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अफवाहों के संगठित बाजार में बेदम पुराने कानून

भारत से तगड़ा मुनाफा कमाने वाली इंटरनेट कंपनियां पहल करें तो अफवाहों पर लग सकती है लगाम
सोशल मी‌ड‌िया

आईटी एक्ट 2000 की धारा 66-ए के तहत डिजिटल वल्र्ड में अफवाह, अवमानना, घृणा एवं द्वेषपूर्ण संवाद की आपराधिकता के कानूनी प्रावधान को सुप्रीम कोर्ट ने दो वर्ष पहले निरस्त कर दिया था। इसके बावजूद गलत सूचना के माध्यम से अफवाह फैलाकर ठगी, डर, घबराहट, विग्रह या द्वेष पैदा करना भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के विभिन्न प्रावधानों के तहत अभी भी अपराध है। विश्व में 234 करोड़ और भारत में 29 करोड़ लोग फेसबुक, वाट्सऐप और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया से जुड़ कर नेताओं और कंपनियों के लिए सबसे आकर्षक बाजार का हिस्सा बन गए हैं, जहां अफवाह सबसे ज्यादा चलने वाली करेंसी है। विश्व के सबसे बड़े बाजार के लिए कोई सर्वमान्य कानून या नियामक नहीं है, जिससे साइबर वल्र्ड संगठित झूठ के माध्यम से फेक न्यूज का समंदर बनता जा रहा है।

सोशल मीडिया से जुड़े लोगों को छह वर्गों में बांटा जा सकता है- यूजर्स, सोशल मीडिया कंपनियां, इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर यानी आईएसपी, सरकार, डेटा-विज्ञापन का असीम बाजार और इन सबसे प्रभावित होने वाली जनता। अफवाहों को संगठित गिरोहों द्वारा सोशल मीडिया के गुमनाम या फर्जी यूजर्स के माध्यम से फैलाया जाता है। भारतीय कानून के अनुसार किरायेदार के सत्यापन की जवाबदेही मकान मालिक की होने के साथ बैंक खाते समेत सभी जगह केवाईसी यानी ग्राहक को जानने के नियम का अनुपालन जरूरी है। दूसरी ओर ग्राहकों के सत्यापन के लिए सोशल मीडिया कंपनियों के अपने बनाए नियमों का पालन नहीं होता, जिस कारण 30 फीसदी से अधिक फर्जी या गुमनाम यूजर्स साइबर जगत को दागदार कर रहे हैं।

अफवाहों और फर्जी अकाउंटों के दम पर सोशल मीडिया कंपनियां कई लाख करोड़ रुपये का कारोबार कर रही हैं पर उसका खामियाजा जनता और पुलिस को भुगतना पड़ता है। आईटी इंटरमीडियरी रूल्स 2011 के तहत आईएसपी को इंटरमीडियरी का कानूनी दर्जा मिला है, जिसके तहत दिल्ली हाईकोर्ट ने 2013 में सरकार को आदेश दिया था कि वह सभी इंटरनेट कंपनियों में शिकायत अधिकारी की नियुक्ति तय करे। इन कंपनियों के नियमों में आपत्तिजनक कंटेंट विधिवत परिभाषित हैं जिसे भारतीय कानून के तहत 36 घंटे में हटाने का प्रावधान है पर इंटरनेट की आजादी के नाम पर इन नियमों का सही अर्थों में आज तक पालन नहीं हुआ। फेसबुक या ट्विटर में फर्जी अकाउंट खोलना बहुत सरल है पर उन्हें बंद कराना पेचीदा काम है, जिसके लिए लोग पुलिस और साइबर सेल के बेवजह चक्कर काटते रहते हैं। दूसरी ओर सरकार या रसूखदारों के आपात्तिजनक कंटेंट को वाट्सऐप ग्रुप में शेयर करने जैसे मामूली मामलों में, पुलिस द्वारा राजद्रोह के सख्त कानून के इस्तेमाल में भी परहेज नहीं होता।

इंटरनेट देश की सीमाओं से मुक्त होने की वजह से सोशल मीडिया को कानून के दायरे में लाना मुश्किल है, उसके बावजूद चीन जैसे देशों ने इसके नियमन के लिए सख्त कानून बना रखे हैं। भारत के चुनावों में सोशल मीडिया के इस्तेमाल को रोकने के लिए चुनाव आयोग के अक्टूबर 2013 में जारी आचार संहिता का सही अनुपालन नहीं होने से, नेताओं द्वारा अफवाह फैला कर वोटों के ध्रुवीकरण का खेल धड़ल्ले से बढ़ता जा रहा है।

दूसरी ओर अशांति या दंगे की स्थिति में राज्सभा द्वारा इंटरनेट को गैर-कानूनी तरीके से बंद करने की तरकीब से सेंसरशिप के नए आयाम भी सामने आ रहे हैं। प्राइवेसी के नाम पर निर्बाध स्वतंत्रता हासिल करने वाली इंटरनेट कंपनियां आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के इस्तेमाल से सूचनाओं को प्रसारित या बाधित करने का खेल करने लगी हैं, जिसके खिलाफ कानून बनाने के लिए सरकारों के पास समझ और इच्छाशक्ति दोनों का अभाव है। फेसबुक अगर आतंकियों और जेहादियों के प्रचार तंत्र को भेदने के लिए हजारों मॉडरेटर्स की नियुक्ति कर सकती है तो फिर अफवाह के संगठित तंत्र को रोकने के लिए भी व्यवस्थित प्रयास क्यों नहीं किए जाते? दागी व्यक्ति को किरायेदार रखने पर मकान मालिक दोषी है तो फिर फेसबुक और ट्विटर में गुमनाम लोगों के माध्यम से अफवाह और दंगे फैलाने वालों के खिलाफ उपलब्ध कानून के तहत कारवाई क्यों नहीं हो सकती?

सोशल मीडिया में अधिकृत संपादक नहीं होते और अफवाह फैलाने वाले गुमनाम हैं तो फिर इसके नियमन का अधिकार प्रेस परिषद को मिल भी जाए तो कारवाई किनके खिलाफ होगी? भारतीय बाजार से तगड़ा मुनाफा कमाने वाली इंटरनेट कंपनियां भारत में अपने ऑफिस की शुरुआत करें तो 'मेक इन इंडिया’ को सही मायने में सफल बनाने के साथ अफवाहों के बाजार में प्रभावी लगाम लग सकती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत सोशल मीडिया द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी का हक हासिल करने के लिए यूजर्स और मीडिया कंपनियों को जवाबदेही के आत्मनियमन का पालन तय करना ही होगा, वरना अनुच्छेद 21 के तहत लोगों के सम्मानपूर्वक जीने का हक कहीं बेमानी ही न हो जाए?

(लेखक साइबर लॉ एक्सपर्ट हैं)

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