बात एक जुलाई की है। मैं कश्मीर में था। मुझे श्रीनगर से पुलवामा जाना था लेकिन मेरे स्थानीय सहयोगी ने बताया कि आज उधर नहीं जा सकते क्योंकि वहां माहौल ठीक नहीं है। उस इलाके में बशीर लश्करी नाम के आतंकी को सुरक्षा बलों ने घेर लिया है। उसके बाद हमने सोपोर जाना तय किया। इस बीच हमारे साथ चल रहे एक व्यक्ति के वाट्सऐप पर एक ऑडियो आया, जिसमें लोगों से लश्करी को बचाने के लिए एनकाउंटर की जगह पहुंचने की अपील की गई थी। थोड़ी देर बाद एक मैसेज आया, जिसमें एक घायल लड़की की फोटो थी। बाद में कहा गया कि सुरक्षा बलों की कार्रवाई के बीच में आई इस लड़की की मौत हो गई। यानी अलगाववादी ताकतें किस तरह से लोगों को भड़काने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रही हैं, यह इसका एक नमूना था। लेकिन अगले दिन समाचार पत्रों में एक महिला की मौत की जो खबर आई, उसमें उसकी उम्र 38 साल बताई गई थी। यानी घायल लड़की की फोटो और खबर दोनों गलत थी। लेकिन लोगों की भावनाएं भड़काने का काम तो हो चुका था।
बात केवल कश्मीर की ही नहीं है। सोशल मीडिया के जरिए जिस तरह से गलत सूचनाएं फैलाई जा रही हैं, वे देश के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक तीनों तरह से घातक साबित हो रही हैं। सोशल मीडिया पर शेयर की जा रही झूठी तस्वीरें और वीडियो कई बार सांप्रदायिक तनाव का कारण बन रही हैं तो कई बार हत्या तक का उकसावा बन रही हैं। भीड़ द्वारा की जा रही हत्याओं के अधिकांश मामलों में सोशल मीडिया पर शेयर की गई गलत जानकारी ही बड़ा कारण रही है। पश्चिम बंगाल में हाल की हिंसक घटनाओं की शुरुआत एक सोशल मीडिया पोस्ट से हुई। उसका राजनैतिक फायदा उठाने के लिए गलत वीडियो शेयर करने के मामले की जांच चल रही है। ऐसे तमाम मामले लगातार सामने आ रहे हैं। लेकिन हमारे पास कोई पुख्ता तंत्र नहीं तैयार हो सका है जो ऐसे मामलों में तेजी से कार्रवाई कर सके। प्रशासन गाहे-बगाहे अफवाहों पर अंकुश लगाने के लिए इंटरनेट को बंद करने जैसे कदम जरूर उठाता रहा है।
लेकिन सवाल उठता है कि हर रोज डिजिटल होते तंत्र की ओर बढ़ते देश में इंटरनेट बंद करने का कदम कई तरह की परेशानियां और नुकसान लेकर आता है। आउटलुक के पिछले अंक में हमने 'अफवाहें-नया सच’ कवर स्टोरी बनाई थी। मीडिया संस्थान फर्जी खबरों और वायरल हो रहे वीडियो के सच पर काम करने को मजबूर हो रहे हैं। लेकिन क्या मीडिया और खासकर डिजिटल मीडिया इससे इनकार कर सकता है कि सबसे तेज दिखने की होड़ में वह खुद गलत खबरों के लिए इस्तेमाल नहीं हुआ है। बात केवल सोशल मीडिया पर आने वाली 'फेक न्यूज’ की ही नहीं है, बल्कि किसी भी संस्था, सरकारी विभाग और राजनैतिक दल द्वारा जो जानकारी मीडिया से साझा की जाती है क्या हम पूरी ईमानदारी से उसकी पड़ताल करते हैं, ताकि पाठक या दर्शक तक सही जानकारी पहुंचे।
यहां 'टाइम’ पत्रिका के हाल के एक अंक में प्रकाशित जानकारी को मैं उद्धृत करना चाहूंगा। उसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के 21 जून की एक रैली में संबोधन के हवाले से बताया गया कि उनके राष्ट्रपति बनने के बाद से खनन क्षेत्र में 33 हजार नौकरियों का सृजन हुआ है। लेकिन पत्रिका ने बताया कि ये नौकरियां कोल माइनिंग के साथ ही ऑयल, नेचुरल गैस और दूसरे खनिजों की खनन गतिविधियों में पैदा हुई हैं। कोल माइनिंग में केवल 1300 नई नौकरियां आई हैं और वह भी चीन में उत्पादन घटने से संभव हुआ है। इसी तरह के कई अन्य मामलों में भी पत्रिका ने दावे और सच्चाई के बीच फासले को समझाया है।
बात केवल सोशल मीडिया और उसके नियामक और सरकार की नजर की ही नहीं है। बात मुख्यधारा मीडिया की भी है क्योंकि सोशल मीडिया और जल्दबाजी में खबरों को वायरल करने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के मुकाबले पाठक उसे ज्यादा तरजीह देते हैं। पिछले एक दशक में प्रिंट मीडिया की वृद्धि उसका सबूत भी है। बात अब यहां केवल खबरों के सच और झूठ तक सीमित नहीं है। इससे लोगों की जिंदगियां प्रभावित हो रही हैं। अब तक के सबसे बड़े टैक्स रिफॉर्म जीएसटी को लेकर फैली गलत सूचनाओं का सरकार को कई बार खंडन करना पड़ा। यही नहीं, राजनैतिक दलों ने भले सोशल मीडिया जैसे मंच का इस्तेमाल राजनैतिक ताकत हासिल करने के लिए किया हो लेकिन ये भी उसका शिकार होते रहे हैं। इसलिए बड़ा सवाल है कि भस्मासुर की शक्ल अख्तियार करते इस तंत्र के दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकार किस तरह की तैयारी कर रही है। अभी तक तो लगता है कि सरकारी तंत्र इस मामले में बहुत ही धीमे चल रहा है लेकिन इस सबसे तेज माध्यम से आने वाली यह चुनौती हर रोज बड़ी होती जा रही है। हालांकि सूचना तंत्र की इस विविधता के चलते ही गलत सूचना के पकड़ में आने की संभावना भी बढ़ी है, बशर्ते मीडिया सत्य शोधक की अपनी भूमिका के प्रति जवाबदेह रहे।