भारत और चीन की विभाजक सीमा लंबी और अनसुलझी होने के कारण दोनों के बीच इस मसले पर टकराव का लंबा इतिहास रहा है। एक मौके पर तो यह टकराव जंग तक जा पहुंचा है जबकि दूसरे मौकों पर मामूली झड़पों और गोलाबारी तक सीमित रहा। पिछले 40 वर्षों में हालांकि इन टकरावों के समानांतर काफी सतर्कतापूर्ण तरीके से विश्वास बहाली के सिलसिलेवार उपाय भी किए गए हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि दोनों देश दोबारा जंग की दहलीज पर न पहुंच जाएं।
डोकलाम के पठार पर हुए ताजा टकराव को दरअसल उसकी भौगोलिक स्थिति गंभीर बनाती है क्योंकि इसमें एक तीसरा देश भूटान भी फंसा हुआ है। यह जगह सिलीगुड़ी गलियारे के करीब है जो कई जगहों पर तो केवल 25 किलोमीटर चौड़ी है और जिसके इर्द-गिर्द नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और चीन स्थित हैं।
जहां तक दूरियों का सवाल है तो पूर्वोत्तर भारत को शेष हिस्से के साथ रेल, सड़क और हवाई मार्ग से जोड़ने वाला प्रमुख केंद्र सिलीगुड़ी बांग्लादेश से 8 किलोमीटर, नेपाल से 40 किलोमीटर, भूटान से 60 किलोमीटर और चीन से 150 किलोमीटर की दूरी पर है। चीन डोकलाम के पठार पर अपना नियंत्रण विस्तारित करने की कोशिश में है जिसके चलते उसकी दूरी सिलीगुड़ी से 20 किलोमीटर कम हो जाएगी।
चीन को भारत से सिक्किम की चुंबी घाटी जोड़ती है जो भूटान और भारत के बीच स्थित है। तिब्बत से भारत के बीच आवागमन का यह मुख्य मार्ग है। मौजूदा टकराव कुल जमा 40 वर्ग किलोमीटर भूखंड को चीन द्वारा कब्जाए जाने के प्रयास से पैदा हुआ है जो तीनों देशों के मौजूदा मिलन-बिंदु बतांग ला के दक्षिण में स्थित है।
संधि के हिसाब से देखें तो चीन की बात में कुछ दम है। चीन और अंग्रेजों के बीच 1890 में हुई संधि सरहद के आरंभिक बिंदु और तीनों देशों के मिलन-बिंदु को साफ तौर पर परिभाषित करती है जो माउंट गिपमोची पर स्थित है। समझौते के मुताबिक सिक्किम और तिब्बत के बीच की इसी सरहद को स्वीकार करना भारत की बाध्यता है जबकि भूटान ऐसा नहीं करेगा क्योंकि वह समझौते का पक्षकार नहीं था। इसीलिए वह इसे चुनौती देता रहा है और देर से ही सही उसने अपना दावा डोकलाम के पठार तक विस्तारित कर दिया है। यह पठार मोटे तौर पर डोका ला के दक्षिण में गिपमोची पर स्थित गायमोचेन नामक जगह और उसके उत्तरवर्ती दिशा में डोका ला और बतांग ला के बीच स्थित है।
यह मामला तब उभरा जब भूटान की शाही सेना ने पाया कि चीन की फौज डोकलाम क्षेत्र में उसके पोस्ट तक एक सड़क का निर्माण कर रही है। फिर भूटान ने शायद भारत से मदद मांगी और भारतीय सेना निर्माण कार्य रुकवाने के लिए सरहद पार कर के डोका ला तक चली गई। विदेश मंत्रालय के एक वक्तव्य के मुताबिक भूटान और भारत इस मसले पर करीबी संपर्क में रहे हैं और भूटानियों के साथ मिलकर ''डोकलाम क्षेत्र में मौजूद भारतीय सैन्य अधिकारियों ने चीन के निर्माण दल तक पहुंच कायम की और उनसे अनुरोध किया कि वे यथास्थिति से छेड़छाड़ न करें।’’
भूटान इस मसले को बरसों से उठाता रहा है और उसे 1998 के समझौते की याद दिलाता रहा है जिसमें कहा गया है कि चीन-भूटान की सीमा पर अंतिम निपटारा होने तक उस पर यथास्थिति को कायम रखा जाना चाहिए। चीन हालांकि यहां भी वही रणनीति अपना रहा है जो बाकी जगहों पर अपनाता रहा है-जमीनी आधार तैयार करके उसे निर्विवाद तथ्य के रूप में स्थापित करना।
चीन इस बार भड़का हुआ है क्योंकि उसका दावा है कि भारत ने एक स्वीकृत सीमा का उल्लंघन किया है। यह बात सही भी है, लेकिन भारत ने ऐसा भूटानियों को चीनियों से बचाने के लिए किया है जिनके पास उनसे निपटने की क्षमता नहीं है। इसकी एक और वजह यह है कि चुंबी घाटी का गहरा होना सिक्किम और सिलीगुड़ी गलियारे में भारतीय रक्षा पंक्तिको कमजोर कर देगा।
अंतरराष्ट्रीय संधियां कुल मिलाकर महज कागज का टुकड़ा होती हैं जिनका मूल्य तब तक होता है जब तक दोनों पक्षों की उसे बनाए रखने में दिलचस्पी हो। चीन ने दक्षिणी चीन सागर में समुद्री कानून पर संयुक्त राष्ट्र के संकल्प का खुलेआम उल्लंघन किया है। इसीलिए भारत को अगर लगता हो कि उसकी सुरक्षा को खतरा है, तो वह भी संधि का मुंह नहीं देखेगा और कार्रवाई करेगा। इसके बावजूद भारत को सावधान होकर यह सोचना होगा कि वह 1890 की संधि पर सवाल उठाना चाहता है या नहीं और क्या वह सिक्किम-तिब्बत सीमा को दोबारा समझौते की मेज पर लाने को तैयार है। इसके बाद उसे वैसे भी हमेशा सक्रिय रहने वाली पीएलए का सामना करने को तैयार रहना ही होगा।
सिलीगुड़ी का गलियारा अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण हमेशा से सैन्य नियोजकों और रणनीतिकारों के दिमाग में अहम रहा है। बांग्लादेश जब पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था, उस वक्त चीन-पाक गठजोड़ के संभावित निहितार्थों पर चिंता जाहिर की जाती थी। भारत को 1965 की जंग में दबाव में लेने के लिए चीन ने चुंबी घाटी में अपनी सेना तैनात कर दी थी और सिक्किम की सीमा पर तैनात भारतीय सैन्य टुकड़ियों के साथ जोर-जबरदस्ती का प्रयास किया था। 1967 में नाथु ला और चो ला में कहीं ज्यादा गंभीर किस्म के टकराव हुए। बांग्लादेश बनने के बाद चिंताएं कम तो हुई हैं लेकिन समाप्त नहीं हुईं।
फौज का काम संभावित परिदृश्यों को निर्मित करके उनसे निपटने की योजना बनाना होता है। इस क्षेत्र में सैन्य अभियान चलाने के लिए कई विकल्प गढ़े जा सकते हैं। अवकाश प्राप्त लेक्रिटनेंट जनरल प्रकाश कटोच ने 2013 में लिखा था कि अगर डोकलाम के पठार पर चीन का कब्जा हो गया तो सिक्किम में यह भारतीय सुरक्षा को कमजोर करेगा और सिलीगुड़ी गलियारे पर खतरा पैदा कर देगा। स्वर्गीय कैप्टन भरत वर्मा ने गलियारे को कब्जाने के लिए चीन के विशेष बलों के हमले के एक परिदृश्य की परिकल्पना की थी। जॉन गार्वर बताते हैं कि भारतीय नियोजकों को इस बात की चिंता थी कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) कहीं अरुणाचल प्रदेश के बोक्वडी ला के रास्ते सिलीगुड़ी पर हमला न कर दे। इस बात की भी चिंताएं हैं कि कहीं चीन की फौज टकराव बढ़ने पर भूटान के रास्ते इधर न आ जाए।
भारत की इस मामले में स्थिति वाकई कमजोर है। सिलीगुड़ी गलियारे के सामने केवल चीनी हमले का ही खतरा नहीं है। इस इलाके में पहले से ही गोरखा, कामतापुरी और बोडो अलगाववादियों के कारण तनाव बना हुआ है और बहुत पहले से तस्कर और आतंकी आवागमन के लिए इसका इस्तेमाल करते रहे हैं।
पीएलए भी अपने स्तर पर वैकल्पिक परिदृश्यों की पड़ताल कर ही रहा होगा, खासकर जनरल सुंदरजी और ऑपरेशन फाल्कन/चेकरबोर्ड के मामले में अर्जित अनुभव के चलते उसे फिर से सोचना होगा। सिक्किम में अपनी किनारे वाली भौगोलिक स्थिति का लाभ उठाते भारत चुंबी घाटी को पार कर सीधे ल्हासा ले जाने वाले चीनी राजमार्ग तक पहुंच सकता है। चीनी जानते हैं कि चुंबी घाटी से ही होकर सर फ्रांसिस यंगहस्बैंड ने तिब्बत की अपनी खोजी यात्रा की थी। यह हमला उत्तरी सिक्किम की ओर से भी हो सकता है जो अपेक्षाकृत सपाट पठार है जहां सुंदरजी ने 1986-87 में चीन के साथ संघर्ष होने पर टैंक और इनफैन्ट्री के लड़ाकू वाहन तैनात कर दिए थे।
चीनियों की चिंताएं इस क्षेत्र के अतीत को लेकर भी पैदा होती हैं। कलिमपोंग और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान ही वे जगहें हैं जहां सीआइए और निर्वासित तिब्बतियों ने कभी तिब्बत में मौजूद चीनी फौज के खिलाफ अपने अभियानों की योजना बनाई थी।
चीन और भारत दोनों ही अपनी-अपनी कमजोरियों से बराबर वाकिफ हैं-चीन की दिक्कत चुंबी घाटी है तो भारत सिलीगुड़ी गलियारे को लेकर चिंतित है। दोनों की गणनाएं और चिंताएं हालांकि इससे भी आगे जाती हैं। तिब्बती अलगाववाद चीन का पुराना नासूर है और इस मामले में वह भारत को असली खलनायक मानता आया है। लिहाजा, जहां कहीं भी मुमकिन होता है वह इस मामले में आक्रामक नीति अपना लेता है ताकि हमारा संतुलन बिगाड़ सके।
पूर्वोत्तर हमारे लिए काफी अहमियत रखता है। इस इलाके को बचाने से ज्यादा अहम और व्यावहारिक इसकी सैन्य भूमिका है। यही वह जगह है जहां हम अपने रणनीतिक निषेधों का इस्तेमाल कर सकते हैं। मसलन, लंबी दूरी की नाभिकीय मिसाइलों की तैनाती वगैरह, क्योंकि और किसी भी जगह से चीन के अहम शहरों पर मार करने की क्षमता हमारे पास नहीं है।
इस क्षेत्र में सरहद के दोनों ओर सघन सैन्य तैनाती है। कुल 4,000 किलोमीटर लंबी भारत-चीन सीमा का यह इकलौता भूखंड है जहां दोनों फौजें एक-दूसरे के बिलकुल करीब हैं। नाथु ला और चो ला में तो दोनों के बीच महज 40-50 फुट की दूरी ही रह जाती है। पिछले दशक में भारत ने पूर्वी सीमा पर अपनी सैन्य क्षमताओं में धीरे-धीरे काफी संवद्र्धन किया है, नई कतारें खड़ी की हैं, हैवी लिफ्ट हेलिकॉप्टरों को लगाया है, पहाड़ पर तोपों की तैनाती की है और यहां तक कि अग्रिम बेसों पर लड़ाकू विमान तैनात किए हैं।
उत्तरी बंगाल में मुख्यालय वाली नई माउंटेन स्ट्राइक कोर के सहारे भारतीय फौज अब सीमा पर सीधे दखल देने में सक्षम हो गई है लेकिन कई मामलों में अब भी चीनियों के साथ वह पकड़ा-पकड़ी के खेल में ही लगी हुई है।
हमें खुली जंग की संभावनाओं को पूरी तरह नकार देना चाहिए। जाहिर है, इससे किसी का भला नहीं होगा, लेकिन आप नाभिकीय कारकों की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। इसका कुल प्रभाव यह होगा कि चीन ''तिब्बती चरवाहों’’ के माध्यम से इलाके में अतिक्रमण करते हुए या सड़कों का निर्माण करते हुए छायायुद्ध की अपनी रणनीति को बरकरार रखेगा, जमीन पर अपना आधार निर्मित करेगा और उसे निर्विवाद बताएगा, जिसे चुनौती दे पाना कठिन हो जाएगा। भूटान कमजोर है ही क्योंकि उसके पास पीएलए को चुनौती देने की क्षमता नहीं है। इस मौजूदा स्थिति का मुख्य सबक यह बनता है कि इस चुनौती से निपटने के लिए कोई नई रणनीति अख्तियार करनी होगी।
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रतिष्ठित फेलो हैं)