उच्च शिक्षा हासिल करना हर छात्र का सपना होता है। इस सपने को पूरा करते हैं विश्वविद्यालय। जिन छात्रों का नामांकन देश के नामी विश्वविद्यालयों में हो जाता है उनकी तो मन की मुराद पूरी हो जाती है। पर बड़ी संख्या में ऐसे भी छात्र होते हैं जो अच्छे नंबर से पास होने के बावजूद थोड़े अंकों की कमी के कारण ऐसी जगह तक नहीं पहुंच पाते हैं। ऐसे में यदि ये छात्र साधन संपन्न हैं तो इनके पास एक बेहतर विकल्प निजी या डीम्ड विश्वविद्यालयों के रूप में मौजूद है। इन विश्वविद्यालयों के पास अनुभवी शिक्षकों की टीम के साथ व्यवस्थित आधारभूत ढांचा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला और कई अन्य सुविधाएं भी होती हैं जो छात्रों को आकर्षित करती हैं। यहां से छात्रों को मनमाफिक शिक्षा और डिग्री तो मिलती ही है, रोजगार के अवसर भी उपलब्ध होते हैं।
ऐसे विश्वविद्यालयों का प्रबंधन तो पूरी तरह से निजी कंपनियों के हाथ में होता है पर इनकी स्थापना सरकार की मंजूरी के बाद ही होती है। केंद्र सरकार और जिस राज्य में ये विश्वविद्यालय होते हैं, वहां की सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार इनका संचालन होता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) इन विश्वविद्यालयों को मान्यता देता है। देश में अभी 282 निजी विश्वविद्यालय काम कर रहे हैं। ये विश्वविद्यालय छात्रों को डिग्रियां देने के लिए अधिकृत हैं। यूजीसी के निर्देश के अनुसार ये विश्वविद्यालय किसी संस्था या कॉलेज को संबद्धता प्रदान नहीं कर सकते। इतना ही नहीं, इन्हें अपने कोर्स और उसकी पढ़ाई से जुड़ी पूरी जानकारी यूजीसी को देनी होती है।
इन विश्वविद्यालयों में सरकारी विश्वविद्यालयों की तुलना में बहुत ज्यादा फीस वसूली जाती है। इसके पीछे तर्क यह है कि यहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए दूसरे देशों से शिक्षक बुलाए जाते हैं, छात्रों को विश्वस्तरीय सुविधा उपलब्ध कराई जाती है और वैसी ही शिक्षा दी जाती है जिसका वैश्विक महत्व है। इन विश्वविद्यालयों द्वारा ज्यादा फीस वसूलने की बात मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी स्वीकार करते हैं। वह आउटलुक से कहते हैं कि फीस के ढांचे में पारदर्शिता होनी चाहिए, कोई छुपी हुई राशि नहीं ली जानी चाहिए और छात्रों के अभिभावकों के सामने फीस, पढ़ाई पर आने वाले पूरे खर्च और हर साल फीस में होने वाली वृद्धि को लेकर सही तस्वीर पेश की जानी चाहिए। अगर ये संस्थान ऐसा नहीं करते हैं तो, इस पर जावड़ेकर का कहना है कि तब यह एक तरफ छात्र और उनके अभिभावक तथा दूसरी तरफ संस्थान के बीच समझौते जैसा है। ऐसे में यह छात्र और अभिभावक पर है कि वे किस कॉलेज में प्रवेश लेना चाहते हैं। क्या इन्हें कानून के दायरे में लाया जाएगा के सवाल पर मानव संसाधन विकास मंत्री कहते हैं कि हर राज्य का अपना कानून है। लेकिन जब कोर्ट ने मेडिकल कॉलेजों की न्यायसंगत फीस के बारे में सरकार से कमेटी बनाने के लिए कहा तो हमने कमेटी गठित कर दी। डीम्ड विश्वविद्यालयों की शिक्षा की गुणवत्ता के बारे में जावड़ेकर का मानना है कि यदि यहां अच्छी शिक्षा नहीं दी गई तो ये बने नहीं रह पाएंगे। इन्हें रैंकिंग ही नहीं मिलेगी और मूल्यांकन के दौरान इनका आकलन नहीं होगा। अंततः इन्हें अनुदान जैसी सरकारी सहायता भी नहीं मिल पाएगी।
एमिटी विश्वविद्यालय की वाइस प्रेसीडेंट (कम्युनिकेशन) सविता मेहता कहती हैं कि उनके विश्वविद्यालय में छात्रों को सिर्फ डिग्री नहीं दी जाती बल्कि ऐसे कोर्स पढ़ाए जाते हैं जो सीधे कॅरिअर से जुड़े हैं। हमारे यहां कोर्सों को लेकर व्यापक विकल्प उपलब्ध हैं। कोर्स चूंकि उद्योगों को ध्यान में रख कर बनाए जाते हैं इस कारण ये छात्रों के लिए काफी लाभदायक हैं। वह बताती हैं 85 फीसदी से ज्यादा अंक लाने वाले छात्रों के लिए विश्वविद्यालय के केंद्रों पर छात्रवृत्ति भी दी जाती है।
वहीं दूसरी ओर, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन, नई दिल्ली की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. टी. गीता का मानना है कि सरकारी विश्वविद्यालय निजी विश्वविद्यालयों से काफी अच्छे हैं। वह कहती हैं, “आज भी सरकारी विश्वविद्यालयों में उच्च अंक हासिल करने वाले छात्र आ रहे हैं जबकि निजी विश्वविद्यालय में अधिकांशतः वही छात्र जाते हैं जिनके नंबर कम आते हैं। सरकारी विश्वविद्यालयों में गुरु-शिष्य का रिश्ता रहता है जबकि निजी विश्वविद्यालयों में यह ग्राहक और सेवा प्रदाता की तरह होता है। ऐसे में सरकारी विश्वविद्यालयों का रुतबा कभी कम नहीं होने वाला है।”
भारत सरकार ने निजी विश्वविद्यालयों को बढ़ावा देने के लिए 1995 में निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना और विनियमन विधेयक पेश किया। इसके बाद इस पर कई स्तर पर चर्चा की गई। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र की भागीदारी पर विचार जानने के लिए छह सदस्यीय उच्चस्तरीय समिति गठित की। इस समिति में निजी सेक्टर, नामी संस्थान के लोगों के अलावा विशेषज्ञ शामिल थे। इस समिति ने देश में बड़ी संख्या में निजी विश्वविद्यालय खोलने की जरूरत बताई। शिक्षा की उच्च गुणवत्ता को बनाए रखने पर जोर दिया और बदलावों को शीघ्र और प्रभावशाली ढंग से स्वीकार करने की बात कही। निजी विश्वविद्यालयों के लिए नियम और व्यवस्था बनाते समय इस बात का ध्यान रखा गया कि विदेशी छात्र भी भारत में पढ़ाई करने की ओर आकृष्ट हो सकें। यह वही समय था जब हर ओर ग्लोबलाइजेशन का माहौल था। शिक्षा इससे कैसे दूर रह सकती थी। यहां भी यह माहौल बना। जिन निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई वहां ऐसी सुविधाएं उपलब्ध थीं जिनके बारे में अभी तक सोचा भी नहीं गया था।
देश में निजी विश्वविद्यालय तेजी से आगे क्यों बढ़ रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है। सरकारी विश्वविद्यालयों और इनसे जुड़े कॉलेजों में शिक्षा का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। शिक्षकों की कमी इतनी है कि कई कॉलेजों में छात्रों की संख्या हजारों में है जबकि इनकी तुलना में शिक्षकों की संख्या मुट्ठी भर। इसके ठीक उलट, निजी विश्वविद्यालय अपने यहां न सिर्फ विदेशों से अच्छे शिक्षकों को बुलाते हैं बल्कि देश के ही नामी शिक्षकों को भी गेस्ट टीचर के रूप में लाते हैं। रिटायर शिक्षकों के अनुभव का भी ये फायदा उठाते हैं। जब ऐसे लोगों के नाम छात्रों के सामने आते हैं तो वे इन विश्वविद्यालयों की ओर रुख करने से खुद को रोक नहीं पाते।
जब सरकारी और निजी विश्वविद्यालयों की सुविधाओं की तुलना की जाती है तो यहां भी निजी विश्वविद्यालयों का पलड़ा भारी रहता है। शोध से जुड़ी पुस्तकें हों या प्रयोगशाला में इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक, यह यहां तत्काल पहुंच जाती है जबकि सरकारी विश्वविद्यालयों में ऐसा नहीं होता। निजी विश्वविद्यालयों में निर्णय की प्रक्रिया काफी सरल होती है, इसकी वजह से यह संभव होता है। सरकारी विश्वविद्यालयों में एक फैसला लेने में इसे कई चरणों से गुजरना पड़ता है। परिणाम यह होता है कि छोटी जगहों पर चल रहे निजी विश्वविद्यालयों में वह चीज पहले पहुंच जाती है जो देश की राजधानी के सरकारी संस्थानों में काफी बाद में पहुंचती है। इनके आगे बढ़ने का एक पहलू यहां की चमक-दमक भी है। जहां सरकारी विश्वविद्यालयों के क्लास रूम या छात्रावास साधारण सुविधाओं वाले होते हैं वहीं निजी विश्वविद्यालयों के क्लास रूम और छात्रावास आधुनिक सुविधा से लैस होते हैं। इनमें से कुछ विश्वविद्यालय कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के तहत चलाए जाते हैं जबकि कुछ में छात्रवृत्ति की सुविधा भी है। मगर यह संख्या काफी कम या सीमित है। ज्यादा निजी विश्वविद्यालयों को इस क्षेत्र में आगे आना होगा ताकि समाज के मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग के लोग भी यहां शिक्षा पा सकें। ऐसा हो जाए, तो देश का एक बड़ा वर्ग गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाने की दौड़ में शामिल हो जाएगा।
यह सही है कि देश की उच्च शिक्षा को नई दिशा देने में निजी विश्वविद्यालयों की प्रमुख भूमिका है। यहां छात्रों की संख्या हर सत्र में बढ़ रही है। यानी ये लोगों के विश्वास पर खरे उतर रहे हैं। लेकिन इनकी भूमिका विश्व के नामी विश्वविद्यालयों सरीखी नहीं है। उस स्तर तक पहुंचने के लिए अभी इन्हें काफी काम करना होगा। अगर इन विश्वविद्यालयों की शिक्षा के स्तर को छूने का ईमानदारी से प्रयास किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब इनका नाम भी विश्व के टॉप संस्थानों में लिया जाएगा।