पाकीजा की अपार सफलता इस फिल्म के संगीतकार गुलाम मुहम्मद देख न सके। 18 मार्च, 1968 को उन्होंने दुनिया छोड़ दी और पाकीजा इसके चार वर्ष बाद रिलीज हुई। पाकीजा का संगीत देते समय उनकी माली हालत अच्छी नहीं थी और वह हृदयरोग से ग्रस्त थे। इस बीमारी का इलाज तो दूर, उनके पास इतने पैसे भी नहीं थे कि वह ईद धूमधाम से मना सकें। विपन्नता ने उन्हें सुदूर बोरीवली रहने को मजबूर कर दिया था। पाकीजा ने गुलाम मुहम्मद का नाम सबकी जुबान पर ला दिया। पाकीजा में विशिष्ट और लोकप्रियता का वह दोहरा मुकाम गुलाम मुहम्मद ने पा लिया था जो हर संगीतकार का सपना होता है। इस फिल्म का हर गीत, संगीत की दुनिया का एक अध्याय हो सकता है। मुजरे को इतनी पाकीजगी और दिलकश अंदाज में इससे पहले फिल्म संगीत में पेश नहीं किया गया था। यमन पर आधारित 'इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा’ में लता की खनक और कहरवा चार मात्रा में तबले की गमक का द्वय अपने चरम पर था।
मांड की अपनी परिचित राजस्थानी शैली में कंपोज किए गए 'ठारे रहियो ओ बांके यार’ में स्वर की तड़प की खींचने वाली अनुगूंज थी। यमन कल्याण और भूपाली का सम्मिश्रण लिए 'चलते-चलते, यूं ही कोई मिल गया था’ में पार्श्वसंगीत और आवाज की अप्रतिम जादूगरी का बेमिसाल सम्मिश्रण था तो 'आज हम अपनी निगाहों का असर देखेंगे’ में रात का आतंक और प्यार की आजमाइश दोनों को गुलाम मुहम्मद के संगीत ने लता की आवाज में मूर्त कर दिया था। इन चारों धुनों के सामने 'मौसम है आशिकाना’ साधारण धुन लगने लगती है क्योंकि पाकीजा का संगीत था ही इतना विराट। पाकीजा के थीम संगीत के लिए गायक भूपेन्द्र ने बारह तंतु गिटार को सरोद की तरह बजाया था, यह तथ्य कम रोचक नहीं है। पाकीजा के दो गानों को बीमार होने के कारण गुलाम मुहम्मद के आग्रह पर नौशाद ने रेकॉर्ड किया था। इसलिए 'चलते-चलते’ में नौशाद का प्रभाव परिलक्षित होता है। वैसे पाकीजा का पार्श्व संगीत गुलाम मुहम्मद की मृत्यु हो जाने के कारण पूर्णत: नौशाद ने ही दिया और परवीन सुल्ताना, राजकुमारी आदि से बड़ी सुंदर ठुमरियां गवाईं, जैसे राजकुमारी के स्वर में 'नजरिया की मारी’, वाणी जयराम के स्वर में 'मोरा साजन सौतन घर जाए’ और परवीन सुल्ताना के स्वर में 'कौन गली गयो श्याम।’ फिल्म के साउंड ट्रैक पर तो और भी कई बंदिशों और गजलों के अंश कोठों की पृष्ठभूमि में सुनाई पड़ते हैं जिनमें नसीम बानो चोपड़ा के स्वर में मीर की गजल, 'देख तो दिल कि जां से उठता है’ लाजवाब थी। कायदे से तो इस विशिष्ट संगीत के लिए गुलाम मुहम्मद को मरणोपरांत फिल्म फेयर पुरस्कार दिया जाना चाहिए था पर फिल्म फेयर की दुनिया में राजनीति इस कदर हावी थी कि पुरस्कार शंकर की बेईमान को मिला, जिसका संगीत कुल मिलाकर लचर था और पाकीजा के आसपास भी नहीं ठहरता था।
पाकीजा के ऊपर वर्णित गानों को हर कोई जानता है, इन पर चर्चा और इन गानों की वाहवाही भी खूब हो चुकी है। गुलाम मुहम्मद द्वारा कंपोज किए गए पाकीजा के उन गानों का भी जवाब नहीं जो फिल्म में शामिल नहीं हुए। इन गानों को 'पाकीजा रंग-बिरंगी’ नाम से एक अलग रेकॉर्ड में एच.एम.वी. ने रिलीज किया था। 'पी के चले हम हैं शराबी’ में लता की आवाज की कोमलता और तबले की ठमक के बीच गुलाम मुहम्मद ने जो 'हार्मनी’ पैदा की वह अद्भुत है। लता की एकल आवाज में पहाड़ी पर कंपोज किया 'चलो दिलदार चलो’ फिल्म में शामिल किए गए लता-रफी के युगल गीत से कहीं बेहतर बन पड़ा है। एकल गीत में प्रवाह, गति और तीव्रता का जो स्वाभाविक संगम है वह युगल गीत में थोड़ा निर्मित-सा लगता है। अन्य गीतों में 'प्यारे बाबुल तुम्हारी दुहाई’ (लता) और 'कोठे से लंबा हमारा बन्ना’ (शमशाद) पारंपरिक विवाह गीतों की धुनें हैं, 'ये किसकी आंखों का नूर हो तुम’ (रफी) पारंपरिक मुशायरे की शैली का एक संगीतमय विस्तार है (खय्याम की कई रचनाओं में भी इस शैली का प्रयोग मिलता है), 'जाएं तो अब कहां (रफी, शमशाद) कव्वाली शैली में है तो 'बंधन बांधो न’ (शोभा गुर्टू) राग भूपाली पर आधारित शास्त्रीय रचना है।
सुमन की आवाज में पारंपरिक मुजरे को पुन: जीवंत करता 'गिर गई रे मोरे माथे की बिंदिया’ अनूठी रचना है और सुमन के आवाज पर नियंत्रण और फैलाव दोनों को प्रकट करता है। इसी तरह 'तन्हाई सुनाया करती है’ (लता) कविता की तरह नरम और छूने वाली रचना बन पड़ी है। यह निष्कर्ष अनुचित नहीं है कि पाकीजा के लिए गुलाम मुहम्मद ने अपनी क्षमता का बहुआयामी उपयोग किया और संगीत की हर विधा की बानगियां तलाशीं। यह दोहरे अफसोस का विषय है कि पाकीजा गुलाम मुहम्मद के जीवनकाल में न बन सकी और जब बनी तो इसमें कई खूबसूरत गीत शामिल न किए जा सके।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)