गायक मुकेश को पहला मौका देने वाले और लता मंगेशकर के मेंटर, महान संगीतकार अनिल बिस्वास का दो साल पहले जन्मशती वर्ष था। तत्कालीन सूचना-प्रसारण मंत्री अरुण जेटली से संवाददाता सम्मेलन में पूछा गया, ''अनिल बिस्वास की जन्मशती मनाने के लिए सरकार क्या कर रही है?’’ उन्होंने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। इसी तरह मकबूल फिदा हुसेन की जन्मशती मनाने के बारे में संस्कृति मंत्री महेश चंद्र शर्मा से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इस संबंध में उन्हें कोई प्रस्ताव नहीं मिला है। प्रस्ताव आएगा तो उस पर विचार करेंगे। हो सकता है, हुसेन की सरस्वती पर वर्षों पहले बनाई गई नग्न तस्वीर को लेकर भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार को आपत्ति रही होगी। अनिल बिस्वास क्रांतिकारी थे और नजरुल इस्लाम के शिष्य भी। आजादी की लड़ाई में गिरफ्तारी से बचने के लिए वे कोलकाता से मुंबई आए और फिर फिल्मी दुनिया में रम गए। मौजूदा सरकार को शायद ऐसे क्रांतिकारियों में दिलचस्पी नहीं है।
एनडीए की पहली सरकार के दौरान भी ऐसा ही कुछ हुआ था। हिंदी के प्रख्यात लेखक और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक रामबृक्ष बेनीपुरी की जन्मशती मनाने के लिए तीन-तीन पूर्व प्रधानमंत्रियों ने पत्र लिखे लेकिन तत्कालीन संस्कृति मंत्री अनंत कुमार ने राष्ट्रीय स्तर पर उनकी जन्मशती मनाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया। जबकि बेनीपुरी जी आजादी की लड़ाई में छह बार जेल गए थे। आजादी की लड़ाई में चार बार जेल जाने वाले महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन और हिंदी भूषण आचार्य शिवपूजन सहाय की 125वीं जयंती राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का एक प्रस्ताव करीब दो महीने से विचाराधीन है। संस्कृति मंत्रालय और साहित्य अकादेमी ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन भी किया है और देश के सत्तर लेखकों तथा कई केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों ने सरकार को पत्र लिखे हैं। देखना है कि सरकार एक वामपंथी और एक गांधीवादी लेखक की 125वीं जयंती राष्ट्रीय स्तर पर मनाती है या नहीं।
केंद्र में जब कोई सरकार आती है तो अपने खेमे के महापुरुषों की जन्मशती जोर-शोर से मनाती है और उसके जरिए वोट बैंक मजबूत करती है। कांग्रेस ने जिस तरह जवाहरलाल नेहरू और मोतीलाल नेहरू की 124वीं तथा 150वीं जयंती के लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय समिति गठित की उस तरह देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र बाबू के लिए कोई समिति गठित नहीं की। वहीं, आंबेडकर की 125वीं जयंती मनाने के लिए न सिर्फ एक राष्ट्रीय समिति गठित की गई, बल्कि मंत्रिमंडल में बाकायदा फैसला भी हुआ। जबकि भाजपा आंबेडकर का विरोध करती रही थी। इसी क्रम में राममनोहर लोहिया भी हैं, लेकिन उनकी जन्मशती मनाने में किसी सरकार को रुचि नहीं है। संस्कृति मंत्रालय लोहिया रचनावली की मात्र 26 प्रतियां खरीदता है जबकि जन्मशती वर्ष में प्रकाशित पंडित दीनदयाल उपाध्याय की किताबों की खरीद करोड़ों रुपये में की जा रही है।
क्या संभव है कि हमारे देश में टैगोर के नाम पर कोई शिक्षा योजना, गालिब के नाम पर कोई सरकारी कार्यक्रम चलाए जाएं। शायद यह संभव नहीं, क्योंकि सत्ता में बैठे नेताओं और नौकरशाहों में ऐसी संवेदनशीलता नहीं होती। अगर होती तो बचपन में जिस फिराक गोरखपुरी की गोद में इंदिरा गांधी खेलती थीं, उनकी पार्टी की मनमोहन सिंह सरकार फिराक साहब की जन्मशती राष्ट्रीय स्तर पर मनाती। अर्जुन सिंह जब मानव संसाधन विकास मंत्री थे और अशोक वाजपेयी उनके मातहत संयुक्त सचिव थे, तब राहुल जी और बनारसी दास चतुर्वेदी की जन्मशती के लिए एक समिति गठित हुई थी। लेकिन शिवपूजन सहाय के लिए ऐसा नहीं हुआ। अशोक वाजपेयी को शायद पता न हो कि बनारसी दास चतुर्वेदी खुद एक पत्र में स्वीकार चुके थे कि शिवपूजन सहाय का योगदान उनसे अधिक है। राहुल जी ने तो शिवपूजन सहाय पर एक अभिनंदन ग्रंथ निकालने की योजना भी बनाई थी।
खैर, जब प्रेमचंद की जन्मशती मनाने के लिए जैनेन्द्र कुमार को खुद पहल करनी पड़ी थी तो क्या कहा जाए! इंदिरा गांधी को भी यह महसूस नहीं हुआ कि उनकी सरकार को खुद यह पहल करनी चाहिए थी। निराला और दिनकर की जन्मशती पर भी केंद्र सरकारों ने कोई राष्ट्रीय समिति गठित नहीं की। वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे और उनके हस्तक्षेप के बाद भी संस्कृति मंत्रालय ने दिलचस्पी नहीं ली, जबकि उस वक्त मुरलीमनोहर जोशी मंत्री थे। काजी नजरुल इस्लाम की जन्मशती मनाने के लिए वाजपेयी जी की अध्यक्षता में एक समिति गठित हुई थी, क्योंकि ममता बनर्जी ने इसमें दिलचस्पी दिखाई थी। बिहार और उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्रियों की लेखकों, कलाकारों में ऐसी दिलचस्पी कहां? अगर होती तो प्रेमचंद के गांव लमही का विकास वर्षों पहले हो गया होता। बिहार में जयप्रकाश नारायण ने कर्पूरी ठाकुर को पत्र लिखकर कहा था कि शिवपूजन सहाय की स्मृति में साहित्य संबंधी शोध संग्रहालय बने, जो आज तक नहीं बन पाया है। अब तो जयशंकर प्रसाद और गणेश शंकर विद्यार्थी की 125वीं जयंती आ कर गुजर जाती है और साहित्य अकादेमी ही नहीं, हिंदी समाज को भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अज्ञेय की जन्मशती वर्ष में सौ कार्यक्रम होते हैं। इतने तो प्रेमचंद की 125वीं जयंती में भी नहीं हुए। दरअसल, अज्ञेय के पीछे एक साहित्यिक वर्ग सक्रिय था लेकिन भगवतीचरण वर्मा और इलाचंद्र जोशी के पीछे ऐसा वर्ग नहीं था। यशपाल और केदारनाथ अग्रवाल के पीछे वामपंथियों का एक वर्ग था।
सरकार ही नहीं, लेखक संगठनों के भी अपने-अपने लेखक हैं और वे उसी हिसाब से दिलचस्पी लेते हैं। साहित्य अकादेमी को पहल करनी चाहिए लेकिन योग और स्वच्छता अभियान में उसकी अधिक दिलचस्पी हो गई है। देश की आजादी की लड़ाई में लेखक और नेता भले कंधे से कंधा मिलाकर साथ लड़े थे लेकिन आजादी के बाद विचारधारा और उपयोगिता से सब संचालित होने लगा। शायद यही कारण है कि आचार्य नरेन्द्र देव या राधाकृष्णन की जन्मशती अलक्षित गुजर जाती है। जिस तरह कुछ लोगों की छवि निर्मित की जा रही है, कुछ की खराब की जा रही है, उससे नई पीढ़ी वास्तविक इतिहास से अपरिचित रहे तो आश्चर्य नहीं। यह वर्ष गजानन माधव मुक्तिबोध, त्रिलोचन के साथ भारत रत्न से विभूषित महान गायिका एमएस सुब्बलक्ष्मी का भी जन्मशताब्दी वर्ष है। उनके योगदान से उत्तर भारत और दक्षिण भारत के लोगों को परिचित कराने का कोई प्रयास होगा, यह देखना बाकी है।
(लेखक कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं)