सरकार और पार्टी के शिखर पर मोदी-शाह की जोड़ी ने तकरीबन मध्य अवधि में ‘न्यू इंडिया’ को ही अपना मिशन नहीं बनाया, ‘न्यू बीजेपी’ का संदेश भी साफ-साफ दे दिया है। अगले चुनावों के पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल के व्यापक फेरबदल में भारतीय जनता पार्टी के समीकरणों को संभालने की कवायद भी दिखाई दी। कुछ राज्यमंत्रियों को प्रोन्नत करके बड़े नेताओं के बराबर कर दिया गया, कुछ पुराने चेहरों को मार्गदर्शक मंडल की पांत में डाल दिया गया। यही नहीं, कुछ और वरिष्ठों की फेरबदल के ऐन पहले बैठक भी उनकी आशंकाओं को हवा दे गई।
गृह मंत्री राजनाथ सिंह के घर अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और नितिन गडकरी की बैठक की औपचारिक वजहें चाहे जो बताई गईं लेकिन उनकी बेचैनी के संकेत सुर्खियों से बचे नहीं रह सके। फिर उमा भारती शपथ ग्रहण समारोह में नहीं पहुंचीं। ये तो भाजपा के पुराने ढांचे में बेचैनी के महज कुछ संकेत भर हैं। लेकिन यह देखना ज्यादा दिलचस्प है कि मिशन ‘न्यू बीजेपी’ के सूत्र कैसे खुल रहे हैं।
यूं तो इसके सूत्र 2013 में नरेन्द्र मोदी के केंद्रीय भूमिका में पर्दापण के साथ ही खुलने लगे थे। मोदी प्रत्यक्ष तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरजोर समर्थन से पार्टी में हावी दिल्ली मंडली को चुनौती दे रहे थे। दिल्ली की इस पुरानी मंडली का नेतृत्व मोटे तौर पर सबसे बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी कर रहे थे। उन्होंने पहले मोदी को पार्टी की संसदीय समिति का चेयरमैन बनने का विरोध किया। बाद में तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया तो भी उन्होंने अपनी नाराजगी नहीं छुपाई। लेकिन विडंबना देखिए कि अब राजनाथ सिंह को भी कुछ ऐसे ही संकेत देने पड़ रहे हैं। तब दिल्ली मंडली के अरुण जेटली ही मोदी के सबसे करीबी माने जाते रहे। लेकिन इस बार जेटली के चेहरे की चमक भी फीकी पड़ती दिखाई दे रही है। दिल्ली मंडली की ही एक और सदस्य सुषमा स्वराज भी विरोध भुलाकर मोदी की मंत्री बनीं लेकिन अब उनमें भी सांध्य वेला का एहसास गहरा रहा है।
लेकिन इसे नरेन्द्र मोदी और उनके ‘चाणक्य’ पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की नए नेताओं को उभारने या दूसरी पीढ़ी को आगे करने की कोशिश के रूप में भी देखा जा सकता है। असल में 2014 के आम चुनावों में लोकसभा की आधी से एक ज्यादा सीट लाने के लक्ष्य के लिए मोदी के नेतृत्व ‘मिशन 272’ को साधने में लगे ज्यादातर नए चेहरे उभर कर आए थे। धर्मेंद्र प्रधान से लेकर निर्मला सीतारमण, स्मृति ईरानी, पीयूष गोयल वगैरह ने तब मोदी के पक्ष में मीडिया को ही नहीं संभाला था, बल्कि अमित शाह के नेतृत्व में इलेक्शन वाररूम के भी सदस्य रहे हैं। लेकिन मोदी और शाह की टोली ने सिर्फ पार्टी के नौजवानों को ही आगे नहीं किया, दूसरे दलों से नेताओं को लाने का सिलसिला तेजी से शुरू किया, जो भाजपा के अखिल भारतीय प्रसार में काफी हद तक सहायक सिद्ध हुआ।
इस सिलसिले के सबसे अहम चेहरे तो असम में कांग्रेस के बागी हेमंत बिस्वा सरमा हैं जिनकी बदौलत पूर्वोत्तर का सियासी रंग ही बदल गया। आज असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर में भाजपा की सरकार है जिसमें एक समय के कांग्रेस के नेताओं का ही भगवाकरण हो गया है। पार्टी अब इसी तरह त्रिपुरा में भी गोटी बिछा रही है और कांग्रेस तथा तृणमूल कांग्रेस के छह विधायकों को अपने पाले में कर चुकी है।
मामला पूर्वोत्तर का ही नहीं है। यह प्रयोग इसके पहले हरियाणा, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात में काफी लाभ दे चुका है। उत्तर प्रदेश में तो हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा के टिकट पर जीते 325 विधायकों में से आधे दूसरी पार्टियों कांग्रेस, सपा और बसपा से आए नेता हैं।
यानी मोदी के नारे ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का बहुत कुछ दारोमदार अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं-नेताओं पर नहीं, बल्कि उधार के नेताओं पर है। असल में भाजपा के पुराने नेताओं में बेचैनी की एक वजह यह आशंका भी है कि उनकी ‘अलग-सी’ पार्टी अब नहीं रह गई। यह पार्टी तो एक चुनावी मशीन की तरह बनती जा रही है जिसके लिए चुनाव जीतना और सत्ता पर काबिज होना ही सब कुछ है।
मगर यही मोदी-शाह की जोड़ी के लिए भी सबसे बड़ी चुनौती है। अब पार्टी के पुराने ब्राह्मण-बनिया वोट बैंक से बाहर बने पिछड़ी जातियों और दलितों में नए जनाधार के बीच कैसे तालमेल बैठाए रखा जाए, खासकर अगले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर यह सबसे जरूरी है।
इसी को साधने के लिए भाजपा के केंद्रीय संगठन में भी कई पद एक अरसे से खाली पड़े हैं। मंत्रिपरिषद से बाहर किए गए कुछ लोगों को भी संगठन के काम में लगाए जाने की बातें कही जा रही हैं। लेकिन इस चक्कर में भाजपा की चाल, चरित्र और चेहरा सब बदल रहा है और बेचैनी भी बढ़ रही है।