करीब दो माह से बिहार में चल रहा राजनीतिक घटनाक्रम 26 जुलाई की शाम राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के इस्तीफे के साथ एक नए दौर में प्रवेश कर गया है। इसके साथ ही 2015 में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के खिलाफ विपक्षी दलों के कामयाब महागठबंधन का फार्मूला भी ध्वस्त हो गया है। नीतीश मंत्रीमंडल में उपमुख्यमंत्री और राजद प्रमुख लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव के खिलाफ सीबीआइ और इडी के छापे और एफआईआर इस नए घटनाक्रम के मूल में हैं। भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस की नीति के तहत नीतीश और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड का दबाव था कि तेजस्वी इस्तीफा दें। लेकिन लालू यादव अड़े थे कि आरोपों के आधार पर तेजस्वी इस्तीफा नहीं देंगे। इस बारे में वह किसी को सफाई देने के लिए भी बाध्य नहीं हैं। इस मसले पर जदयू और राजग के बीच तल्ख होते रिश्तों को आखिरकार नीतीश कुमार ने अपने इस्तीफे के साथ टूट के अंजाम तक पहुंचाया। नीतीश कुमार की राजनीति का डीएनए ऐसे अप्रत्याशित फैसलों से भरा पड़ा है।
राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी को इस्तीफा सौंपने से लेकर अगले दिन शाम 5 बजे दोबारा भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री पद की शपथ के ऐलान तक पूरी पटकथा जिस तरह लिखी गई उसने महागठबंधन में शामिल राजग और कांग्रेस को कुछ करने-समझने का मौका नहीं दिया। गुस्से और हताशा से घिरे लालू प्रसाद यादव नीतीश के पुराने आपराधिक मामलों का बखान करते रह गए। नीतीश के इस्तीफे के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ट्वीट कर उनको बधाई देते हुए कहा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में जुड़ने के लिए नीतीश कुमार जी को बहुत-बहुत बधाई! इस पर नीतीश ने पीएम मोदी को धन्यवाद दिया। सोशल मीडिया पर दोनों नेताओं के संदेशों की यह जुगलबंदी नीतीश की एनडीए में घर वापसी की झलक दिखाने के लिए काफी थी। बाकी संशय भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय और वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी की ओर से राज्यपाल को सौंपे गए समर्थन पत्र ने दूर कर दिया। इस शाम बिहार में भाजपा के समर्थन से नीतीश कुमार की सरकार बनाने की तैयारी हो चुकी थी। हालांकि, जदयू नेताओं का एक तबका नीतीश की इस घर वापसी और महागठबंधन को मझधार में छोड़ने से कतई खुश नहीं होगा। बेशक, लालू की नजर असंतोष के इन स्वरों पर रहेगी।
नीतीश का इस्तीफा उनकी साफ-सुथरी ईमानदार छवि को मजबूत करने का मास्टरस्ट्रोक भले ही हो लेकिन इससे विपक्षी दलों को एकजुट करने की कोशिशों को करारा झटका लगा है। वैसे विपक्ष को झटका तो वह राष्ट्रपति चुनाव के समय भी दे चुके थे जब सोनिया गांधी के विपक्षी दलों के लंच के बजाय वह मोदी के रात्रिभोज में शिरकत करने पहुंच गए थे। इसके पहले नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक के मोदी सरकार के फैसलों का समर्थन कर विपक्ष के लिए असहज स्थिति पैदा कर चुके थे। ऐसे में सवाल उठता है कि जिस समय नीतीश की गिनती विपक्ष की धुरी माने जाने वाले दावेदारों में हो रही थी, तब उनका एनडीए के पाले में आना आखिर क्या जाहिर करता है। क्या विपक्षी दलों और उनकी सरकारों को भाजपा और केंद्र सरकार के साथ जिस तरह के टकराव का सामना करना पड़ रहा है, नीतीश उससे खुद को बरी रखना चाहते हैं। या फिर बिहार में महागठबंधन की कामयाबी के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर वह भी विपक्ष की एकता की उम्मीद खो चुके हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से विपक्ष कमजोर है और एनडीए मजबूत होने के साथ ही अपना आधार बढ़ाता जा रहा है, उसके साथ जुड़ने का लालच नीतीश के नए फैसले के पीछे देखा जा सकता है। नीतीश पहले भी भाजपा के साथ केंद्र में मंत्री रहने के अलावा राज्य के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। बिहार में लालू यादव के बढ़ते दबदबे और दूसरे नेताओं को पीछे धकेलने की नीति के चलते ही नीतीश जनता दल कुनबा छोड़कर बाहर आए थे।
जिस तरह विपक्ष कमजोर है, उसके चलते शायद अब उनको 2019 के लोकसभा चुनावों में भी राष्ट्रीय स्तर पर अपने लिए कोई बड़ी भूमिका नजर नहीं आ रही हो। बहुत की केलकुलेटेड तरीके से राजनीति कर रहे नीतीश कुमार स्वयं को साफ-सुथरी छवि के साथ ही सुशासन के दावेदार के रूप में बरकरार रखना चाहते हैं। हालांकि इस बात से वह कैसे इनकार कर सकते हैं कि जब 2015 में लालू यादव की पार्टी राजद के साथ वह महागठबंधन कर रहे थे तो क्या उन्हें यह अहसास नहीं था कि लालू पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं। वहीं लालू के परिवार के सदस्य जब चुनाव के लिए अपनी संपत्ति घोषित कर रहे थे तब उन्हें अंदाजा नहीं था कि तेजस्वी यादव करोड़पति हैं। पिछले करीब एक दशक से तो नीतीश कुमार ही बिहार में सरकार चला रहे थे तो लालू परिवार की जो संपत्तियां जांच के दायरे में हैं उनमें कई तो बिहार में ही हैं। इसलिए करप्शन पर जीरो टालरेंस की बात पूरी तरह से गले नहीं उतरती है। इसलिए उनका इस्तीफा उनकी किसी बड़ी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हो सकता है।