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सितंबर 2013 में अचानक एक वाट्सऐप वीडियो वायरल हुआ कि एक आदमी का गला बुरी तरह रेता जा रहा है। उसे मुजफ्फरनगर की घटना बताया गया जबकि वह कहीं अफगानिस्तान का पुराना मामला था। नतीजा मुजफ्फरनगर धू-धू कर जल उठा, जिसमें करीब 60 लोग जान गंवा बैठे, कई जख्मी हुए और हजारों लोग बेघर हो गए।
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मई 2017: पाकिस्तान द्वारा दो भारतीय सैनिकों के सिर कलम करने का वीडियो वायरल हुआ। एक हफ्ते बाद पता चला कि यह वीडियो 2011 की स्पेन में हुई घटना का था।
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जून 2017: चैंपियंस ट्रॉफी फाइनल में भारत की हार के बाद एक वीडियो सोशल मीडिया पर फैलाया गया कि बड़ोदरा में एक मुस्लिम युवक पाकिस्तान की जीत का जश्न मना रहा है। बाद में पता चला कि यह वीडियो यू-ट्यूब पर 15 मार्च से पड़ा है।
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जून 2017: गृह मंत्रालय की सालाना रिपोर्ट में जम्मू-कश्मीर में भारतीय सीमा पर फ्लड-लाइट को दिखाने के लिए एक तस्वीर का इस्तेमाल हुआ जो स्पेन-मोरक्को बॉर्डर की निकली।
वाकई ये तो महज मुट्ठी भर मिसालें हैं। मगर सत्य और असत्य के शाश्वत द्वंद्व के बीच झूठ को तकनीक के पंख लग चुके हैं। दुष्प्रचार को सोशल मीडिया और मोबाइल मैसेजिंग जैसे हथियार मिल गए हैं। प्रोपगंडा फैलाने वाली ताकतों ने सोशल मीडिया को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया। झूठ की फैक्ट्रियां दिन-रात जनता की धारणाएं प्रभावित करने में जुटी हैं। अब हर क्षण कोई नया झूठ आपके समक्ष खड़ा है, जिसे फॉरवर्ड करने वाला आपका कोई अपना ही है। इसलिए आसानी से यकीन भी हो जाता है। सूचना-क्रांति का यह अजीब दौर है, जहां सच ही संकट में है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से जुड़े रहे समाजशास्त्री प्रो. आनंद कुमार कहते हैं, ''जैसे-जैसे सूचनाओं के माध्यम बढ़ रहे हैं, हम जानकारियों से कटे होने के भय से ग्रस्त होते जा रहे हैं। यह भय हमें संचार माध्यमों के ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल के लिए प्रेरित करता है। हम इतनी ज्यादा सूचनाएं ग्रहण करने लगते हैं कि उनकी पुष्टि करने का मौका ही नहीं होता। इस प्रवृत्ति का फायदा ऐसे लोग उठा रहे हैं, जिनके स्वार्थ धारणाओं के बनाने-बिगाड़ने से जुड़े हैं।’ उल्लेखनीय है कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने 'पोस्ट ट्रुथ’ को 2016 का वर्ड ऑफ द ईयर घोषित किया।
अफवाहों का वायरस कैसे लोगों को उग्र भीड़ में बदल रहा है, इसके कई उदाहरण हाल के दिनों में सामने आए। इस साल मई में झारखंड में बच्चा चोरी की अफवाहों के बीच उग्र भीड़ ने 9 लोगों की हत्या कर दी। इन अफवाहों के पीछे किसका हाथ था, आज तक पता नहीं चला। इस सिलसिले में कई वाट्सऐप ग्रुप संदेह के दायरे में हैं। जयपुर के मशहूर रब्बानी होटल पर 74 दिन तक सिर्फ इसलिए ताला लटका रहा क्योंकि बीफ परोसे जाने की अफवाह पर कथित गौरक्षकों ने वहां धावा बोल दिया था। होटल के मालिक नईम रब्बानी 19 मार्च का वह दिन कभी नहीं भूल पाएंगे। नईम बताते हैं कि महज अफवाह के आधार पर उनके दो कर्मचारियों को हिरासत में ले लिया गया था। होटल से जब्त मांस बीफ नहीं था, यह बात फोरेंसिक जांच में साबित होने के बावजूद उन्हें होटल की सील हटवाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा। एक झूठी अफवाह की वजह से उनके ढाई महीने बेहद तनाव में गुजरे। होटल बंद होने से जो नुकसान हुआ सो अलग। अफवाह पीड़ितों की यह फेहरिस्त काफी लंबी है। सामान्य लोगों से लेकर नामी हस्तियां आए दिन अफवाहों के निशाने पर रहती हैं।
सोशल मीडिया की सियासत
2004 में शुरू हुए फेसबुक, 2006 से सक्रिय ट्विटर और 2009 में बने वाट्सऐप ने सूचनाओं के लोकतंत्रीकरण की उम्मीदें जगाई थीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि परंपरागत मीडिया का वर्चस्व तोड़ने और हर व्यक्ति को अपनी बात कहने का मंच मुहैया कराने में सोशल मीडिया ने अहम भूमिका निभाई। लेकिन सूचनाओं के इस अनियंत्रित प्रवाह को अफवाहों की आंधी में तब्दील होने में एक दशक भी नहीं लगा। 2008 में जब बराक ओबामा अमेरिकी राष्ट्रपति चुने गए तो उनके फेसबुक प्रचार की रणनीति दुनिया भर के नेताओं के लिए अनुकरणीय मिसाल बन गई। महज आठ साल बाद ही डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव में इंटरनेट और सोशल मीडिया साजिश के हथियार के तौर पर संदेह की नजर से देखा जाने लगा। रूस पर इंटरनेट के जरिए अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव प्रभावित करने के आरोप लग रहे हैं।
हमारे देश में सोशल मीडिया का लोगों के मोबिलाइजेशन और राजनैतिक इस्तेमाल मोटे तौर पर अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान 2011-12 में शुरू हुआ। उस दौरान मैसेजों के जरिए जुटने की जानकारियां दी जाने लगीं। फिर, 2012 के दिसंबर में निर्भया कांड की चर्चित घटना के दौरान भी राजपथ पर नाराज युवाओं की भीड़ जुटने में फेसबुक, ट्विटर का इस्तेमाल काम आया था। लेकिन इसका बाकायदा राजनैतिक इस्तेमाल 2013 में नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय मंच पर अवतरण से शुरू होता है। उनके रणनीतिकारों ने उनकी छवि अपनी पार्टी और उसके बाहर के तमाम नेताओं से अलग बनाने के लिए सोशल मीडिया को औजार बनाया। उन्होंने इसके लिए एक खास टोली बनाई और उसने कथित तौर पर 30,000 से अधिक 'इंटरनेट सेवी’ लोगों का मंच तैयार किया। ये मोटे तौर पर नई अर्थव्यवस्था से अचानक समृद्धि हासिल करने वाले ज्यादातर 'टेक्नोसेवी’ युवा थे और एक बड़ा तबका कॉरपोरेट घरानों की बड़ी कंपनियों के पदों पर आसीन था। ये मोदी के पक्ष में हवा बनाने और मोदी विरोधियों को बेहद आक्रामक 'मैसेज’ भेजने को उतावले रहते थे। यहां तक कि ये मोदी को जून 2013 में भाजपा की चुनाव अभियान समिति की कमान सौंपने और बाद में सितंबर 2013 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने में सोशल मीडिया रणनीति की अहम भूमिका मानी जाती है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली शानदार जीत ने देश के छोटे-बड़े सभी नेताओं को सोशल मीडिया की ताकत का अहसास करा दिया। कांग्रेस समेत बाकी पार्टियां भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हुईं और अब इनके आईटी सेल के बीच होड़ मची रहती है।
बेलगाम हुआ मंच
फिर तो सियासी हितों के लिए सोशल मीडिया का मर्यादाहीन इस्तेमाल ऐसे बढ़ा कि इन पर न पार्टियों का काबू रहा, न सरकार का। सोशल मीडिया और अन्य संचार माध्यमों के जरिए अपुष्ट सूचनाओं का जो सैलाब राजनैतिक हितों को साधता रहा, अब वह सामाजिक ताने-बाने और कानून-व्यवस्था के लिए संकट पैदा कर रहा है। हाल में रमजान के दौरान फेसबुक पर मैसेज फैला कि अभिनेत्री कंगना रानौत ने अपील की है कि हिंदू अपनी छत पर लाउडस्पीकर लगाएं और अजान के समय हनुमान चालीसा बजाएं। जबकि वास्तव में कंगना रानौत ने ऐसा कोई बयान नहीं दिया था। लेकिन जब तक यह सच्चाई सामने आती 55 हजार लोग इस पोस्ट को लाइक और 27 हजार से ज्यादा लोग शेयर कर चुके थे। इतना ज्यादा शेयर होने की वजह यह भी थी कि इसे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के फैन पेज पर डाला गया था। जाहिर है, दुष्प्रचार करने वाले लोगों ने दो नामी हस्तियों के नाम और साख का इस्तेमाल समाज को सांप्रदायिकता की आग में झोंकने के लिए किया। ऐसे तमाम मामले हैं, जब दंगे भड़काने या सामाजिक द्वेष फैलाने के लिए फर्जी वीडियो या पोस्ट का सहारा लिया गया। इनके सामने पुलिस और प्रशासन इतना बेबस हो जाता है कि इंटरनेट बंद करने के अलावा कोई उपाय नहीं दिखता। कश्मीर से लेकर गुजरात और मंदसौर से लेकर सहारनपुर तक यही कामचलाऊ तरीका अपनाया गया।
अनस्मार्ट फोन
इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि इस साल भारत में इंटरनेट यूजर्स की तादाद 45-46 करोड़ के आसपास पहुंच जाएगी। देश की 30 फीसदी से ज्यादा आबादी इंटरनेट का इस्तेमाल कर रही है। जबकि ग्रामीण भारत में रहने वाले 75 करोड़ लोगों के हाथ में अभी इंटरनेट पहुंचना बाकी है। दुनिया भर में इंटरनेट की पहुंच बढ़ाने में स्मार्टफोन का बड़ा हाथ है। भारत में यह और तेजी से बढ़ रहा है। 2016 में दुनिया में स्मार्टफोन का बाजार तीन फीसदी बढ़ा लेकिन भारत में यह 18 फीसदी बढक़र 30 करोड़ के पार पहुंच चुका है। मोबाइल फोन उपभोक्ताओं की तादाद सौ करोड़ से ज्यादा है। इंटरनेट और मोबाइल की इस बढ़ती पहुंच ने सूचनाओं और अफवाहों के प्रसार को कई गुना तेज कर दिया है। हर दिन करीब सवा सौ करोड़ लोग फेसबुक पर आते हैं। हर मिनट ट्विटर पर करीब साढ़े चार लाख ट्वीट और फेसबुक पर करीब 33 लाख पोस्ट होते हैं। हर मिनट वाट्सऐप पर पोस्ट होने वाले संदेशों की संख्या तीन करोड़ के आसपास है। सूचना के इस सैलाब को देखते हुए 'फेक न्यूज’ और अफवाहों पर अंकुश के लिए फेसबुक, ट्विटर जैसे माध्यमों पर दबाव बढ़ा है।
फेक न्यूज का फरेब
फेसबुक ने 'फेक न्यूज’ की पहचान करने से लेकर इनकी शिकायतों के लिए नए टूल विकसित किए हैं। इसी तरह गूगल ने भी फर्जी खबरों को सर्च में दिखने से रोकने और ऐसी खबरें देने वाली वेबसाइटों को दंडित करना शुरू कर दिया है। इस साल गूगल ने एक फैक्ट चेक फीचर भी शुरू किया है, जो पुष्ट सूचनाओं को चिन्हित करेगा। लेकिन सोशल मीडिया से हर क्षण प्रसारित होने वाले कंटेंट के अंबार को देखते हुए हरेक सूचना की जांच करना किसी भी प्लेटफार्म के लिए बेहद कठिन है। साइबर मामलों के जानकार पवन दुग्गल कहते हैं, ''जिस पैमाने पर झूठ और अफवाहें फैलाने के लिए सोशल मीडिया माध्यमों का इस्तेमाल हो रहा है, उस पर अंकुश लगाने के लिए इन माध्यमों को तो पहल करनी ही होगी, साथ ही यूजर्स के बीच भी तथ्यों की परख की संस्कृति विकसित करनी जरूरी है।’
फर्जी अकाउंट की फैक्ट्रियां
फेसबुक ने 2014 में खुद माना था कि 5.5 से 11.2 फीसदी अकाउंट फर्जी या डुप्लीकेट हो सकते हैं। मोटा अनुमान यह है कि फेसबुक पर करीब 17 करोड़ फर्जी या डुप्लीकेट अकाउंट हैं। फेसबुक लाइक और ट्विटर फालोअर्स की खरीद-फरोख्त भी होती है। 'लाइक करो-पैसा बनाओ’ का लालच देकर ठगी के मामले भी सामने आए हैं। दरअसल, आपको कितने लोग फालो और लाइक करते हैं, आभासी दुनिया में रसूख और रुतबे की यह नई करंसी है। राज्यसभा टीवी में रिसर्च विभाग के प्रमुख प्रेम बहुखंडी कहते हैं, ''विभिन्न मीडिया स्रोतों से बार-बार जब एक ही बात सामने आती है तो सच का दर्जा हासिल कर लेती है। ऐसी सूचनाओं और इनके स्रोतों पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी से सोशल मीडिया कंपनियां खुद को मुक्त नहीं कर सकती हैं।’
भारतीय जन संचार संस्थान में एसोसिएट प्रोफेसर आनंद प्रधान कहते हैं, ''सूचनाओं के प्रवाह और संवाद के तरीके को सोशल मीडिया ने पूरी तरह बदल दिया है। हालांकि कोई माध्यम अपने आप में अच्छा या बुरा नहीं होता। यह बात सोशल मीडिया पर भी लागू होती है। सूचनाओं के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया में जैसे ही सोशल मीडिया ने अहम भूमिका निभानी शुरू की, धारणाओं को नियंत्रित करने वाले ताकतवर समूहों ने इस पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया।’ आज फैक्ट्रियों की तर्ज पर अफवाहों का उत्पादन होता है। लोग इन्हें सच मानकर अपने परिचितों में साझा करते हैं, जिससे इनकी विश्वसनीयता और भी बढ़ जाती है।
अफवाहों पर अंकुश कैसे
दुनिया भर में 'फेक न्यूज’ को लेकर चिंताएं जाहिर की जा रही हैं और फेसबुक, ट्विटर, वाट्सऐप जैसी सोशल मीडिया कंपनियों पर अफवाहों को रोकने का दबाव बढ़ रहा है। दुर्भाग्यवश, भारत में अभी यह मुद्दा नागरिक समाज की प्राथमिकताओं में नहीं आया है। प्रधान कहते हैं, ''सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने की अतिरिक्त शक्ति सरकारों को देने के बजाय समाज को सोशल मीडिया के इस्तेमाल और अफवाहों से बचने के लिए तैयार करना होगा। सोशल मीडिया पर आचरण संबंधी बातों को स्कूली पाठ्यक्रमों में भी शामिल करने की जरूरत है। मुख्यधारा के मीडिया पर फैक्ट-चेकिंग की जिम्मेदारी बढ़ गई है।’
फर्जी खबरों की पड़ताल से चर्चित हुई फैक्ट-चेक करने वाली वेबसाइट altnews.in के संचालक प्रतीक सिन्हा कहते हैं, ''फेक न्यूज के बिजनेस मॉडल को समझे बगैर इस पर अंकुश लगाना मुश्किल है। यह सिर्फ वैचारिक या राजनैतिक दुष्प्रचार का तरीका ही नहीं, बल्कि बिजनेस भी है। फर्जी खबरों के सहारे कई वेबसाइट अपना ट्रैफिक बढ़ा रही हैं, जिसका फायदा उन्हें ऑनलाइन विज्ञापनों के तौर पर मिलता है। कई ऑनलाइन विज्ञापन कंपनियां फेक न्यूज फैलाने वाले पोर्टल को बढ़ावा दे रही हैं। इसलिए जब तक इस बिजनेस मॉडल पर चोट नहीं होती, अफवाहों को रोकना मुश्किल है।
बहरहाल, अफवाहों और अपुष्ट सूचनाओं के आधार पर धारणाएं बनाने और नतीजे निकालने का मामला आज का नहीं है। जर्मनी में हिटलर के दौर में इसका डरावना राजनैतिक इस्तेमाल हो चुका है। अपने यहां भी वर्षों तक यह माना जाता रहा है कि ब्रिटिश पार्लियामेंट में लॉर्ड मैकाले ने दो फरवरी, 1835 को कहा था कि उसे पूरे भारत में कोई व्यक्ति भीख मांगता, चोरी करता नहीं दिखा। ऐसे देश को जीतने के लिए उसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को खंडित करना जरूरी है। इसके लिए नई शिक्षा प्रणाली और अंग्रेजी की पढ़ाई आवश्यक है। आखिरकार 2017 में आकर पता चला कि मैकाले 2 फरवरी, 1835 को कोलकाता में था और वहां भी उसने इस तरह का भाषण कभी नहीं दिया। लेकिन आज फर्क यह है कि अफवाहों को फैलाने के माध्यम बेलगाम हो गए हैं, और उसने डरावनी शक्ल अदा कर ली है।
सच की पड़ताल
फेक न्यूज के बढ़ते प्रकोप के साथ-साथ कई लोग और मीडिया समूह फैक्ट चेकिंग के काम में भी जुट गए हैं। भारत के प्रमुख फैक्ट चेकर्स पर एक नजर:
smhoaxslayer.com
संस्थापक: पंकज जैन, बिजनेसमैन, मुंबई
फेसबुक पेज से शुरुआत, सोशल मीडिया पर घृणा और झूठ फैलने वाले मैसेज की पड़ताल
altnews.com
संस्थापक: प्रतीक सिन्हा, सॉक्रटवेयर इंजीनियर, अहमदाबाद
'ट्रुथ ऑफ गुजरात’ फेसबुक पेज से शुरुआत करने वाले प्रतीक ने राजनीतिक प्रोपगंडा का खूब पर्दाफाश किया, उनकी वेबसाइट ने कम समय में पहचान बना ली।
factchecker.in
संस्थापक: गोविंदराज इतिराज, बिजनेस पत्रकार और संपादक, मुंबई
डेटा जर्नलिज्म से जुड़ी पहल, आर्थिक नीतियों और आंकड़ों की परख करने में माहिर
check4spam.com
संस्थापक: बाल कृष्ण बिरला और शक्वमास ओलियथ, बेव एक्सपर्ट, बेंगलूरू
वाट्स ऐप पर मिलने वाले फर्जी मैसेज की पड़ताल
boomlive.in
प्रबंध संपादक: जेंसी जैकब, पत्रकार, मुंबई
विचारों के बजाय तथ्यों पर केंद्रित वेबसाइट,
फैक्ट चेकिंग पर जोर, कई फर्जी खबरों का पर्दाफाश किया
newslaundry.com
संस्थापक: मधु त्रेहन, पत्रकार, नई दिल्ली
'सबकी धुलाई’ के नारे के साथ मीडिया की समीक्षा करने वाली वेबसाइट, मुख्यधारा और न्यू मीडिया की खबरों पर पैनी नजर
mediavigil.com
संस्थापक: पंकज श्रीवास्तव, पत्रकार, नई दिल्ली
मुख्यधारा की मीडिया के फर्जीवाड़े उजागर करने पर जोर, तथ्यों की पड़ताल पर फोकस
वायरल का वायरस
अमिताभ ठाकुर
पहले बीमारियां वायरल होती थीं, अब न्यूज, पोस्ट, वीडियो, ऑडियो वायरल होते हैं। पहले ये बातें सोशल मीडिया पर वायरल होती हैं और फिर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इन्हें चतुर्दिक प्रसारित करने का जिम्मा ले लेती हैं। देखते ही देखते एक नई शख्सियत या नई बात एंडी वारहोल के 1968 के मशहूर कहावत के सदृश 15 मिनट के लिए चर्चित हो जाती है। इस 15 मिनट के बाद किसी नई कहानी का समय आ जाता है और पुरानी कहानी, पढ़े जा चुके अखबार की तरह, रद्दी में बदल चुकी होती है पर इतनी ही देर में यह अपना काम कर जाती है और पहले से अस्थिर इस संसार को और अधिक अस्थिर करने की जिम्मेदारी निभाकर कहीं ओझल हो जाती है।
ऐसा नहीं है कि इन स्थितियों से निपटने के लिए हमारे देश में कानूनी हथियार नहीं हैं। 1861 में बने भारतीय दंड संहिता में अफवाह (मिथ्या प्रसार, जनश्रुति) के लिए धारा 505 में कठोर दंड का प्रावधान है, जिसमें सैन्य बलों, आम जनता, विभिन्न समूहों में मिथ्या प्रचार करने पर तीन वर्ष का कारागार तक की सजा है। धार्मिक स्थलों और धार्मिक मान्यताओं के बारे में दुष्प्रचार करने पर पांच वर्ष तक की सजा है। इसके अतिरिक्त संहिता की धारा 153, 153ए, 295 तथा 295ए में किसी भी प्रकार से देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा उत्पन्न करने, वैमनस्य पैदा करने, लोगों की विभिन्न संवेदनशील भावनाओं को भड़काने के बारे में भी दंड की व्यवस्था है। सूचना-प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 में 2008 में संशोधन करते हुए धारा 66ए में सूचना-प्रौद्योगिकी का आपराधिक प्रयोग किये जाने पर तीन वर्ष तक का दंड निर्धारित किया गया था लेकिन रसूखदार लोगों द्वारा इसका व्यापक दुरुपयोग होने की दशा में सुप्रीम कोर्ट ने श्रेया सिंघल केस में इसे असंवैधानिक घोषित कर दिया। इस अधिनियम की धारा 67एफ में साइबर आतंकवाद तथा 67, 67ए तथा 67बी में इंटरनेट के विभिन्न प्रकार के दुरुपयोग पर दंड की व्यवस्था है।
यानी मिथ्या प्रचार में साइबर जगत का भारी उपयोग हो रहा है, मगर उसके रोकथाम के तमाम कानूनी उपाय भी हैं। जरूरत है तो उन पर सही अमल की। यह भी सही है कि इसे किसी भी प्रकार के दुरुपयोग से बचा जाए क्योंकि एक गलत उपयोग कई गहरे निशान छोड़ देता है।
(लेखक भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हैं)