दुनिया में कितना ही शक्तिशाली व्यक्ति हो, उसकी पाचन शक्ति की एक सीमा हो सकती है। इसी तरह कितना ही शक्तिशाली शासक या देश हो, विश्वविजयी होने का सपना देख सकता है, सबको पराधीन नहीं कर सकता। कहा जाता था कि ‘ग्रेट ब्रिटेन’ के किंग-क्वीन को लगता था कि उनके साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता। तब भी बहुत से देश उसके अधीन नहीं थे। अब तो ब्रिटेन भारत के किसी विशाल प्रदेश के बराबर भी नहीं रहा। इसलिए आजादी के आनंद-सुख और अधिकारों की सीमा होती है। भारत में तो सर्वशक्तिमान अवतार माने जाने वाले महापुरुषों ने अपनों के लिए भी ‘लक्ष्मण रेखा’ तय की थी। इसलिए आजादी के गौरवशाली 70 वर्ष का जश्न मनाते हुए यह याद रखना जरूरी होगा कि अधिकारों के साथ कर्तव्य एवं अभिव्यक्ति की लक्ष्मण रेखा को लांघना व्यक्ति, संस्थान, समाज और राष्ट्र को खतरनाक गर्त की ओर ले जा सकता है। निश्चित रूप से अभिव्यक्ति पर सत्ता की नकेल कभी स्वीकार नहीं की जा सकती है। लेकिन हाल के वर्षों में दुरुपयोग के गंभीर मामलों के साथ ही अनधिकृत व्यवस्था, कुछ संगठनों और असामाजिक तत्वों ने विभिन्न क्षेत्रों में अभिव्यक्ति पर अंकुश ही नहीं हमले-हत्या तक के प्रयास किए हैं। इस दृष्टि से यह मुद्दा आजादी के साथ महत्वपूर्ण बन गया है।
संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार समाचार माध्यमों और पुस्तक-पोस्टर प्रकाशन मात्र के लिए नहीं, हर नागरिक के लिए मिला है। यही कारण है कि कुछ नियम-कानूनों के बावजूद अभिव्यक्ति के असीमित संचार माध्यमों के कारण हर क्षेत्र में इस अधिकार का सदुपयोग एवं दुरुपयोग भी हो रहा है। फिर सत्तर वर्ष पहले बने किसी नियम-कानून के पालन के नाम पर विभिन्न प्रदेशों की सरकारों, संगठनों या व्यक्तियों द्वारा ‘आपराधिक’ श्रेणी वाले कानून के नाम पर लोगों को प्रताड़ित भी किया जा रहा है। इमरजेंसी का दौर तो 1977 के बाद से खत्म हो गया लेकिन समय-समय पर कुछ सत्ताधारियों ने अप्रत्यक्ष रूप से सही आलोचना या तथ्यात्मक भंडाफोड़ को रोकने के लिए हर संभव कोशिश की है। अभिव्यक्ति का बड़ा माध्यम मीडिया है। ऐसा नहीं है कि वर्तमान परिदृश्य में मीडिया का एक वर्ग अधिक भ्रष्ट और बेईमान नहीं हुआ है। फिर भी ऐसे सैकड़ों पत्रकार-लेखक हैं, जो निर्भीक-निष्पक्ष ढंग से लिख-पढ़ रहे हैं और खतरों-हमलों का सामना कर रहे हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी और पूर्वोत्तर राज्यों में बड़ी चुनौतियां रहते विभिन्न माध्यमों से असहमति, सहमति, आलोचना, विरोध जारी है और रहेगा।
लंदन टाइम्स के एक वरिष्ठ संपादक ने लगभग 20 वर्षों पहले दिल्ली में एक लंबी बातचीत में मुझसे कहा था कि ‘भारत जैसी प्रेस की अपार स्वतंत्रता ब्रिटेन तथा अमेरिका जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी नहीं है।’ इस टिप्पणी से प्रसन्नता के बावजूद हमारी चिंताएं बढ़ती गईं। भारतीय प्रेस परिषद ने वर्षों पहले समाचार माध्यमों के लिए मार्गदर्शी नियम निर्धारित कर जारी किए। एडीटर्स गिल्ड ने भी महीनों तक विचार-विमर्श के बाद पत्रकारिता की ‘आचार संहिता’ तैयार कर जारी की। लेकिन टी.वी. समाचार चैनलों के राष्ट्रीय-क्षेत्रीय-स्थानीय चैनलों की संख्या सैकड़ों में पहुंचने के साथ फेसबुक, ट्विटर सहित सोशल मीडिया पर अभिव्यक्ति की आजादी का परम सुख, दु:ख, उपभोग हो रहा है। इस मीडिया पर नियंत्रण तो बेहद कठिन है। मतलब प्रगति के साथ अभिव्यक्ति के व्यंजनों का पहाड़ हमारे-आपके सामने है। आखिरकार, मीठा-कड़वा, अमृत-विष के पान की कोई सीमा तय करनी होगी। अमेरिका और यूरोप में भी अभिव्यक्ति के अधिकारों के दुरुपयोग, झूठी सूचनाओं के प्रसार-प्रचार, सनसनीखेज, वीभत्स और उत्तेजक विचारों को फैलाने की घटनाएं हुई हैं। भारत में जातीय, सांप्रदायिक, आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ाने वाली बातें प्रचारित होने लगी हैं। संकट यह है कि अभिव्यक्ति की दहाड़ को नियंत्रित कैसे किया जाए? यह काम कोई एक पक्ष नहीं कर सकता है। इसके लिए संसद-सरकार-अदालत, मीडिया और जिम्मेदार सामाजिक संगठनों को मिलकर आचार-संहिता तय करनी होगी। दूसरी तरफ असामाजिक तत्वों द्वारा सही आवाज दबाने के लिए किए जाने वाले प्रयासों और हमलों को रोकने के लिए राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन को समुचित निगरानी और सुरक्षा की व्यवस्था करनी होगी।
इस उत्तरदायित्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करने के लिए स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमने आउटलुक के इस अंक में चुनिंदा हस्तियों के विचारों को प्रस्तुत किया है। अभिव्यक्ति की आजादी को अक्षुण्ण रखने की शुभकामनाओं सहित।