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किसान की कोई ड्रेस नहीं होती

नरम-गरम
‌‌क‌िसान

भारत के मध्यमवर्गीय आदमी के दिमाग में अब भी किसान की छवि धोती-बंडी पहनकर कंधे पर हल रखे, 'मेरे देश की धरती’ गाने वाले की है। अगर चित्र में दो बैलों की जोड़ी और आ जाए तो चार चांद लग जाएं। निष्कर्ष यह कि लोगों को किसान की छवि उपकार फिल्म के मनोज कुमार जैसी लगती है। जैसे, लोगों को भगत सिंह भी शहीद फिल्म के मनोज कुमार जैसे ही नजर आते हैं। मनोज कुमार का इस देश की देशभक्त जनता पर बड़ा उपकार है। इसी संदर्भ में मेरे देश के किसानों से विनम्र निवेदन है कि वे जब आंदोलन करें और लाठी, गोली वगैरह खाने की तैयारी करें तो उपकार फिल्म के मनोज कुमार जैसी ड्रेस पहनना न भूलें। वरना जनता को कनफ्यूजन हो जाता है कि आंदोलन करने वाले किसान हैं भी या नहीं। आत्महत्या करने वाले किसान भी इस निवेदन का ख्याल रखें तो अच्छा हो।

यह कहने की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि मध्यप्रदेश में किसानों के आंदोलन की तस्वीरें देख कर कुछ मित्रों ने यह प्रचार किया कि ये आंदोलनकारी किसान नहीं गुंडे हैं क्योंकि ये तो जींस पहने हुए हैं। इससे पहला सवाल तो यही उठता है कि क्या जींस गुंडों की पोशाक है क्योंकि यह मैंने पहली बार सुना है। मैं भी जींस पहनता हूं और अगर मेरे इज्जतदार होने पर शक हो भी तो मैंने कई घोषित इज्जतदार लोगों को जींस पहने देखा है। दूसरा सवाल यह है कि क्या किसान के जींस पहनने पर कोई पाबंदी है? अगर तमाम दूसरे पेशों के लोग डॉक्टर, इंजीनियर, नेता, अफसर, दुकानदार से लेकर सेल्समैन तक जींस पहन सकते हैं तो किसान क्यों नहीं? आखिर जींस पहने व्यक्त‌ि को लोग किसान मानने से इनकार क्यों कर दें? किसान दो बीघा जमीन फिल्म के बलराज साहनी और उपकार फिल्म के मनोज कुमार जैसा ही क्यों दिखना चाहिए?

किसानों को शायद एक आंदोलन इस बात के लिए भी करना चाहिए कि अगर वे जींस पहनें, गॉगल्स लगाए और कोक पीते दिखाई दें तो भी उन्हें किसान ही मानना होगा। उन्हें भी ये सब करने का हक है। जैसे उन्हें यह मांग रखने का हक है कि वे जो चीजें बेचते हैं, उसकी कीमत में मुनाफा जोड़कर मिलना चाहिए।

यह क्यों माना जाए कि मुनाफा कमाना सिर्फ व्यापारी का काम है, किसान को तो 'मेरे देश की धरती, सोना उगले, उगले हीरे मोती’ गाकर ही संतुष्ट हो जाना चाहिए। यह छवि बड़ी जालिम चीज होती है। जैसे लोगों को मां की छवि एकदम दुखियारी त्याग, तपस्या और बलिदान की मूर्ति निरूपा राय जैसी नजर आती है। अगर कोई मां वैसी न हो तो लोगों को उसके असली मां होने पर शक होता है। वैसे ही अगर किसान भी देश का गरीब अन्नदाता टाइप न हो तो लोग उसके किसान होने पर ही शक कर बैठते हैं। अच्छा है किसान यह छवि तोड़ रहे हैं, इक्कीसवीं शताब्दी में उन्हें भी समय के साथ चलने का हक है। जब सारी दुनिया स्मार्ट फोन पर रंगीन दिख रही है तो वे ब्लैक एंड व्हाइट उपकार के दौर में क्यों रहें? जिसे जो कहना हो वह कहता रहे।

 

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