आज से तेरह-चौदह साल पहले मेरी मुलाकात पाकिस्तान के सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल नसीर अख्तर से हुई। वे दिल्ली आए हुए थे। बातचीत के दौरान मैंने उनसे पूछा कि उनकी राय में पाकिस्तान और भारत के बीच बुनियादी फर्क क्या है? उन्होंने जो जवाब दिया वह नितांत अनपेक्षित था। जनरल नसीर अख्तर ने कहा, 'बुनियादी फर्क यह है कि आपने अपने मुल्क में संस्थाएं बनाई हैं, जबकि हम पाकिस्तान में ऐसा नहीं कर पाए हैं। और आप ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि आपको 17 साल तक जवाहरलाल नेहरू जैसे महान नेता का नेतृत्व मिला जबकि हमारे यहां कायदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना और प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की पाकिस्तान बनने के कुछ समय के भीतर ही मृत्यु हो गई।’
जनरल अख्तर की यह बात मुझे इन दिनों बार-बार याद आती है क्योंकि साहित्य, संगीत और कला की अकादेमियां, इंजीनियरिंग और तकनीकी के अनेक विश्वविद्यालय एवं आईआईटी जैसे संस्थान, आईआईएम, सीएसआईआर और एम्स जैसे देश भर में फैले सैकड़ों उच्चस्तरीय संस्थान संस्कृति और विज्ञान में जवाहरलाल नेहरू की गहरी दिलचस्पी और भारत के बहुआयामी विकास के उनके विराट विजन के कारण ही खोले गए। व्यक्तियों की तरह ही संस्थानों की भी स्मृति होती है जो उसी तरह उनकी वर्तमान एवं भावी गतिविधियों पर असर डालती है जिस तरह हमारा अतीत हमारे वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करता है। लेकिन इसके लिए स्मृति का लगातार पुनर्नवीकरण करते रहना बेहद आवश्यक है वरना हमारे अतीत का बहुत-सा मूल्यवान हिस्सा विस्मृति की खाइयों में गिरकर नष्ट हो जाता है।
प्रदर्शनकारी कलाओं के क्षेत्र में भारत की हजारों साल से अनवरत चली आ रही अत्यधिक समृद्ध एवं वैविध्यपूर्ण परंपरा है। इस अक्षुण्ण परंपरा के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए 28 जनवरी, 1953 को देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने संगीत नाटक अकादेमी का उद्घाटन किया। अपनी तरह की यह पहली राष्ट्रीय अकादेमी थी जिसके शुरू होने के कुछ ही वर्षों के भीतर साहित्य अकादेमी और ललित कला अकादेमी की स्थापना भी की गई। 30 मार्च, 1958 को शास्त्रीय और पारंपरिक लोक नृत्यों पर केंद्रित एक आठ-दिवसीय अखिल भारतीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें उस समय के लगभग सभी दिग्गज कलाकारों एवं कला-मनीषियों ने भाग लिया। इनमें टी. बालासरस्वती, रुक्मिणी देवी अरुंडेल, कमला देवी चट्टोपाध्याय, शंभु महाराज, लच्छू महाराज, युवा बिरजू महाराज, के. शिवराम कारंत, निकोलाई रोरिक और उनकी पत्नी देविका रानी, मृणालिनी साराभाई, गुरु कुंजु कुरूप, गुरु गोपीनाथ, श्रीमती टैगोर, वी. राघवन, जी. वेंकटचलम, हरि उप्पल, मोहन उप्रेती, गुरु अमुबी सिंह, नयना झावेरी, संजुक्ता पाणिग्रही (तब मिश्रा), कालीचरण पटनायक, मोहन खोकर, चार्ल्स फाबरी, कपिला वात्स्यायन और मुल्कराज आनंद शामिल थे। उस समय पी. वी. राजामन्नार अकादेमी के अध्यक्ष थे और निर्मला जोशी सचिव।
चार्टर्ड एकाउंटेंसी का कोर्स करने वाला एक चौबीस वर्षीय युवक, जिसकी नृत्य में गहरी रुचि जाग चुकी थी, भी इस संगोष्ठी में शामिल हुआ। युवक का नाम था सुनील कोठारी। इन्होंने चार्टर्ड एकाउंटेंट के अच्छे-खासे कॅरिअर को लात मार कर नृत्य में पीएच. डी. की और कालांतर में देश के जाने-माने नृत्य इतिहासकार, विद्वान एवं समीक्षक बने। नृत्य में इनके योगदान के लिए इन्हें सन 1995 में संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार और 2001 में पद्मश्री से अलंकृत किया गया। हाल ही में इन्हें संगीत नाटक अकादेमी के सर्वोच्च सम्मान अकादेमी रत्न से विभूषित किया गया है। इसके पहले अकादेमी ने एक सूझबूझ का काम यह किया कि इन्हें सन 1958 में हुई इस संगोष्ठी में प्रस्तुत किए गए शोध पत्रों और व्याख्यानों को अकादेमी की पत्रिका 'संगीत नाटक’ के दो विशेषांकों के रूप में संपादित करने का दायित्व सौंपा। सुनील कोठारी के अथक श्रम से किए गए इस महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कार्य का सुफल हाल ही में प्रकाशित होकर हमारे सामने आया है। अपने इतिहास के एक गौरवपूर्ण अध्याय की स्मृति को संजोकर रखने और नृत्य प्रेमियों को सुलभ कराने के लिए अकादेमी और सुनील कोठारी बधाई के पात्र हैं। इन विशेषांकों को पढ़कर पता चलता है कि संगोष्ठी के दौरान बाला सरस्वती और शंभु महाराज जैसे अनेक शीर्षस्थ कलाकारों तथा प्रसिद्ध नृत्य मंडलियों ने अपनी प्रस्तुतियां भी पेश की थीं और उनके माध्यम से अपनी कला के सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पक्षों को उजागर किया था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मन में कलाओं और कलाकारों के प्रति कितनी गहरी निष्ठा और सम्मान था इसका पता इसी बात से चल जाता है कि अपनी व्यस्तता के बावजूद उन्होंने सभी कलाकारों को तीन मूर्ति भवन में रात्रिभोज पर आमंत्रित किया था।
लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि संगीत नाटक अकादेमी अपनी उन अमूल्य किताबों को पुन: प्रकाशित क्यों नहीं करती जो अब अप्राप्य हो चुकी हैं? दुख की बात तो यह है कि अकादेमी स्वयं भी उन्हें भूल चुकी है। सन 1959 में उसने आगरा घराने के सुविख्यात गायक उस्ताद विलायत खां की पुस्तक 'संगीतज्ञों के संस्मरण’ प्रकाशित की थी। अब अकादेमी के प्रकाशनों की सूची में भी इस अमूल्य पुस्तक का नाम नहीं मिलता जबकि उसे बार-बार इसे पुनर्प्रकाशित करते रहना चाहिए था। इसी तरह नयना रिपजीत सिंह, जिन्हें संगीत जगत नैना देवी के नाम से जानता है, द्वारा अंग्रेजी में लिखित और सन 1964 में प्रकाशित 'मुश्ताक हुसैन खां’ और विनयचन्द्र मौद्गल्य द्वारा हिंदी में लिखित और सन 1966 में प्रकाशित 'ओंकारनाथ ठाकुर’ जैसी पुस्तकों का भी पुनर्प्रकाशन बेहद जरूरी है। चूंकि अकादेमी अब अपनी सांस्थानिक स्मृति के संरक्षण के प्रति सजग हो रही है, इसलिए यह अपेक्षा करना अनुचित न होगा कि वह न केवल इन पुस्तकों को बल्कि अपने संग्रहालय की दुर्लभ रिकॉर्डिंग्स को भी जनसामान्य के लिए उपलब्ध कराएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)