मैं खुद के बारे में एक टिप्पणी से शुरुआत करता हूं। ‘अमर्त्य कैसा है?’ मेरे पिता के एक कजिन, मेरे अंकल सिंधु (ज्योतिर्मय सेनगुप्त) ने 1934 की 22 अगस्त को बर्दवान जेल से लिखे एक पत्र में यह सवाल पूछा था। उस समय मेरी उम्र एक साल से कम थी। उन्हें मेरा नाम ‘अमर्त्य’ पसंद नहीं आया था जो रबींद्रनाथ टैगोर ने मुझे दिया था। उन्होंने कहा कि महान टैगोर का ‘अधिक उम्र में पूरी तरह दिमाग खराब हो गया है’ कि उन्होंने एक नन्हे से बच्चे के लिए इतना ‘दांत तोड़ने वाला नाम’ चुना। ज्योतिर्मय ब्रिटिश राज के खिलाफ काम करने के आरोप में जेल में थे। उन्हें एक जेल से दूसरी जेल भेजा रहा था-ढाका जेल, अलीपुर सेंट्रल जेल, बर्दवान जेल, मिदनापुर सेंट्रल जेल। मेरे कुछ और रिश्तेदार भी दूसरी ब्रिटिश-भारतीय जेलों में ऐसे ही अनुभवों से गुजर रहे थे।
जेलों में रहने के दौरान कुपोषण के कारण ज्योतिर्मय टीबी के मरीज हो गए थे, जिसके कारण उनका दुखद अंत हुआ। छोटी उम्र में मुझे उनसे बातचीत करने के कुछ मौके मिले और उन्होंने जो कुछ कहा और लिखा, उससे मैं भी प्रेरित हुआ। वह ‘हमारे शासकों की थोपी हुई गुलामी’ से छुटकारा पाने के लिए प्रतिबद्ध थे। अगर आज के भारत में ज्योतिर्मय होते तो कितने खुश होते, जब ब्रिटिश राज खत्म हो चुका है और हमारे ऊपर किसी औपनिवेशिक शासन की थोपी हुई गुलामी नहीं है। मगर मुश्किल यह है कि क्या वह गुलामी वाकई खत्म हुई है? ब्रिटिश शासकों के बनाए हुए कानून और दंड संहिताएं अब भी हमारे जीवन के अहम हिस्सों पर काबिज हैं। इनमें से सबसे ज्यादा चर्चित शायद संहिता की धारा 377 है, जो समलैंगिक संबंधों को अपराध ठहराती है। यह खुशी की बात है कि सर्वोच्च अदालत की एक संविधान न्यायपीठ इसका पुनरीक्षण कर रही है। हालांकि अकसर इस बात को अनदेखा कर दिया जाता है कि किसी धार्मिक समूह, जिसकी परिभाषा बहुत अस्पष्ट है, की भावनाओं को बहुत ज्यादा अहमियत देना भी ब्रिटिश कानून का ही एक अवशेष है। खासकर 1927 में लाई गई दंड संहिता की धारा 295(ए) का। किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए जेल में डालने की धमकी दी जा सकती है, भले ही वह भावना कितनी भी व्यक्तिगत और अजीब तरह नाजुक हो।
चाहे भारतीय संविधान इसके उलट दावा करता हो, मगर उसमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। 3 मार्च, 2014 को सुनाए एक फैसले में सर्वोच्च अदालत ने अभिव्यक्ति के मूलभूत अधिकार को तरजीह दी, जो हमारे संविधान में शामिल है। संविधान में ‘पब्लिक ऑर्डर, शालीनता या नैतिकता’ को लेकर आग्रह उससे बिल्कुल अलग है, जिसे संगठित राजनीतिक कार्यकर्ता जोर-जबरदस्ती से लागू कराने की कोशिश करते हैं और जिसके पीछे कथित रूप से नाजुक भावनाएं होती हैं। संविधान में किसी के गोमांस खाने या उसे रेफ्रिजरेटर में रखने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, चाहे कुछ गौपूजक दूसरे लोगों की खान-पान की आदतों से आहत होते हों।
नाजुक भावनाओं का दायरा आश्चर्यजनक रूप से काफी बड़ा हो गया है। दूसरे लोगों के निजी खान-पान से आहत भावनाओं ने हत्याएं तक करा दी हैं। भारत के कई हिस्सों में प्रभावशाली समूहों की शाकाहारी भावनाओं की वजह से स्कूली भोजन में बच्चों को अंडों का पोषण नहीं मिल पाता। और गंभीर शोध के बाद लिखी गई मशहूर अंतरराष्ट्रीय विद्वानों की किताबों को डरे हुए प्रकाशकों द्वारा नष्ट कर दिया जाता है, जिन पर धार्मिक भावनाओं को आहत करने के अपराध के लिए जेल जाने का खतरा मंडराने लगता है। सजग समूहों के थोपे गए मानदंडों का उल्लंघन करने के लिए पत्रकारों को अकसर धमकियां मिलती हैं या उससे भी बुरा होता है। भारतीय मीडिया का धमकियों और दबावों के खिलाफ खड़े होने का अच्छा रिकॉर्ड है, मगर बोलने और खबरों की आजादी को और ज्यादा सामाजिक समर्थन मिलना चाहिए।
इन सबमें एक ‘असहिष्णु भारत’ का प्रमाण देखना उतनी ही बड़ी गलती है, जितनी किसी खास सामाजिक बर्ताव के लिए लोगों के उत्पीड़न को संविधान का आदेश मानना। ज्यादातर भारतीयों, जिनमें हिंदू कहे जाने वाले अधिकांश लोग (इस लेखक सहित) शामिल हैं, को अलग-अलग समूहों (हिंदुओं के बीच भी) में खान-पान की अलग-अलग आदतों को स्वीकार करने में कोई मुश्किल नहीं होती और वे अपने बच्चों को अंडों का पोषण देने के लिए तैयार होते हैं, अगर उनकी मर्जी हो और अगर वे उसका खर्च उठा सकें। 3,000 साल से भी अधिक समय से हिंदुओं को धार्मिक आस्थाओं के बारे में तर्कों और बहसों की आदत है और वे उनके प्रति सहिष्णु हैं (‘मगर आखिरकार कौन जानता है, वह कहां से अस्तित्व में आया?...जिसकी नजरें ऊपर स्वर्ग से इस दुनिया की निगरानी करती हैं, वह सचमुच जानता है, या शायद वह भी नहीं जानता’ ऋग्वेद, दसवां मंडल, ऋचा 129)। यह भारतीयों और आम तौर पर हिंदुओं का घोर अपमान है कि एक छोटे मगर संगठित राजनीतिक दल के अजीबोगरीब दावों का उत्तरदायी उन्हें ठहराया जाए। यह दल आचरण के जिन मानदंडों को प्रचारित करना चाहता है, उनका उल्लंघन किए जाने पर वह दूसरों पर कूदने के लिए तत्पर रहता है। उसके पास ऐसी आस्थाओं और भावनाओं के हथियार हैं जिन्हें वह तर्क से बचाकर रखना चाहता है।
असहमति को दबाना और लोगों के दिमाग में डर पैदा करना, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है और साथ ही एक संवाद केंद्रित लोकतांत्रिक समाज की स्थापना को भी बहुत मुश्किल बना देता है। समस्या यह नहीं है कि भारतीय असहिष्णु हो गए हैं। असल में इसका उलटा है। हम असहिष्णुता के प्रति भी बहुत सहिष्णु हो गए हैं। जब कुछ लोग-जो अकसर अल्पसंख्यक समाज (धर्म, समुदाय या विद्वता) के सदस्य होते हैं - संगठित विरोधियों के हमले का शिकार होते हैं तो उन्हें हमारे समर्थन की जरूरत होती है। अभी ऐसा नहीं हो रहा है। और पहले भी कभी पर्याप्त रूप से ऐसा नहीं हुआ। असल में असहमति और धर्म विरुद्ध व्यवहार के प्रति असहिष्णुता की यह प्रक्रिया मौजूदा सरकार के शासन में नहीं शुरू हुई है, हालांकि उसने पहले से मौजूद प्रतिबंधों में और इजाफा किया है। भारत के अग्रणी चित्रकारों में से एक एम.एफ. हुसैन को एक छोटे संगठित समूह की अगुआई में लगातार विरोध का सामना करते हुए अपना ही देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा और उन्हें उस तरह का जोरदार समर्थन नहीं मिला, जिसकी वह उम्मीद कर सकते थे। उस घृणित घटना में कम से कम भारत सरकार सीधे तौर पर शामिल नहीं थी (हालांकि वह उनकी सुरक्षा के लिए बहुत कुछ कर सकती थी और उसे करना चाहिए था)। मगर सरकार की भागीदारी उस समय ज्यादा जाहिर हो गई, जब भारत सलमान रुश्दी की सेटेनिक वर्सेज को प्रतिबंधित करने वाला पहला देश बन गया।
तो आजादी और अधिकार का समर्थन करने वाले भारत के नागरिकों के रूप में हमें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, हमें भारतीय संविधान को उन चीजों के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए, जो उसमें नहीं कही गई है। दूसरे, हमें आजादी पर लगाम लगाने वाली उपनिवेश काल की दंड संहिताओं को अविवादित नहीं रहने देना चाहिए। तीसरे, हमें उस असहिष्णुता को सहन नहीं करना चाहिए, जो हमारे लोकतंत्र को कमजोर करती है, बहुत से भारतीयों के जीवन को शक्तिहीन बनाती है और उत्पीड़कों को छूट देने की संस्कृति को बढ़ावा देती है। चौथे, अदालतों, खासकर सर्वोच्च अदालत के पास इस बात की व्यापक छानबीन करने की अच्छी-खासी वजह मौजूद है कि जिस ब्रिटिश राज को खत्म करने के लिए हमने इतनी लड़ाई लड़ी, उसके नियम-कानूनों को जारी रखते हुए क्या भारत सही में गुमराह नहीं हो रहा? खास तौर पर, संगठित उत्पीड़क ‘आहत न किए जाने’ के एक मनगढ़ंत हक का जो लाभ उठाते हैं, उसकी न्यायिक जांच की जरूरत है (ऐसा हक किसी और देश में इस रूप में मौजूद नहीं दिखाई देता)। पांचवें, अगर कुछ राज्य संप्रदायवादी समूहों के प्रभाव में आकर स्थानीय विधान के जरिये ऐसे प्रतिबंध (जैसे किसी खास भोजन पर प्रतिबंध) कायम करना चाहते हैं तो अदालतें निश्चित तौर पर इस बात की जांच कर सकती हैं कि ऐसे विधान अभिव्यक्ति की आजादी और व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं सहित लोगों के मूलभूत अधिकारों के तालमेल में हैं या नहीं।
एक भारतीय के रूप में, हमारे पास सहिष्णुता और अनेकता की अपनी परंपरा पर गर्व करने की वजह है, मगर हमें उसे संरक्षित करने के लिए मेहनत करनी होगी। अदालतों को अपना काम करना होगा (जो वे कर रही हैं, मगर अधिक की जरूरत है) और हमें अपना निश्चित तौर पर बहुत अधिक करने की जरूरत है। सजगता लंबे समय से आजादी की कीमत मानी जाती रही है।
(नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध अर्थशास्त्री)