Advertisement

प्रथम पद की प्राथमिकता

अपनी अनोखी पृष्ठभूमि के कारण महामहिम कोविंद के कदम देश को दे सकते हैं एक नई दिशा
राष्ट्रपति भवन की ओर महामहिम कोविंद की पहली सवारी

बतौर 14वें राष्ट्रपति देश के सर्वोच्च आसन पर विराजमान होने की वेला में महामहिम रामनाथ कोविंद की ये पंक्त‌ियां कुछ उत्सुकता और कुछ जिज्ञासा जगा गईं। कुछ लोग इसे शिष्टाचार में कही सामान्य उक्त‌ि मान रहे हैं तो कुछ को इसमें उनके अब तक के शांति से किए कामों की झलक दिख रही है। खासकर बिहार के राज्यपाल रहने के दौरान उनके निर्विवाद मगर विश्वविद्यालयों के क्षेत्र में किए अहम कामों को याद किया जा रहा है। उनके इसी रवैए ने बिहार के मुख्यमंत्री को राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष से अलग रवैया अपनाने का बहाना दे दिया। तो, क्या कोविंद सर्वोच्च संवैधानिक मुखिया के नाते ऐसी ही मिसाल कायम करेंगे?

आखिर वे किन मसलों पर अपनी छाप छोड़ सकते हैं,  इसके कयास तो नहीं लगाए जा सकते,  मगर मौजूदा माहौल के कुछ मुद्दों पर जरूर गौर किया जा सकता है। मसलन, पहली बार उन्हें दलित राष्ट्रपति के नाते पेश किया गया है (हालांकि आर.के. नारायणन को दलित समुदाय से पहले राष्ट्रपति होने का गौरव हासिल है मगर उन्होंने कभी अपने को इस खांचे में रखना उचित नहीं माना)। इसलिए दलितों के मुद्दे पर उनके होने का क्या असर होता है, यह देखना दिलचस्प होगा क्योंकि इस दौर में दलित समुदाय भी कई हिंसक टकरावों के केंद्र में है। क्या वे कथित गोरक्षकों के उत्पात को बंद करने का दबाव बना पाएंगे?

इसी तरह राष्ट्रपति केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति भी हैं और जेएनयू जैसे कई विश्वविद्यालय उथल-पुथल के दौर से गुजर रहे हैं। क्या राष्ट्रपति विश्वविद्यालयों में अध्ययन-अध्यापन और स्वतंत्र चिंतन-विमर्श का माहौल बनाने की दिशा में कुछ नवाचार दिखा पाएंगे?

बेशक, सर्वोच्च संवैधानिक पद की अपनी मर्यादाएं हैं लेकिन मुद्दे वाकई किसी पहल की मांग करते हैं। यह भी सही है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की ओर से उन्हें राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने के साथ ही चर्चाएं शुरू हो गई थीं कि पहली बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वैचारिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्त‌ि देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर होंगे। एनडीए की तरफ से उप-राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार वेंकैया नायडू का नाम भी इनमें जुड़ गया है। फिर भी, कोविंद ने जिन गणतांत्रिक मूल्यों और विभूतियों का जिक्र किया है, वह हमें संविधान की मर्यादा और शुचिता का भरोसा दिलाते हैं।

वैसे भी, गरीब किसान परिवार में जन्मे व्यक्त‌ि का अपनी शिक्षा, सक्रियता, अनुभव और बेदाग छवि के बूते देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचना भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती में चार चांद लगा रहा है। अपने शपथ ग्रहण समारोह में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा भी, ‘‘मैं एक छोटे से गांव में मिट्टी के घर में पला-बढ़ा हूं। मेरी यात्रा बहुत लंबी रही है, लेकिन ये यात्रा अकेले सिर्फ मेरी नहीं रही है। हमारे देश और हमारे समाज की भी यही गाथा रही है।’’

राज्यपाल के तौर पर उनके कार्यकाल को देखते हुए आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राष्ट्रपति के तौर पर उनका कार्यकाल विवादों से अछूता और उच्च शिक्षा जैसे क्षेत्रों पर छाप छोड़ने वाला साबित हो सकता है। पटना के एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के सदस्य सचिव शैबाल गुप्ता के मुताबिक, बिहार का राज्यपाल रहते हुए कोविंद ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जिस प्रकार के आमूल-चूल परिवर्तन लाने के प्रयास किए थे। कुलपतियों की नियुक्त‌ि को उन्होंने न सिर्फ पारदर्शी बनाने की शुरुआत की बल्कि नियम-कायदों को धता बताने वालों को बर्खास्त भी किया। यह सब करते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी भरोसे में रखा। बिहार का अनुभव उन्हें केंद्रीय विश्वविद्यालयों के मामले में जरूर काम आएगा।

अनुसूचित जाति में आने वाली यूपी के कोरी (कोली) समुदाय से ताल्लुक रखने वाले रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति भवन तक पहुंचाने के भाजपा के फैसले को दो तरह से देखा जा रहा है। कुछ लोग इसे दलितों को साथ जोड़ने की भाजपा की सियासी मजबूरी मानते हैं। जबकि कई लोगों के लिए यह भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग का सबूत है, जो खासकर यूपी में बसपा प्रमुख मायावती की सियासी जमीन में सेंध लगा सकती है। मायावती की इस बेचैनी को मानसून सत्र के पहले ही दिन दलितों के मुद्दे पर राज्यसभा से उनके इस्तीफे से समझा जा सकता है।

यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा को गैर-जाटव दलित और गैर-यादव ओबीसी जातियों को लुभाने में एक हद तक कामयाबी मिली थी और बसपा 1992 के बाद पहली बार 19 सीटों पर सिमट गई। कोविंद का राष्ट्रपति बनना भाजपा की उस सोशल इंजीनियरिंग के अनुकूल है, जिसके तहत इस साल आंबेडकर जयंती मनाई गई और फिर भीम ऐप जैसी सांकेतिक पहल का ऐलान किया गया। हालांकि, इन कोशिशों को रोहित वेमुला कांड, गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई और सहारनपुर हिंसा के झटके लगते रहे हैं। 

राष्ट्रपति बनने से पहले रामनाथ कोविंद का नाम बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान तब चर्चा में आया था जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान उनका नाम लेते हुए दावा किया कि उनकी पार्टी दलित समुदाय के लोगों को आगे बढ़ाने में यकीन रखती है। हालांकि, तब भी वे संवैधानिक पद पर थे और चुनाव प्रचार के दौरान उनका नाम भुनाने को लेकर पीएम मोदी की आलोचना भी हुई।

राष्ट्रपति चुनाव में कोविंद के मुकाबले मीरा कुमार को उतारकर विपक्ष ने भी दलित कार्ड खेलने की कोशिश की। लेकिन गुजरात, महाराष्ट्र, यूपी, गोवा समेत कई राज्यों में कोविंद के पक्ष में क्रॉसवोटिंग से विपक्षी एकता पर पानी फिरता नजर आया। भाजपा महासचिव भूपेंद्र यादव का दावा है कि कोविंद को एनडीए के अलावा 116 विधायकों का समर्थन मिला। बहरहाल, सियासी लाभ-हानि से इतर सर्वोच्च पद की आपनी गरिमा और मर्यादाएं हैं मगर बेशक दायित्व भी सर्वोच्च हैं। देश उसी की उम्मीद करेगा। 

Advertisement
Advertisement
Advertisement