संगीतकार खेमचंद प्रकाश के छोटे भाई बसंत प्रकाश अपने अग्रज की तरह नामी-गिरामी तो नहीं हुए, पर संगीतकार की हैसियत से कुछ सुंदर गीत उन्होंने भी फिल्म-जगत को दिए। अपने बड़े भाई के साथ लतिका पिक्चर्स की पौराणिक फिल्म जय शंकर (1951) में तो वह कुछ नहीं कर पाए पर फिल्मिस्तान जैसे बड़े बैनर की डी.डी. कश्यप द्वारा निर्देशित फिल्म बदनाम (1952) में उनका संगीत बेहद मधुर बनकर उभरा। बलराज साहनी और श्यामा अभिनीत इस फिल्म में यूं तो ‘जिया नहीं लागे हो’ (लता, साथी), ‘काहे परदेसिया को अपना बनाया’ (लता), बेहद कर्णप्रिय और मुलायम स्वर के गीत थे। लेकिन ‘घिर आई है घोर घटा’ (गीता), ‘यह इश्क नहीं आसां’ (शंकर दासगुप्ता), ‘ले जा अपनी याद भी ले जा’ (लता) जैसे शैलेन्द्र और हसरत के लिखे कई सुंदर गीत थे। जो गीत लाजवाब था, वह था लता के स्वर में ‘साजन तुमसे प्यार करूं मैं कैसे तुम्हें बतलाऊं।’ इस गीत में क्या लोच है, क्या मेलोडी है! पृष्ठभूमि में बांसुरी और इंटरल्यूड्स में पियानो एकॉर्डियन की क्या खूबसूरत संगत है जिसका कोई जवाब नहीं। यह आश्चर्य नहीं कि इस गीत को चुनकर एच.एम.वी. ने लता के ‘रेयर जेम्स’ कैसेट्स में प्रतिष्ठित स्थान देने लायक समझा। पं. मोहनलाल और अपने भाई के शिष्य रहे बसंत प्रकाश गायन और कत्थक दोनों में हुनरमंद थे।
जयंत देसाई की रंजन और श्यामा अभिनीत निशान डंका (1952) में भी बसंत प्रकाश का संगीतबद्ध एक गीत ‘शाम सुहानी नदी के किनारे मचलने लगे आज अरमां हमारे’ (गीता, तलत और साथी) में कोरस के साथ संगति का प्रयोग बड़ा अनूठा और सराहनीय था। सलोनी (1952) में बसंत प्रकाश ने लता से तीन खूबसूरत गीत गवाए थे। ‘मेरी वीणा के सुर सात रे’ शास्त्रीय रंग लिए एक मेलोडी प्रधान रचना थी जिसमें बसंत प्रकाश ने त्रिताल का बहुत अच्छा उपयोग किया था। ‘जिंदगी के सहारे लौट आ’ की धुन में भी प्यारी-सी कशिश और लोच भरी थी। ‘मुझे दर्द तूने ये क्या दिया’ त्रिताल में बनाई गई बेहद खूबसूरत मेलोडीयुक्त गजल थी। इस गीत को सुनना आज भी स्वर्गिक अनुभूति देता है। बसंत प्रकाश का संगीत मूलत: फिल्म-संगीत में प्रचलित छठे दशक के मेलोडी प्रधान दौर का प्रतिनिधि है। उनकी मेलोडी अक्सर सौम्य और सुसंस्कृत रहती थी और ताल तथा लय के सुंदर संयोजनों से वे फिल्म-संगीत के इस विकासमान समय में गीतों को एक अलग पहचान देने में सफल रहे।
जिम्मी और एस. मोहिंदर के साथ संगीत देते हुए बसंत प्रकाश ने भी फिल्मिस्तान की आई.एस. जौहर निर्देशित श्रीमती जी (1952) में फिल्म के कथ्य के अनुरूप ‘लिपस्टिक लगाने वाले’ (शमशाद और साथी) और ‘कभी हमारे घर भी आओ जी नकदनारायणजी’ (शमशाद और साथी) जैसे हल्के-फुल्के गीतों की धुनें तैयार की थीं। फिल्मिस्तान की सुपरहिट फिल्म अनारकली (1953) में सी. रामचंद्र की सदाबहार धुनों के साथ बसंत प्रकाश का भी कंपोज किया एक सुंदर गीत ‘आज जो जाने वफा’ (गीता) शामिल था। दरअसल पहले अनारकली के लिए बसंत प्रकाश ही अनुबंधित थे पर इस गीत की रेकॉर्डिंग के बाद मतभेद के कारण उन्होंने फिल्म छोड़ दी। फिर भी उनका यह रेकॉर्ड किया गीत फिल्म में शामिल किया गया।
कुल मिलाकर बसंत प्रकाश को बेहतरीन सफलता नसीब नहीं हुई। गुंजाल निर्देशित भक्त ध्रुव (1957-अविनाश व्यास के साथ), अतुल चित्र की महारानी (1957-जे.डी. मजुमदार के साथ), पी.एन. अरोड़ा की नीलोफर (1957-अविनाश व्यास के साथ) जैसी फिल्मों में उनका संगीत पिट गया। फिर वर्षों खोए रहने के बाद फिल्मिस्तान ने एक बार फिर उन्हें नितिन बोस निर्देशित हम कहां जा रहे हैं (1966) में अवसर दिया।
इस फिल्म में वैसे तो पैरोडी और हल्के गीत थे, पर मेहंदी हसन के गाए मशहूर फिल्मी गीत ‘रफ्ता-रफ्ता वो मेरे दिल के अरमां हो गए’ की धुन को बदलकर आशा और महेंद्र से दो गाने की शक्ल में गवाकर बसंत प्रकाश ने काफी मकबूलियत पाई थी। इसी प्रकार सत्येन बोस निर्देशित ज्योत जले (1968) में उन्होंने मुकेश से एक बहुत सुंदर दर्द-भरा गीत गवाया था, ‘और कितने गम उठाए आदमी।’
वर्षों की गुमनामी के बाद बतौर संगीतकार बसंत प्रकाश का नाम हमें जवाहरलाल नेहरू नेशनल यूथ सेंटर द्वारा निर्मित ईश्वर अल्लाह तेरे नाम (1982) और फिर ए.बी.एस. फिल्म्स, बंगलौर की अबला (1989) में मिलता है जिनमें उन्होंने क्रमश: भरत व्यास और रवींद्र जैन के लिखे गीत कंपोज किए थे। पर उनकी यह वापसी औपचारिक ही रही। 19 मार्च, 1996 को बसंत प्रकाश की मुंबई में गुमनामी में ही मृत्यु हुई।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)