प्रधानमंत्री के प्रिय स्वच्छता अभियान में मानो देश की राजधानी ही फच्चर फंसाने में जुटी हुई है। हाल में नगर निगम चुनावों में दिल्ली के लोगों ने शायद भाजपा को लगातार तीसरा कार्यकाल इसी उम्मीद में दिया हो कि केंद्र भाजपा सरकार और राज्य की अरविंद केजरीवाल सरकार के टकराव में फंसी शहर की साफ-सफाई के हालात कुछ बेहतर हो जाएंगे। लेकिन, अब आलम यह है कि दिल्ली हाईकोर्ट को दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) को फटकार लगानी पड़ी है। सफाईकर्मियों के वेतन का मामला भी हल नहीं हुआ है और वे गाहे-बगाहे हड़ताल पर रहते हैं। निगम के सफाई को लेकर अपने दावे हैं लेकिन सभी हवाई साबित हुए हैं।
इन्हीं हालात से हाईकोर्ट ने निगम को फटकार लगाई और चेतावनी दी कि अगर मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों पर रोक के लिए कदम नहीं उठाए जाते हैं तो निगम के खिलाफ अवमानना नोटिस जारी किया जाएगा। कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल और न्यायमूर्ति सी. हरिशंकर की पीठ ने मीडिया रिपोर्ट पर संज्ञान लेकर यह नोटिस जारी किया। अदालत ने सफाई पर सरकार और निगम के हलफनामे पर कहा कि आप झूठी रिपोर्ट पेश नहीं कर सकते।
यह सही है कि निगम के कागजों और सड़क की हकीकत एकदम उलट है। राजधानी में यह समस्या आज पैदा हो गई है, ऐसा नहीं है। एमसीडी के चुनावों में भाजपा ने कूड़ा मुक्त दिल्ली का वादा भी किया था लेकिन सब कुछ हवा-हवाई ही दिखता है।
हकीकत जानने के लिए दिल्ली विधानसभा की याचिका समिति के अध्यक्ष सौरभ भारद्वाज ने जब मौके पर जाकर पीडब्ल्यूडी और निगम के नालों का जायजा लिया तो चौंकाने वाली बात सामने आई। नालों से कई साल से कूड़ा और गाद नहीं निकाली गई थी, जबकि पीडब्ल्यूडी ने 65 फीसदी और निगम ने कागजों पर सौ फीसदी सफाई का दावा किया था। समिति के अध्यक्ष ने अपनी रिपोर्ट में इसका खुलासा भी किया है जिसमें साफ तौर पर कहा गया है कि एजेंसियां सफाई केवल कागजों पर कर रही हैं जबकि सालों से नालों की सफाई नहीं हुई है।
दिल्ली में सफाई का मुद्दा पहली बार सामने नहीं आया है। बरसात में दिल्ली के बेहाल होने व सफाई की समस्या पर एजेंसियां आरोप-प्रत्यारोप के जरिए पल्ला झाड़ने में लगी रहती हैं। असल में दिल्ली में करीब 17 एजेंसियां हैं जो किसी न किसी तरह से सड़कों, नालियों के रखरखाव और कूड़ा वगैरह उठाने के लिए जिम्मेदार हैं। इसमें करीब 98 फीसदी दिल्ली की जिम्मेदारी तीनों निगमों की है लेकिन राष्ट्रीय राजमार्ग उसके तहत नहीं आता। दिल्ली की साठ फुट चौड़ी सड़कों का काम पीडब्ल्यूडी के पास है तो अनधिकृत कालोनियों और झुग्गी बस्तियों का काम दिल्ली अर्बन शेल्टर इंप्रूवमेंट बोर्ड देखता है। एनडीएमसी, दिल्ली कैंट और सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण विभाग भी अलग से है।
इस पेचीदगी का खामियाजा दिल्लीवासियों को भुगतना पड़ता है। इस पर पूर्वी दिल्ली नगर निगम स्थायी समिति की सदस्य, भाजपा की कंचन माहेश्वरी कहती हैं, ''असल में सफाई कर्मचारियों की हड़ताल की मुख्य वजह दिल्ली सरकार से बकाया बजट न मिलना ही रही है जिसे जल्द दूर कर लिया जाएगा।’ वहीं एमसीडी सुरक्षा कर्मचारी यूनियन शाहदरा दक्षिण के अध्यक्ष जोगेंद्र बोहत का कहना है, ''हमने छठी बार हड़ताल की है लेकिन हमारी मांगें सुनने वाला कोई नहीं है। सरकार कहती है कि पहले हमें चुनाव में जिताओ तभी हम पैसा देंगे। हमें झाड़ू, खोपली, ग्लब्स, जूते, फावड़ा, तेल, साबुन जैसे बहुत जरूरी सामान भी नहीं मिल पाते हैं।’
तीनों निगमों के बजट पर गौर करें तो उत्तरी नगर निगम का 7,200 करोड़ रुपये, दक्षिणी का 4,200 करोड़ और पूर्वी दिल्ली का 3,600 करोड़ रुपये का है। तीनों निगमों में कुल एक लाख 60 हजार कर्मचारी हैं और इसमें सफाई कर्मचारियों की संख्या 60 हजार है। विकास कार्यों के लिए एक पार्षद को सालाना करीब दो करोड़ रुपये का फंड भी मिलता है। अदालत निकायों पर समय-समय पर फटकार लगाती रही है लेकिन देखने वाली बात है कि इसका कितना असर हो पाया है। सवाल है कि कूड़े के निस्तारण की जबावदेही जिस पर है, आखिर उसे कितनी फिक्र है। इसके साथ ही दिल्ली में अधिकार व कर्तव्य का हिसाब थोड़ा उलझा हुआ है। नगर निगमों पर भाजपा काबिज है। सरकार आप की है लेकिन प्रशासनिक मुखिया मुख्यमंत्री नहीं बल्कि उपराज्यपाल हैं। जो केंद्रीय गृह मंत्रालय के निर्देश से चलते हैं। ऐसे में जबावदेही की गेंद एक-दूसरे के पाले में डालने का खेल चलता रहता है। इसका स्थायी समाधान कैसे हो पाएगा, कहना मुश्किल ही है।