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बेदम वादों की कड़वाहट

गन्ने की नकद फसल पर चीनी मिलों की बदहाली भारी
चीनी मिलों में गन्ना तो पहुंच रहा है पर किसानों को समय पर नहीं हो रहा भुगतान

मंदसौर के किसान संघर्ष की खूब चर्चा हुई लेकिन, अप्रैल के दूसरे सप्ताह में मोतिहारी चीनी मिल के आत्मदाह करने वाले दो मजदूर नरेश श्रीवास्तव और सूरज बैठा का मामला सीबीआई जांच की सिफारिश के साथ ठंडे बस्ते में चला गया। यह चीनी मिल बंद है और मजदूरों के साथ किसानों का भी इसपर भारी बकाया है। दोनों मजदूर बकाए की मांग कर रहे थे। जद्दोजहद के बाद भी भुगतान नहीं हुआ तो उन्होंने आत्मघाती कदम उठाया। कुछ दिनों तक राजनीतिक बयानबाजी हुई और फिर राज्य सरकार मामले की जांच का जिम्मा सीबीआई को दे कर शांत हो गई। जाहिर है, जल्द ही लोग भूल जाएंगे कि बंद चीनी मिल के चलते दो जानें गई थीं।

असल में बिहार में गन्ना किसानों और मजदूरों की साझी त्रासदी है। मिलों के बंद होने के चलते फसल से मोटी नकदी हासिल करने का इकलौता जरिया खत्म हो गया है। यह आंकड़ा अपने आप खौफ पैदा करता है कि 29 में से 18 चीनी मिलें एक-एक कर बंद होती चली गईं। बंद होने वाली ज्यादा मिलें सरकारी क्षेत्र की हैं। 2005 में सरकार बनाने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बंद मिलों को चालू करने का ऐलान किया तो किसान उम्मीदों में जीने लगे। मगर, 12 साल बाद भी हालत में खास सुधार नहीं हुआ। ले-देकर दो चीनी मिलें हिंदुस्तान पेट्रोलियम को सौंपी गईं, जिनसे किसानों को मामूली राहत मिली।

इधर, राज्य सरकार ने आठ मिलों को फिर से चालू करने के लिए टेंडर जारी किया है। सरकार गंभीर है। अगर सबकुछ ठीक रहा तो चीजें फिर रास्ते पर आ सकती हैं। सरकार की मंशा बंद मिलों को खोलने की तो है, लेकिन, इस मद में खर्च करने के लिए उसके पास धन की बेहद कमी है। ये मिलें हथुआ, वारसलीगंज, बनमनखी, गोरौल, गुरारू, सीवान और लोहट में हैं। इस सूची में सीवान की दो चीनी मिलें हैं। गन्ना मंत्री फिरोज अहमद का दावा है कि जल्द ही इन मिलों में उत्पादन शुरू हो जाएगा। वैसे, सरकार कुछ भी दावा करे, हकीकत यह है कि इन आठ मिलों को चालू करने के लिए 15 बार टेंडर जारी हो चुका है। सरकार और कंपनियों के बीच शर्तों को लेकर एक राय नहीं बन पाती है। मामला टलता जा रहा है। बस, एक टेंडर की मियाद खत्म होने के बाद दूसरा जारी कर दिया जाता है। ताकि किसानों को यह अहसास होता रहे कि सरकार चुपचाप नहीं बैठी हुई है। इधर, चालू चीनी मिलें भी कम संकट में नहीं हैं। 11 में से सिर्फ तीन मिलों से किसानों को गन्ने की कीमत का भुगतान समय पर हो पाता है। संकट उन मिलों के सामने अधिक गंभीर है, जो एक सीजन का भुगतान दूसरे या तीसरे सीजन में करती हैं। चंपारण और सीतामढ़ी जिले के ढेर सारे किसान तुरंत भुगतान की आस में नेपाल की चीनी मिलों तक अपना गन्ना पहुंचा देते हैं। सीवान और गोपालगंज के सीमावर्ती किसान यूपी का रुख करते हैं। किसानों की भी मजबूरी है। वे बैंक या साहूकार से कर्ज लेकर खेती करते हैं। समय पर कर्ज चुकता न करें तो सूद की रकम बढ़ जाती है। वजह कुछ भी हो, इतना तो तय है कि अगर यह प्रवृत्त‌ि बंद नहीं हुई तो कुछ और मिलों पर ताला लग जाएगा। अच्छी बात यह है कि चीनी मिल प्रबंधन भी जल्द से जल्द बकाए की भुगतान की कोशिश कर रहा है।

किसानों की परेशानी दूसरे मोर्चे पर भी है। उनकी शिकायत है कि केंद्र और राज्य सरकार की पहल के बावजूद उन्हें लागत के हिसाब से भाव नहीं मिलता है। गन्ना काश्तकार संघ के महासचिव नागेंद्र सिंह हिसाब लगाकर बताते हैं कि किसानों को अगर 590 रुपये प्रति क्व‌िंटल की दर से भुगतान मिले, उसी हालत में गन्ने की खेती लाभदायक हो पाएगी। इस समय राज्य सरकार ने गन्ने की तीन किस्में अगेती, सामान्य और रिजेक्टेड के लिए दाम 300 रुपये, 280 रुपये और 260 रुपये प्रति क्व‌िंटल रखा है। यह रकम इतनी कम है कि किसान अपनी मजदूरी छोड़ दें तब भी लागत मूल्य नहीं निकल पाता है। राज्य की मिलों में सालाना औसतन पांच से छह लाख टन चीनी का उत्पादन होता है। यह देश के कुल चीनी उत्पादन का दो फीसदी है। चीनी उद्योग की बदहाली का यह बड़ा प्रमाण है। 60 के दशक में चीनी उत्पादन में बिहार की भागीदारी 20 फीसदी थी। विडंबना यह है कि अब यह घट कर दो फीसदी पर पहुंच गई है। यह काफी चिंताजनक है।

 

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