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आजादी और विभाजन

यह अवसर उन लोगों को याद करने का, जिनके बलिदानों के कारण भारत अंग्रेजों के शासन से मुक्त हो सका
आजादी की अग्निशिखाएं

स्वाधीनता प्राप्ति की सत्तरवीं वर्षगांठ को अनेक तरह से मनाया जा सकता है। यह दिन हर्ष और उल्लास का तो है ही, पीछे की ओर मुड़ कर एक नजर अतीत पर डालने का भी है क्योंकि यह सूक्ति आज भी पुरानी नहीं पड़ी है कि जो लोग अपने इतिहास से नहीं सीखते, वे अतीत की गलतियां दुहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। 15 अगस्त, 1947 भारत के आजाद होने का दिन ही नहीं, उसके विभाजित होने का दिन भी था। और यह विभाजन शांति और सौहार्द्र के साथ नहीं बल्कि अभूतपूर्व हिंसा, बलात्कार, लूटपाट, आगजनी और अमानुषिकता के साथ हुआ था। मानवता के इतिहास में पहले कभी भी इतने बड़े पैमाने पर आबादी की अदला-बदली नहीं हुई थी जैसी विभाजन के कारण हुई। अनुमान है कि डेढ़ करोड़ लोग अपनी जड़ों से उखड़ कर शरणार्थी के रूप में भारत से पाकिस्तान और पाकिस्तान से भारत आए। दस से पंद्रह लाख लोग मारे गए और न जाने कितने घायल हुए। इस नृशंसता के मूल में हिंदू, मुस्लिम, सिख सभी समुदायों का सांप्रदायिक विद्वेष था जो सदियों से न जाने कहां छुपा हुआ था और अनुकूल परिस्थिति पाकर फूट पड़ा था। आज भी यह विद्वेष समाप्त नहीं हुआ है और भारतीय राष्ट्र राज्य के अस्तित्व को चुनौती देता रहता है क्योंकि इसका मूल चरित्र विभाजक और विघटनकारी है।

यह अवसर उन सभी लोगों को याद करने और उनकी स्मृति को नमन करने का भी है जिनके बलिदानों के कारण भारत अंग्रेजों के औपनिवेशिक शासन से मुक्त हो सका। इनमें वे स्वाधीनता सेनानी भी थे जिन्होंने अपनी कलम का इस्तेमाल राष्ट्रीय भावनाओं को जगाने के लिए किया और आजादी के अमर गीत रचे। बीस वर्ष पहले जब स्वाधीनता की स्वर्ण जयंती मनाई गई थी, तब एक ऐसे संस्थान ने इन अमर गीतों को फिर से हमारे सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया था जिससे इस तरह की कतई उम्मीद नहीं की जाती। यह संस्थान था इफको यानी इंडियन फारमर्स फर्टिलाइजर कोआपरेटिव लिमिटेड और इसने इस अवसर पर हिंदी के प्रख्यात आलोचक शिव कुमार शर्मा द्वारा संपादित एक संग्रहणीय पुस्तक प्रकाशित की थी जिसका नाम था “आजादी की अग्निशिखाएं।”

पुस्तक में सबसे पहले प्राचीन काल की कुछ ऐसी रचनाएं या उनके अंश हैं जिनमें भारत भूमि की महत्ता का वर्णन है। इसके लिए ऋग्वेद, महाभारत, भूमिसूक्त, श्रीमद् भागवत पुराण आदि ग्रंथों से सामग्री ली गई है और तुलसीदास के एक सुंदर कवित्त को भी शामिल किया गया है जिसमें उन्होंने कहा है कि भारत भूमि में मनुष्य को बहुत कठिनाई से जन्म मिलता है और ऐसे देश में जन्म लेकर भी जो ईश्वर की भक्ति न करे वह मानों सोने के हल में कामधेनु को जोतकर विष के बीज बोता है। इसी तरह 1857 के विद्रोही सैनिकों का कौमी गीत आज भी प्रेरणा देने वाला है क्योंकि उसमें व्यक्त भावनाओं की आज सबसे अधिक जरूरत महसूस की जा रही है। “हम हैं इसके मालिक हिंदुस्तान हमारा, पाक वतन है कौम का जन्नत से भी प्यारा” के साथ शुरू होने वाले इस ऐतिहासिक गीत का अंत इस तरह होता है: “आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा, तोड़ो गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा। हिंदू मुसलमां सिख हमारा भाई-भाई प्यारा, यह है आजादी का झंडा इसे सलाम हमारा।।”

आज इस गीत को पढ़कर कई तरह के विचार मन में आते हैं। सबसे पहले तो यह कि भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के ये सेनानी, जो बिना किसी पूर्व तैयारी और संगठन के स्वतःस्फूर्त ढंग से अंग्रेजों का सामना करने के लिए एकजुट हो गए थे, अपनी सोच में कितने धर्मनिरपेक्ष थे। आजादी की इस लड़ाई में कौन हिंदू है, कौन मुसलमान, इसका किसी को भी खयाल तक नहीं था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि इन विद्रोही सैनिकों में बहुतायत हिंदुओं की थी, लेकिन उन्हें अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को अपना प्रतीकात्मक नेता चुनने में कोई झिझक नहीं हुई क्योंकि उनके मन में हिंदू-मुसलमान-सिख का भेदभाव नहीं था। भारत में सांप्रदायिकता के विकास पर बहुत शोध हुआ है लेकिन अभी तक भी पूरी तरह से यह रहस्य नहीं खुल पाया है कि सांप्रदायिक विद्वेष और वैमनस्य की विषबेल का बीजारोपण कब और कैसे हुआ और यह नब्बे साल के भीतर ही कैसे इतनी फल-फूल गई कि इसने भारतीय समाज की मूलभूत एकता की जड़ें खोखली कर दीं।

एक दूसरा विचार इस गीत की भाषा को लेकर आता है। यह कौन-सी भाषा है? हिंदी, उर्दू, हिंदुस्तानी या कुछ और? हमारे स्कूल-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में खड़ीबोली हिंदी की कविता के विकास का जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसमें भारतेन्दु हरिश्चंद्र (1850-1885) भी इस विचार के बताए जाते हैं कि खड़ीबोली केवल गद्य के लिए ही उपयुक्त है, कविता तो ब्रज भाषा में ही हो सकती है। इस इतिहास में खड़ीबोली के उस रूप में रची जा रही कविता को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाता है जिसे उर्दू का नाम दिया गया। क्या इन स्वाधीनता सेनानियों का गीत खड़ीबोली हिंदी में काव्यरचना का उत्तम उदाहरण नहीं है? यह बात इसलिए भी महत्व रखती है क्योंकि हिंदी-उर्दू विवाद और स्पर्धा का सीधा असर हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता के विकास पर हुआ है और बाद में तो उर्दू को मुस्लिम अस्मिता का एक प्रमुख प्रतीक ही बना दिया गया जिसकी परिणति उसे पाकिस्तान में राजभाषा का दर्जा मिलने में हुई। यह दीगर बात है कि इस तथ्य ने पाकिस्तान के विघटन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

स्वाधीनता की सत्तरवीं जयंती एक ऐसे समय में मनाई जा रही है जब धर्मनिरपेक्षता पर सबसे बड़ा खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में आजादी की अग्निशिखाओं को प्रज्वलित रखना सभी भारतवासियों की जिम्मेदारी है।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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