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यथास्थिति वालों को चपत

तीन तलाक पर ऐतिहासिक फैसला मुसलमानों को तर्कसंगत विचारों के लिए प्रेरित करता है
ऐतिहासिक फैसले का पड़ेगा व्यापक असर

तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम महिलाओं की हक की लड़ाई की दृष्टि से निस्‍संदेह ऐतिहासिक है। यह फैसला औरतों के प्रति न्याय के व्यापक मुद्दों के समाधान के लिए पर्याप्त तो नहीं है मगर यह एक कदम आगे जरूर है। हालांकि, फिलहाल मैं मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों पर की जा रही राजनीति पर फोकस कर रहा हूं। इस फैसले का हर तरह के स्‍त्री-विरोधी भी धड़ल्ले से स्वागत कर रहे हैं, यहां तक कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआइएमपीएलबी) से जुड़े लोग भी पीछे नहीं हैं। भाजपा तो बेचारी मुस्लिम औरतों के लिए धर्मयोद्धा की तरह अपनी पीठ थपथपाना चाहती है, मानो मुस्लिम औरतों को अचानक कोई हमदर्द मिल गया है।

लेकिन इस रवैए से हमें मुद्दे की गंभीरता से भटकना नहीं चाहिए। यह विडंबना ही है कि हम 21वीं सदी में इस पुराने दकियानूसी मुद्दे को सुलझाने में फंसे हुए हैं। लंबे समय से मुस्लिम समाज में सुधारों का इंतजार है। यह 19वीं सदी में नहीं हुआ, जब अंग्रेजों ने हिंदू समाजसुधारकों की मांग और चिंताओं  के जवाब में सुधारों की पहल की। हम 1947 में आजादी के बाद बनी पहली सरकार के समय भी चूक गए जब पंडित जवाहरलाल नेहरू और डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने रूढ़िवादी हिंदू समूहों के भारी विरोध के बावजूद हिंदू बिल पारित कर लिया। उस समय हमारे नेताओं ने अपनी समझ-बूझ से बंटवारे के बाद हुई हिंसा की वजह से मुस्लिम सुधार के मुद्दों को टाल दिया।

इसके बाद कई दशक बीत गए लेकिन एक बैठक में तीन तलाक जैसे मुद्दे पर ही ध्यान नहीं दिया गया, व्यापक सुधारों की कौन सुध लेता। अभी तक सरकारों और प्रगतिशील ताकतों ने इस मामले में लगभग कोई पहल नहीं की जबकि मुस्लिम समुदाय में दकियानूसी तत्वों का बोलबाला बढ़ता ही गया। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआइएमपीएलबी) की स्थापना 1973 में ज्यादातर तंगनजरिए वाले दकियानूसी मुसलमानों ने की, जिनकी दिलचस्पी सुधारों के बदले यथास्थिति बनाए रखने में ज्यादा थी। ये लोग मुसलमानों और तीन तलाक सहित उनके मसलों पर खुदमुख्तार प्रवक्ता बन बैठे। कभी-कभी तो इन लोगों ने बेहद छुद्र मामलों का भी बचाव किया।

अब सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के मद्देनजर एआइएमपीएलबी की भूमिका पर नजर डालें। पीड़ित मुस्लिम महिलाओं और इन मुद्दों पर सक्रिय कार्यकर्ताओं ने राहत के लिए पहले बोर्ड का दरवाजा खटखटाया। लेकिन उन्हें यहां वास्तव में क्या मिला? न धैर्य से सुनवाई हुई, न सहानुभूति मिली, इसकी जगह उनसे कई बार पूछताछ हुई और सार्वजनिक बहसों में उनका मजाक तक उड़ाया गया। एआइएमपीएलबी अगर खुद को मुस्लिम औरत-मर्दों का प्रतिनिधि होने का दावा करता है तो यह उसका फर्ज था कि वह गलत प्रथाओं की शिकार पीड़ितों के बारे में बात करता। इन लोगों ने कभी कोर्ट के फैसले को स्वीकार नहीं किया बल्कि इसे हरदम मुस्लिम मामलों में हस्तक्षेप के नजरिए से देखा। हमें बोर्ड पर ध्यान देने की जरूरत है क्योंकि यह बदलाव या सुधार की राह में सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है।

अब बोर्ड की सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर प्रतिक्रिया देखें। उसने फैसले को अपने उस रुख की ‘पुष्टि’ करने वाला बताया कि पर्सनल लॉ की रक्षा करने की जरूरत है जबकि वह तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिए जाने के कोर्ट के फैसले से असहमत है। यह दुखद है कि वह तीन तलाक पर अपने पहले की स्थिति को दोहराता है जबकि पर्सनल लॉ पर की गई टिप्पणी को अपने रुख में पुष्टि करने वाला बताता है। यहां तक कि दारुल उलूम, देवबंद ने भी तीन तलाक के मुद्दे पर बोर्ड के रवैए का समर्थन किया है। बोर्ड के एक सदस्य कहते हैं, “हम तीन तलाक पर जितना संभव हो रोक लगाते हैं, लेकिन शरीया में जिन बातों की अनुमति है, उसमें से कुछ भी हटा नहीं सकते।”

लेकिन शरीया कुरान की तरह पवित्र नहीं है, जहां कोई इनसानी हस्तक्षेप संभव नहीं है। इसे कुरान के आलोक में सामाजिक संदर्भों के मद्देनजर संहिताबद्ध किया गया था। फिर, मुस्लिम विद्वान इसी भावना को ध्यान में रखकर जरूरी सुधार शुरू क्यों नहीं कर सकते? यह पाकिस्तान सहित कई मुस्लिम देशों में हुआ है। आजादी के दौर के महान मुस्लिम नेता अबुल कलाम आजाद ने सही ही कहा था, “हमारी वर्तमान परेशानियां, यूरोप की तरह, भौतिकवादियों द्वारा नहीं बल्कि धार्मिक उन्मादियों द्वारा पैदा की गई हैं।” इस्लाम एक आधुनिकतावादी आंदोलन के रूप आया था, जिसने उस समय प्रचलित बर्बर और अमानवीय प्रथाओं को चुनौती दी थी। पैगंबर खुद पहल करते थे और मुसलमानों को अपने विवेक का इस्तेमाल करके पवित्र पुस्तक से तालमेल बैठाकर जीवन जीने को प्रेरित करते थे। कुरान उन लोगों की निंदा करती है जो अपने विवेक और बुद्घि का इस्तेमाल नहीं करतेः ‘अल्‍लाह की नजर में वे लोग बदतर प्राणी हैं जो (जानबूझकर) गूंगे और बहरे बने हुए हैं, जो तर्कसंगत राह पर नहीं चलते।’

मुसलमान आखिर इस भावना के मुताबिक क्यों नहीं चल पाते? बदलते समय के अनुसार हमें अपनी सामाजिक प्रथाओं को सामयिक बनाना होगा। कुरान उदारता से सोचने और सीखने, विचार और तर्कसंगत बने रहने के संदर्भों से भरा पड़ा है। तीन तलाक जैसे मुद्दे इतिहास की बात होते अगर इस्लाम एक खास वक्त में ठहर नहीं गया होता। इस रवैए के गंभीर राजनीतिक परिणाम दिखते हैं। यहां तक कि मुखर विरोधी भी पीड़ित मुस्लिम महिलाओं के झंडाबरदार बन गए हैं। हालांकि हम जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला पीड़ित महिलाओं की जीत है पर फिर भी अपने-अपने राजनीतिक दावे किए जा रहे हैं।

(लेखक इतिहासकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

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