किसी दूर ग्रह से कोई भारत की राजनीति पर नजर डालेगा, तो उसे लगेगा कि भारत में सिर्फ एक ही राजनैतिक दल और एक ही राजनीतिज्ञ है। बल्कि उसे यह अनुभव हो सकता है कि कोई राजनैतिक दल भी नहीं है, सिर्फ एक राजनीतिज्ञ है, जो निरंतर विदेश के दौरे पर रहता है और भारत में रहता है तो विभिन्न विषयों पर अपने विचार व्यक्त करता रहता है। उसे एक संगठन का जरूर एहसास हो सकता है, जो हर उस धारा के खिलाफ है जो भारतीय समाज को आधुनिक और वैज्ञानिक सोच तथा जीवन पद्धति से जोड़ना चाहती है। लेकिन कोई दूर ग्रह से न देखे, सिर्फ अखबार पढ़ता रहे और टीवी देखता रहे, तब भी उसे ऐसा ही अनुभव होगा।
किसी भी देश के लिए यह एक असाधारण स्थिति है कि उसकी राजनीति इस कदर सिमट कर रह जाए। लोकतंत्र की खूबसूरती यही है कि इस व्यवस्था में हर समय कोई न कोई दल या दलों का गठबंधन सत्तारूढ़ दल का स्थान लेने के लिए तैयार रहता है। यानी एक सरकार विफल होती है तो तत्काल दूसरी सरकार आ जाती है। कह सकते हैं कि सत्ता दल और विपक्ष एक ही तराजू के दो पल्ले हैं। कोई भी पल्ला ज्यादा नीचे आ गया तो दूसरा पल्ला ज्यादा ऊपर चला जाएगा, जिसके बाद राजनीति का संतुलन गड़बड़ा जाएगा और लोकतंत्र मुश्किल में पड़ जाएगा।
आज हमारा लोकतंत्र ऐसी ही मुश्किल में है। ऐसा नहीं है कि विपक्ष नहीं है। विपक्ष है, पर वह अपना काम नहीं कर रहा है। विपक्ष अगर थोड़ा भी काम कर रहा होता, तो जीएसटी का वह विधेयक पारित हो ही नहीं सकता था, जिसमें दुनिया के किसी भी अन्य देश की अपेक्षा ज्यादा कर लगाए गए हैं। इसी तरह नोटबंदी पर जितना राजनैतिक कोलाहल मचना चाहिए था, वह सुनाई नहीं पड़ा। कश्मीर में आतंकवादी हिंसा बढ़ती जा रही है, लेकिन सरकार पर किसी किस्म का दबाव नहीं है कि वह कोई राजनैतिक पहल कर समाधान निकालने की कोशिश करे, क्योंकि वहां सभी सैनिक विकल्प समाप्त हो चुके हैं। सबसे गंदी स्थिति आवश्यक वस्तुओं की कीमतों को लेकर है, जिनमें निरंतर उछाल आता जा रहा है और मूल्य नियंत्रण को लेकर सरकारी स्तर पर कोई चिंता दिखाई नहीं देती। ऐसे मुद्दे दर्जनों हैं, जिनमें से कुछ की तरफ संकेत सिर्फ इस उद्देश्य से किया जा रहा है कि इस समय सरकार के पास जितना काम है, विपक्ष के पास उससे कहीं ज्यादा काम है।
विपक्ष का दम उसकी मात्रा से नहीं, सक्रियता से देखा जाता है। राममनोहर लोहिया अकेले देश की संसद को हिला सकते थे और नेहरू जैसे नेता की घिग्घी बंध जाती थी। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के पास अच्छा-खासा बहुमत था और उसके मुकाबले तृणमूल कांग्रेस के विधायकों की संख्या कुछ नहीं थी, लेकिन ममता बनर्जी ने अकेले इस वामपंथी लंका में आग लगा दी। एक जमाने में विश्वनाथ प्रसाद सिंह ने, विपक्ष में रहते हुए, राजीव गांधी के साथ ऐसा ही किया था। राष्ट्रपति बनने की उम्मीद से खारिज हो चुके लालकृष्ण आडवाणी भी राम जन्मभूमि मंदिर का टेंडर लिए हुए देश भर में अकेले घूम रहे थे। और तो और, जिन्हें हम अब भारतीय राजनीति के खलनायक के रूप में पहचानते हैं, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद ने भी अपने-अपने उर्वर समय में तूफान मचाया हुआ था। फिर सीताराम येचुरी आदि को किसने रोका हुआ है?
जहां तक दूसरी प्रमुख पार्टी कांग्रेस का सवाल है, वह पिछले पंद्रह साल से अस्पताल के बेड पर है। दस वर्ष तक तो उसकी कोई गतिविधि ही नहीं रही, जब मनमोहन सिंह सोनिया गांधी की ओर से शासन करते रहे। मनमोहन सिंह का स्वभाव अफसर वाला है, किसी का नेतृत्व करना उनके वश में नहीं है। सोनिया गांधी ने नेतृत्व करने से अनिच्छा दिखाई है, लेकिन वे अगर चाहतीं भी तो उनसे कुछ होने वाला नहीं था, क्योंकि उनमें भी नेतृत्व के स्वाभाविक गुण नहीं हैं। अन्यथा अपने विदेशी मूल के बावजूद वे अत्यंत लोकप्रिय हो सकती थीं। इसके बजाय राहुल गांधी के रूप में उन्होंने देश को जो छोटा-सा उपहार दिया है, उसकी क्षमता क्रिकेट के मैदान में कबड्डी खेलने जितनी भी नहीं है। स्पष्ट है कि भारत नेतृत्व का भूखा है।
तो, क्या विपक्ष का यह सन्नाटा ही हमारी राजनैतिक नियति है? मेरा खयाल है, इस प्रश्न को घुमा कर विचार करें, तो एक संतोषजनक उत्तर मिल सकता है। वास्तव में जिसे हम विपक्ष के रूप में देखना चाहते हैं, वही भारत का अपना पक्ष है, जिसका शिराजा बिखर रहा है। अपने को स्वतंत्रता आंदोलन का उत्तराधिकारी मानने के कारण कांग्रेस ने देश निर्माण का बीड़ा उठाया, लेकिन जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी। इंदिरा का युग नेहरू के स्वप्न के क्षय का युग था। वे सत्ता के रचनात्मक इस्तेमाल से सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने की ज्यादा कायल थीं। कह सकते हैं कि नेहरू का स्वप्न आपातकाल आते-आते आंख मूंद लेता है और कांग्रेस एक खूसट पार्टी बन जाती है। अब किसी भी कॉस्मेटिक से उसका सौंदर्य बहाल नहीं हो सकता।
दूसरी ओर, जिन्हें मध्यमार्गी दल कहा जाता है और इनमें लोहिया की सोशलिस्ट पार्टी भी शामिल है, उन्हें इतिहास ने दो बार बड़े मौके दिए-एक 1967 में और दूसरा 1977 में। पहली बार तो लगान का खात्मा और पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण जैसे कुछ नए काम हुए भी, पर दूसरी बार हर चीज प्याले में तूफान बन कर रह गई। स्पष्ट था कि इन दलों का श्रेष्ठतम नेतृत्व तब तक विदा ले चुका था और उनके सूर्यास्त की आभा में चमकने वाले दूसरे तथा तीसरे दर्जे के नेता सत्ता की राजनीति में अपना हाथ साफ कर रहे थे।
ध्यान से देखें, तो जब पक्ष कमजोर हो रहा था, राष्ट्र निर्माण का स्वप्न बिखर रहा था, तब भारत का वास्तविक विपक्ष अपने को चुपके-चुपके मजबूत कर रहा था। जनसंघ जनता पार्टी में शामिल नहीं रह सका और उसने जल्द ही अपने को भारतीय जनता पार्टी में तब्दील कर लिया, तो यह स्वाभाविक ही नहीं, अनिवार्य भी था। जनता पार्टी और उसकी सरकार में कई तरह के द्वंद्व थे, पर उसका मुख्य द्वंद्व जनसंघ बनाम दूसरे का था। इसीलिए दूसरी पार्टियां लड़ीं, झगड़ीं, टूटीं, फिर एक हुईं, मिलकर गठबंधन बनाया, लेकिन भारतीय जनता पार्टी सबसे अलग और अकेले चलती रही। यह ठीक भी था, क्योंकि आरएसएस के साथ किसी और पार्टी का क्या मेल हो सकता था? मेल आज भी नहीं है, यहां तक कि शिवसेना के साथ भी नहीं, जो उसी की तरह का संगठन है, पर एक आवारा और उच्छृंखल संगठन, जबकि संघ परिवार एक व्यवस्थित और लक्ष्यबद्ध संगठन है।
यही कारण है कि भाजपा एक-एक कर उन सभी मूल्यों और संस्थाओं को नष्ट करती जा रही है जो भारत के संवैधानिक जनतंत्र से जुड़ी हुई हैं। यह संविधान उन्हें कबूल नहीं है, क्योंकि यह पश्चिमी ढंग का संविधान है, धर्मनिरपेक्षता और कानून का शासन इसका अनिवार्य अंग है। यह संविधान पश्चिमी ढंग का समाज बनाने की प्रेरणा देता है, लेकिन भारतीय या हिंदू ढंग का समाज कैसा होगा, इसकी कोई झलक भाजपा के कार्यक्रम में दिखाई नहीं पड़ती। क्या दूध पीने वाले गणेश ही नई भारतीयता की पहचान हैं? क्या हम अब मध्यकालीन नायकों से राष्ट्रीयता के मूल्य सीखेंगे?
अगर भाजपा की मनीषा ने आधुनिक पश्चिमी सभ्यता का कोई भारतीय या हिंदू विकल्प की खोज करने की ईमानदार कोशिश की होती, तो माना जा सकता था कि वह हमारे लिए एक विकल्प गढ़ रही है। जाहिर है, ऐसा कोई भी विकल्प समुद्रगुप्त या शिवाजी के जमाने के मूल्यों तक सीमित नहीं रह सकता, इन तीन-चार सौ वर्षों में दुनिया के विभिन्न देशों में जो राजनैतिक-सामाजिक प्रगति हुई है, उससे भी हमें बहुत कुछ ऋण लेना होगा। सभ्यताएं एक-दूसरे से सीख कर ही आगे बढ़ती हैं। लेकिन विकल्प गढ़ने के बजाय हम पाते यह हैं कि स्वतंत्रता संघर्ष के जमाने से जो विकल्प तैयार किया जा रहा था, उसके ताबूत में ही कीलें ठोंकी जा रही हैं। लेकिन ठहरिए, इसकी जिम्मेदारी सिर्फ भाजपा की नहीं है। जो लोग इस विकल्प का निर्माण कर रहे थे, सबसे पहले उन्होंने ही इसकी मिट्टी पलीद की थी। उन्होंने ऐसा न किया होता, तो भाजपा की धारा एक पहाड़ी सोते की तरह समाज के निभृत एकांतों में बहती होती, वैसे ही जैसे डायन कहकर औरतों की जान लेने की परंपरा बनी हुई है।
इसीलिए भाजपा नाम के इस विपक्ष को खत्म करने के लिए सिर्फ उसकी आलोचना करना काफी नहीं है। विपक्ष का वास्तविक विरोध विपक्ष में नहीं, पक्ष खड़ा करने में होता है। इसलिए जो लोग भारत का पुनर्निर्माण करना चाहते हैं, उन्हें एक अधूरी क्रांति को पूरा करने की जिम्मेदारी सिर पर उठानी होगी। भाजपा का भारत हमें नहीं चाहिए, यह तार्किक ढंग से तभी समझाया जा सकता है, जब हम जनता के सामने यह तसवीर रखेंगे कि हमें कैसा भारत चाहिए। क्या यह वही भारत नहीं होगा, जिसकी खोज गांधी, भगत सिंह, नेहरू, आंबेडकर, लोहिया और जेपी कर रहे थे?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक हैं)