समकालीन राजनीति या नेताओं के आकलन में वस्तुनिष्ठता पर सवाल खड़ा होने का खतरा हमेशा बना रहता है, लेकिन इतिहास निर्मम और निष्पक्ष होता है। आखिर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव का इतिहास जब लिखा जाएगा तो कैसा होगा? सामाजिक न्याय के ऐसे प्रणेता की तरह, जिसने बिहार के सदियों से दबे-कुचले, वंचितों और शोषितों को एक मुखर आवाज दी, या फिर एक खुदगर्ज, मौकापरस्त नेता की तरह जिसने भ्रष्टाचार के आरोपों की आंच में व्यवस्था-परिवर्तन के ऐसे स्वर्णिम मौके गंवा दिए जो इतिहास विरलों को ही देता है।? क्या लालू को ऐसे जमीनी नेता की तरह याद किया जाएगा जिसे अपनी असीम संभावनाओं की समझ ही नहीं थी, या फिर वह जिसने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की वेदी पर उन सभी संभावनाओं की बलि दे दी?
आज लालू पर उनके विरोधी ‘‘बिहार के सबसे बड़े जमींदार’’ होने का लांछन लगाते हैं। उनके मुताबिक उन्होंने सत्ता का दुरुपयोग करके अपने और अपने परिवार के लिए भ्रष्ट तरीकों से 1,500 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति अर्जित की। तीन केंद्रीय एजेंसियों सीबीआइ, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय ने जांच भी शुरू कर दी है। सीबीआइ ने तो एक एफआइआर लालू, उनकी पत्नी राबड़ी देवी और छोटे पुत्र, उप मुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव के खिलाफ दर्ज भी कर ली है। लालू और उनका कुनबा इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का राजनीतिक विद्वेष और प्रतिशोध मानता है।
आरोप निस्संदेह किसी को दोषी सिद्ध नहीं करते, और लालू भी तब तक निर्दोष हैं जब तक इन आरोपों की निष्पक्ष जांच और उनकी सत्यता अदालत में प्रमाणित न हो जाए। इसके पहले आय से अधिक संपत्ति के आरोप के एक केस में वे बेदाग साबित हो चुके हैं। यह सही है कि सीबीआइ जैसी एजेंसियां राजनैतिक दबाव जैसे आरोपों से अछूती नहीं रही हैं। लेकिन यह पहली बार नहीं है जब लालू पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। राजद सरकार के पंद्रह साल के शासन के दौरान उनपर और उनकी सरकार पर कई आरोप लगे। आखिरकार 900 करोड़ रुपये के चारा घोटाला में उन्हें सीबीआइ की अदालत ने तकरीबन सत्रह साल की सुनवाई के बाद 2013 में दोषी भी पाया। इस बार के आरोप सिर्फ उनपर नहीं, उनके परिवार के सदस्यों पर भी लगे हैं। न सिर्फ उनके दो मंत्री-पुत्र बल्कि उनकी कुछ पुत्रियां और एक दामाद भी संदेह के घेरे में हैं। कहा जा रहा है कि उनकी बहुत सारी संपत्तियां फर्जी तरीकों से अर्जित की गई हैं। भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी का मानना है कि यह चारा घोटाला से कई गुना बड़ा घोटाला है।
लालू का देश की सियासत में लंबा अनुभव रहा है। उन्हें यह बताने की जरूरत नहीं है कि राजनीति में जन धारणा (पब्लिक परसेप्शन) का क्या महत्व है? किसी भी नेता के लिए उसकी छवि ही उसकी साख, उसकी कुल जमा-पूंजी होती है। भ्रष्टाचार के दाग लगने पर राजनैतिक जीवन के पटाक्षेप होने के उदाहरण भारतीय राजनीति में बहुतायत हैं। हालांकि लालू कुछ अर्थों में इसके अपवाद रहे हैं। चारा घोटाला में दोषी पाए जाने के बाद भी मतदाताओं को रिझाने की उनकी क्षमता कम नहीं हुई है। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में उनके दल का प्रदर्शन इसका संकेत है कि मतदाताओं का एक बड़ा तबका अभी भी ऐसे आरोपों को कम से कम चुनाव के दिन खास तवज्जो नहीं देता है। ऐसे राज्य में जहां जाति और जमात ही मत निर्धारण का वर्षों पुराना और जांचा-परखा पैमाना रहा है, लालू की लोकप्रियता के कारण ढूंढ़ना कोई रॉकेट साइंस नहीं है। जिस तरह से उन्होंने यादव और मुस्लिम मतदाताओं (एमवाइ), जिनकी संख्या बिहार में तकरीबन 30 प्रतिशत है, को अपने पक्ष में लामबंद किया वह उनके लिए तुरुप का इक्का साबित हुआ है।
लेकिन क्या लालू सिर्फ एक जाति या जमात विशेष के नेता रहे हैं? उनका प्रादुर्भाव सत्तर के दशक में जेपी आंदोलन के दौरान जरूर हुआ लेकिन राष्ट्रीय या बिहार की राजनीति में उनकी धमक नब्बे के दशक की शुरुआत में तब सुनाई दी जब मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को उनकी रथ यात्रा के दौरान गिरफ्तार करवाया था। कांग्रेस सरकार के दौरान हुए भागलपुर दंगों के बाद उनकी छवि धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में उभरी और अल्पसंख्यकों ने उनमें अपना एक नया रहनुमा ढूंढ़ा था। समाज का बड़ा उपेक्षित तबका भी उन्हें अपना मुखर नुमाइंदा मानने लगा था क्योंकि मंडल कमीशन की रिपोर्ट के लागू होने के बाद हुए आंदोलन के दौरान उन्होंने पिछड़े वर्गों के आरक्षण की पुरजोर वकालत की।
लालू तब तक महज एक युवा यादव नेता के रूप में जाने जाते थे, मगर मंडल आंदोलन के बाद उन्हें तमाम पिछड़े वर्गों, जिसमें अति पिछड़ा भी शामिल थे, का नेता माना जाने लगा। कांग्रेस ने अस्सी के दशक में बिहार में पांच बार मुख्यमंत्री बदले, जो सभी अगड़ी जातियों से थे। यह वह दौर था जब बिहार में कांग्रेस और भाजपा की राजनीति अगड़ी जातियों के इर्दगिर्द घूमा करती थी। उस दशक में कांग्रेस रामलखन सिंह यादव सरीखे कद्दावर नेता को मुख्यमंत्री पद के लिए उपयुक्त नहीं समझती थी। कांग्रेस सरकार के पतन के बाद लालू न सिर्फ यादवों वरन सभी ओबीसी वर्ग की जातियों के लोकप्रिय नेता के रूप में उभरे, एक ऐसा नेता जो उनकी बरसों की अनदेखी के खिलाफ आवाज बुलंद कर रहा था।
उन दिनों नीतीश कुमार सरीखे सहयोगी भी उनका लोहा मानते थे। मुख्यमंत्री के रूप में तमाम आला अफसरों की टोली लेकर पिछड़ों-दलितों खासकर मुसहरों की बस्तियों में जाकर सफाई के प्रति जागरूकता का अभियान चलाते थे और यदा-कदा पटना की तत्कालीन महिला जिलाधीश को वहां के बच्चों के नहलाने और बाल कटवाने का इंतजाम कराने को कहते थे। टीवी चैनलों का अवतरण हो चुका था और लालू उनकी ताकत को पहचान चुके थे। वे जहां जाते, चैनलों के कैमरामैन उनके पीछे होते। फुलवरिया गांव के गरीब और पिछड़े युवक का भैंस की पीठ से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक सफर एक किंवदंती की मानिंद था। रूमानी और रोमांचक।
इस रोमांच या रोमांस का अंत अंतत: चारा घोटाला के साथ हुआ। सामाजिक न्याय का पुरोधा सरकारी खजाने की लूट में साझीदार होने का अभियुक्तत बना और दोषी साबित हुआ। गौर करें तो लालू का पतन महज एक व्यक्ति-विशेष का पतन नहीं था। यह पतन समाजवाद और सामाजिक न्याय के एक जीवंत प्रतीक का था जिसे तमाम पिछड़े, अति-पिछड़े नायक के रूप में स्वीकार कर चुके थे।
लालू खुद को निर्दोष बताते हैं और चारा घोटाला केस में सीबीआइ कोर्ट के फैसले के खिलाफ झारखंड हाइकोर्ट में उनकी अर्जी पर सुनवाई चल रही है। लेकिन राजनैतिक विश्लेषक मानते हैं कि सत्तासीन होने के बाद उनकी प्राथमिकताएं बदल गईं।
भ्रष्टाचार के बाद परिवारवाद का भी उनपर आरोप लगा। चारा घोटाला में जेल जाने के पहले पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवाना इसका संकेत था कि वे परिवार से बाहर किसी को सत्ता सौंपना नहीं चाहते थे। नीतीश और जेपी आंदोलन के कई साथी उनपर लोहिया के सिद्धांतों की तिलांजलि देने का दोष लगाकर साथ छोड़ चुके थे। फिर भी लालू बिंदास और बेपरवाह रहे, इससे बेखबर कि पिछड़े वर्गों की आशाओं और उम्मीदों की पोटली उनके कंधों पर थी।
लेकिन हकीकत यह थी कि तब तक बिहार के पिछड़े वर्गों के बेताज बादशाह होने का ताज उनसे छिन चुका था। अब वे सिर्फ अपने स्वजातियों यानी यादवों, या फिर अकलियतों के नेता के रूप में देखे जाने लगे। ओबीसी के अन्य बड़े नेता जैसे नीतीश और उपेंद्र कुशवाहा लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) जैसे जाति समीकरण बनाकर उनके प्रभुत्व को चुनौती देने लगे। यादवों को छोड़कर बाकी पिछड़ी जातियों का उनसे मोहभंग स्वाभाविक था। उनके लिए लालू अब सामाजिक न्याय के मसीहा नहीं, एक जाति-विशेष के लड़ाका थे। उनसे उम्मीदें टूट चुकी थीं। 2005 आते-आते लालू के दल का मत प्रतिशत लगभग दस प्रतिशत कम हो चुका था। वे अब अजेय नहीं रहे।
इस सबके के बावजूद लालू बिहार की राजनीति में अप्रासंगिक नहीं हुए। 2005 में पंद्रह साल के बाद उन्होंने सत्ता जरूर खोई, पर चुनाव-दर-चुनाव में उन्हें तकरीबन 20 प्रतिशत मत मिलते रहे, जो किसी भी अन्य दल से अधिक था। इसे नकारा नहीं जा सकता कि उनकी सत्ता शायद बरकरार रहती, अगर नीतीश और भाजपा का गठबंधन नहीं हुआ होता या फिर वे तमाम पिछड़े वर्गों की आशाओं पर खरे उतरे होते।
आज लालू के पास 20 प्रतिशत वोट है तो नीतीश के पास भी कम से कम पंद्रह प्रतिशत वोट है। 2015 चुनाव के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं। नीतीश की अपनी जाति का वोट बिहार में मात्र तीन से चार प्रतिशत है। उन्हें पंद्रह प्रतिशत मत मिलना यह संकेत देता है कि कामकाज और समावेशी विकास के आधार पर एक नेता समाज के सभी वर्गों का समर्थन पा सकता है। लालू में निस्संदेह अपूर्व क्षमता थी लेकिन ‘गेम-चेंजर’ होने के मौके उन्होंने दो-दो बार गंवाए।
पिछले चुनाव में बिहार की जनता ने उन्हें दोबारा अवसर दिया लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों की नई लड़ी ने फिर उन पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगा दिया है। पटना में आगामी 27 अगस्त को होने वाली राजद की रैली में उनकी प्रतिष्ठा दांव पर होगी।
क्या लालू फिर वापसी कर सकते हैं जैसा उन्होंने दो वर्ष पूर्व किया था जब राजनैतिक पंडित इसे उनके लिए टेढ़ी खीर समझ रहे थे? इसका उत्तर फिलहाल समय के गर्भ में है लेकिन जब भी इतिहास उनका आकलन करेगा तो वह परस्पर विरोधी विशेषताओं से परिपूर्ण उन नायकों की भांति होंगे जिनके दो रूप और दो स्वरूप थे। संभवत: आर.एल. स्टीवेंसन के एक काल्पनिक किरदार, डॉ. जैकिल एंड मिस्टर हायड, की तरह उन्हें एक ही रूप में दर्शाना दुरूह होगा।
एक चेहरा उस लालू का होगा जिसने सामाजिक न्याय का शंख एक वर्णवादी, ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ फूंका था; जिसके नेतृत्व ने वंचितों के एक बड़े समूह को एकीकृत किया तो दूसरा उस लालू का जिसने उस बड़ी और उपेक्षित जमात को निराश किया जिसने उसके अंदर एक व्यवस्था बदलने वाली बेचैनी को कभी महसूस किया था।
राघोपुर में तो अब भी हीरो
राघोपुर से कुमार गणेश
भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रहे उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव की छवि राघोपुर में किसी हीरो से कम नहीं है। बिहार के वैशाली जिले का राघोपुर अरसे से लालू प्रसाद यादव का सबसे पसंदीदा क्षेत्र है। लालू खुद कई बार वहां का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। बाद में उनकी पत्नी, बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी वहां से विधायक रहीं। फिलहाल उनके बेटे तेजस्वी यादव वहां से विधायक हैं। वहां से बस एक बार कुछ वोटों से राबड़ी देवी को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। लगभग 40 फीसदी यादव वोट वाले इस क्षेत्र में लालू परिवार के प्रति जो दीवानगी है, शायद उनके गृह जिले में भी देखने को न मिले।
राघोपुर का दिलावलपुर और फतेहपुर यादवों का गढ़ माना जाता है। तेजस्वी के इस्तीफा देने और उनपर लगे आरोपों जैसी मांगों को यहां के लोग सिरे से खारिज करते हैं। सत्तर साल के कैशाल यादव और लगभग इतनी ही उम्र के रामइकबाल यादव ने कहा कि सब साजिश है। अगर साबित हो गया तो? जवाब आया कि साबित करना भी साजिश का हिस्सा ही होगा। इन मुद्दों पर नीतीश की चुप्पी पर भी लोग सवाल खड़े करते हैं। बुजुर्गों में जो दीवानगी लालू यादव को लेकर है, युवाओं में वही तेजस्वी यादव को लेकर दिखती है।
सीतेश यादव, मन्नू यादव सहित कई युवाओं ने कहा कि अगर इस्तीफा देने की नौबत आई तो कुछ भी हो सकता है। अपने घर तक जाती सड़क दिखाते हुए कैलाश यादव ने कहा कि यह सब लालू की देन है। दरवाजे पर बैठी कांति देवी ने कहा कि चुनाव में खुद राबड़ी देवी घर-घर घूमती हैं। हालांकि विद्यूपुर चौक पर बैठे संजय सिंह और मनोज सिंह सहित बड़ी संख्या में गैर-यादवों के विचार कुछ और हैं। उन्हें लगता है कि तेजस्वी को भ्रष्टाचार के आरोपों को देखते हुए तुरंत इस्तीफा दे देना चाहिए। दो दशक से इस क्षेत्र का विकास रसातल में चला गया है। बस केंद्रीय योजनाओं का काम होता है। जीत के बाद तेजस्वी यादव ने किसी गांव का दौरा नहीं किया है।
पटना के गांधी सेतु से चंद किलोमीटर नीचे जरूआ पुल है। वहां से केवल तीन किलोमीटर बाद राघोपुर विधानसभा का क्षेत्र शुरू हो जाता है। पहली पंचायत अमेर। मुख्य सड़क से गंगा के किनारे की लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी। चकाचक सड़के और गलियां। हर दूसरे दरवाजे पर बाइक और हर पांचवें-सातवें घर पर चारपहिया वाहन। केले की खेती समृद्धि का मुख्य कारण है। बरसात का पानी उतरने के बाद यहां की मिट्टी सोना उगाती है। और तो और, बालू से भी लोग खूब कमाते हैं। बालू पर किसान जमकर तरबूज और परवल की खेती करते हैं। यहां की बड़ी आबादी इस समृद्धि का श्रेय लालू परिवार को देती है।
लगभग ऐसी ही छवि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गढ़ बाढ़ और खासकर हरनौत में है, जहां से कभी वे विधायक हुआ करते थे। हालांकि इन दोनों की पहचान और पकड़ का फलक बहुत ही व्यापक है। विधानसभा क्षेत्र का उदाहरण तो महज बानगी भर है।