ़े-लिखे’ लोग हैं। कोई साइंटिस्ट, कोई इंजीनियर, कोई अफसर, और कोई 'आंतरप्यूनर’— किसी को यह हरिश्चंद्र-तुलसीदास संवाद नहीं खटका, किसी को तुलसीदास और रहीम की मित्रता की किंवदंतियां याद नहीं आईं। शायद हम ऐसे हिन्दूपन के दौर में पहुंच रहे हैं जो तुलसीदास तक की किसी मुसलमान से मित्रता बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। जो यह सोचने को तैयार नहीं कि हरिश्चंद्र तुलसीदास जी की कल्पना या कविता में तो आ सकते हैं लेकिन वे तुलसीदास के साथ चिट्ठी-पत्री करें यह जरा अजीब बात है। बात केवल खास तरह के हिन्दूपन की भी नहीं, खास तरह की 'बुद्धि’ की है।
वाट्सऐप और आभासी दुनिया के दूसरे 'विश्वविद्यालयों’ में जिस 'ज्ञान’ का निर्माण और वितरण हो रहा है, वह समाज में तेजी से वायरल हो रही बुद्धिहीनता का ही प्रमाण है। जो बात किसी भी सामान्य सहजबोध संपन्न व्यक्ति को बेतुकी लगनी चाहिए, वह आजकल के अच्छे-खासे 'पढ़े-लिखे’ लोगों को सहज ही विश्वसनीय लगने लगी है। यह इस बुद्धिहीनता-विषाणु (वायरस) का ही नतीजा है कि कोई लैटिन अमेरिका की वीडियो क्लिप को पश्चिम उत्तर प्रदेश की बता कर लगा देता है और लोग उस क्लिप में दिख रहे लोगों के चेहरे-मोहरे, पहनावे, आस-पास के माहौल पर ध्यान दिए बिना उस पर भरोसा कर लेते हैं। पश्चिम यूरोप की किसी एक्सप्रेस-वे की तस्वीर को गुजरात सरकार की उपलब्धि की तस्वीर मान लिया जाता है।
यह बुद्धिहीनता, बल्कि सहजबोध तक से दुश्मनी वाट्सऐप ज्ञान के प्रचार-प्रसार में सहायक तो है, लेकिन क्या इसका जन्म भी वाट्सऐप के साथ ही हुआ है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए जरूरी है यह याद रखना कि ऐसा नहीं है कि बुद्धिहीनता के इस समकालीन वायरस की गिरफ्त में केवल अपना ही समाज हो। तर्कसंगत सोच-विचार की कमी समाज का स्वभाव क्यों बनती जा रही है, नॉम चॉम्स्की ने पिछले ही दिनों अमेरिकी पत्रिका 'द नेशन’ को दिए एक इंटरव्यू में इस सवाल पर अमेरिका और पश्चिम यूरोप के संदर्भ में विचार किया है। वे याद दिलाते हैं कि सातवें दशक में अमेरिका और यूरोप के मजदूरों, विद्यार्थियों और कर्मचारियों, स्त्रियों और अश्वेतों के बीच व्यापक असंतोष फैला था। वियतनाम में अमेरिकी मौजूदगी पर अभूतपूर्व सवाल उठाए गए थे। फ्रांस में द’गाल जैसे राष्ट्रपति की सत्ता को चुनौती मिली थी। चॉम्स्की याद दिलाते हैं कि अमेरिकी सत्ता-तंत्र और बड़े कारपोरेटों ने इस घटनाक्रम से अपने ढंग से सबक सीखे और तात्कालिक के साथ ही दूरगामी कदम भी उठाए। समस्या यह मानी गई कि ''नौजवानों का संस्कार निर्माण करने वाली संस्थाएं अपना काम ठीक से नहीं कर रही हैं, इसीलिए ये लोग सवाल बहुत पूछने लगे हैं, जरूरत शिक्षा पद्धति में ऐसे परिवर्तन करने की है, जिनके कारण नौजवान अपने काम से काम रखने की आदत डालें और फालतू सोच-विचार से दूर रहें।’ साथ ही यह भी तय किया गया कि बुनियादी सामाजिक ढांचे पर चोट करने वाले आंदोलनों की उपेक्षा की जाए और सामाजिक वर्गों के स्थान पर सामाजिक पहचानों के स्वरों को ताकत दी जाए।
इन नीतियों पर अमल आठवें दशक के मध्य से शुरू हुआ और हम अमेरिका में देख सकते हैं कि विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी 'सुधर’ गए हैं, वे व्यापक ज्ञान से नहीं, केवल अपने काम की सूचना से वास्ता रखना चाहते हैं। राजनैतिक चेतना का अर्थ तरह-तरह की अस्मितावादी राजनीति का समर्थन करने से लेकर 'नो स्मोकिंग’ के अभियान चलाने तक सिमट कर रह गया है। चॉम्स्की ने लीविस पॉवेल द्वारा तैयार किए गए जिस दस्तावेज का जिक्र किया है, उसमें दर्ज इच्छा पूरी हो चली है। विश्वविद्यालय में पढ़ने का अर्थ व्यापक ज्ञान की प्राप्ति न रह कर तकनीक से लेकर मैनेजमेंट तक की 'स्किल’ हासिल करना हो गया है।
ऐन इसी तरह के सुझाव अपने देश में उच्च शिक्षा के बारे में मार्गदर्शन करने के लिए बनाई गई अंबानी-बिड़ला कमेटी ने दिए थे। जाहिर है, चिंताएं भी यही थीं कि किस तरह विद्यार्थियों को सवाल पूछने और सोचने वाले इंसानों के बजाय चुपचाप अपना काम करने वाली स्किल्ड वर्कफोर्स में बदला जाए। यह कमेटी 2000 में वाजपेयी सरकार द्वारा बनाई गई थी। बाद में, मनमोहन सिंह सरकार ने भी इस कमेटी की सिफारिशों में से दो-एक को इधर-उधर भले किया हो, इन सिफारिशों का जिक्र करना भले ही कम कर दिया हो, सारी शिक्षा-नीति की दिशा पिछले पंद्रह एक बरसों में ऐन वही रही है जो अंबानी-बिड़ला कमेटी ने सुझाई थी। मानविकी के विषयों की पूर्ण उपेक्षा, स्कूलों में भाषा तक को संवेदना के विस्तार के बजाय केवल बिजनेस लेटर के माध्यम में बदल देना, विज्ञान के नाम पर केवल तकनीक का बल, शोध का एजेंडा शोधार्थी की ज्ञान-पिपासा और विषय की अपनी समस्याओं के हिसाब से नहीं, इंडस्ट्री की जरूरतों के हिसाब से तय होना—यह सब बिड़ला-अंबानी कमेटी की इच्छा के अनुसार ही है। ऐसी शिक्षा-पद्धति से निकले नौजवानों से तर्कबुद्धि की तो क्या, सहजबोध की भी उम्मीद करना बेमानी ही है।
किसी समाज के बुद्धिविरोधी समाज में बदल जाने का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि 'बुद्धिजीवी’ धिक्कार के लिए बरता जाने लगे। संसद में मंत्री जी 'बुद्धिजीवी आतंकवाद’ जैसी शब्दावली का प्रयोग करें। यह बात किसी एक राजनैतिक दृष्टि तक सीमित हो, ऐसा भी नहीं है। बुद्धजीवियों को 'गण-शत्रु’ मानने का इतिहास वामपंथी राजसत्ताओं और विचारधाराओं का भी रहा है। हमारी मौजूदा हालत इसलिए और भी दुखद लगती है क्योंकि भारतीय समाज और सत्ता-तंत्र पारंपरिक रूप से इस लिहाज से विलक्षण रहा है कि यहां निरक्षर व्यक्ति भी विद्वानों, गुणियों का सम्मान करता रहा है। रावण और अन्य ऐसे राजाओं को अत्याचारी मानने का एक कारण यह भी रहा है कि वे अपने समय के बुद्धिजीवियों (अर्थात् ऋषियों) को सताते थे। इसलिए यह और भी दुखद लगता है कि अपनी सांस्कृतिक स्मृतियों के एकदम उलट हम अपनी शिक्षा-पद्धति तक को एक बुद्धिविरोध की नर्सरी ही बनाए दे रहे हैं। बुद्धि और संवेदना की घोर उपेक्षा करते हुए राजनेता, कारपोरेट और 'ओपिनियन मेकर्स’—सब के सब 'स्किल डेवलपमेंट’ के गीत गा रहे हैं, इसी को कसौटी बना कर सरकार को जांच रहे हैं।
सोच-विचार की घोर उपेक्षा कर केवल तथाकथित 'कौशल—स्किल’ के विकास पर केंद्रित शिक्षा-पद्धति और जैसा इन दिनों है, वैसा टीवी दोनों मिलकर हाल करेला और नीम चढ़ा वाला कर देते हैं। इसलिए इसमें ताज्जुब की बात नहीं कि वाट्सऐप के जरिए आप लोगों को कुछ भी यकीन दिला सकते हैं, कुछ भी करा सकते हैं। आज से कुछ ही दशक पहले तो भैंस ने मनुष्य के बच्चे को जन्म दिया टाइप की खबरें कस्बों के कमजोर अखबारों में ही छपा करती थीं, आज आप राष्ट्रीय चैनलों पर भी नागिन की प्रेम-कहानी भी देख सकते हैं, और भूत का मोबाइल नंबर भी प्राप्त कर सकते हैं, और ऐसे ही चैनलों के कवरेज के आधार पर देश-दुनिया की दशा के बारे में अपनी राय भी बना सकते हैं। हमारे बचपन तक अधिकांश मध्यवर्गीय घरों में अच्छी बहू के लायक लड़की का बखान कुछ यों किया जाता था, 'सुंदर, सुशील, गृहकार्य में दक्ष, चिट्ठी लिख लेवे है, रामायन बांच लेवे है।’ इस बखान का वाट्सऐप के काल में विस्तार यों किया जा सकता है, 'सुशील है, सवाल करके बवाल न करे है, ऑफिस का काम करने लायक अंग्रेजी जाने है, जॉब-स्किल बहुतै बढ़िया है, वाट्सऐप बांच लेवे है।’
अगर ऐसी 'सुशीलता’ ही सामाजिक लक्ष्य है, अगर बुद्धि का प्रयोग करना तिरस्कार के ही लायक है, अगर पढ़ने-लिखने का मतलब केवल कामचलाऊ अंग्रेजी सीख लेना और किसी तरह की 'स्किल कंपीटेंस’ हासिल कर लेना है, तो 'वाट्सऐप यूनिवर्सिटी’ के ज्ञान के साथ जीने की आदत भी समाज को डाल ही लेनी होगी। दंगे के दौरान वाट्सऐप पर रोक लगा कर आप दो-चार दिन के लिए अफवाहों पर रोक लगा भी लें तो उन अफवाहों का क्या करेंगे जो तीन सौ पैंसठ दिन, चौबीस घंटे वाट्सऐप पर प्रसारित की जाती हैं, और बुद्धिविरोध की ओर बढ़ता समाज जिन्हें सच मान कर कुछ लोगों से नफरत करने लगता है, कुछ लोगों से दैवीय चमत्कारों की उम्मीद करने लगता है।
(लेखक वरिष्ठ आलोचक और टिप्पणीकार हैं)