पहचान छुपा कर, किसी व्यक्ति द्वारा इंटरनेट तक पहुंच बना कर तथा किसी व्यक्ति या समाज को तनाव में डालने का कारण बनने वालों के मैं खिलाफ हूं और हमेशा आवाज उठाता रहूंगा। आरंभ से ही कहा जा रहा है कि 66ए के उन्मूलन को लेकर मेरी मिश्रित प्रतिक्रिया थी, क्योंकि जिनके हाथों में शक्ति है या घबड़ाहट में आकर इसका दुरुपयोग उनके द्वारा नहीं किया जा सकता, इस तरह के प्रावधानों के अभाव की वजह से असामाजिक और आपराधिक तत्वों को फायदा पहुंचता है। वर्तमान सरकार ने 66 ए का बचाव भी किया है, अब आवश्यकता है कि इंटरनेट की निगरानी और पुलिसिंग के लिए नए रास्ते तलाशे जाएं। आज सबसे बड़ा खतरा यह है कि सत्ता में बैठे लोगों तथा उनके करीबियों में उनके विचारों से अलग मान्यताओं, विचारों के प्रति असहिष्णुता लगातार बढ़ रही है। हाल के दिनों में सरकार की मंशा प्रतिबिंबित करने के लिए, प्रयासों को प्रभावित करने और शिक्षा को चैनलाइज करने तथा उपलब्ध सूचनाओं पर चिंतन करने, स्व-सेवा की ओर, हानिकारक मुद्दे और राष्ट्र के भीतर के मुद्दों के बारे में पूछता हूं। मौलिक स्वतंत्रता के लिए कोई आकस्मिक या क्षणभंगुर प्रतिबद्धता हो सकती है। स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उदार लोकतांत्रिक समाजों के मूल में है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (जो बाद में अधिनियम 2000 के रूप में भेजा गया) की धारा 66ए खत्म करने का फैसला स्वागत योग्य है। दो मोर्चों पर इसका स्वागत किया जा सकता है। पहला, यह कि स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति के अधिकार में दखल देने से राज्य के अतिक्रमण को प्रतिबंधित करने का इसमें प्रयास है। दूसरा, यह सामाजिक मानकों के अनुरूप स्वतंत्र भाषण के लिए व्यक्तियों की जिम्मेदारी तय करती है। अगर इनका पालन नहीं होता है तो नई चुनौतियों से कोर्ट निपटेगा।
सत्ता में बैठे लोगों ने महसूस किया कि धारा 66 ए असंवैधानिक है, लेकिन धारा 66 ए को रोकने के लिए इस सरकार ने कोई प्रयास नहीं किया। अगर ये धारा 66 ए को नए रूप में समर्थन नहीं करते हैं तो सरकार को अदालत के फैसले को आमंत्रण देने की जरूरत नहीं थी। सत्ता में बैठे लोग अपनी मान्यताओं को लेकर हम देशवासियों को आश्वस्त करते और अवसरवादी राजनीति का लाभ न लेते। इसके बजाय, धारा 66 ए का इस सरकार द्वारा बचाव किया गया था। सुप्रीम कोर्ट में सरकार के वकील की ओर से एक नोट दायर कर जिस तरह कहा गया कि-यह मामला जो प्रस्तुत किया जाता है वह याचिकाकर्ता का मामला नहीं है और धारा 66 ए को लागू करने को लेकर सरकार को कोई विशेष रुचि नहीं है और कम से कम यह प्रतिबंधक साधन है मतलब उक्तहित पहले से ही मौजूद हैं। हालांकि कई मंत्रियों के बयान हैं, जिन्होंने विपक्ष में रहते हुए धारा 66 ए का विरोध किया था। जो हमें एक हद तक सनकी बना देता है। यह नेताओं की बीमारी को दर्शाता है जो कि विपक्ष में रहते हुए कुछ कहते हैं और सत्ता में आने के बाद उनके सुर बदल जाते हैं। स्वतंत्रता के प्रति प्रतिबद्धता के लिए एक उदार मानसिकता और व्यक्ति के निजी मूल्यों और उसकी चयन के सम्मान की आवश्यकता होती है, जो कि नीति निर्धारण के लिए अप्रतिम नुस्खा है।
यह तथ्य बेचैन करते हैं कि सरकार खुद को स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले के रूप में प्रस्तुत करती है। इस सरकार के सत्ता संभालने के बाद, हम सब इस बात के गवाह रहे हैं कि कैसे शांति और सौहार्द को भंग करने के लिए अभियान चलाया गया। ‘लव जिहाद’ और ‘घर वापसी’ अभियान इस सरकार का राष्ट्रीय एजेंडा है जो एक समुदाय विशेष को निशाना बनाता है। एक संसद सदस्य द्वारा नाथू राम गोडसे को देशभक्त बताना तथा हिंदू धर्म की रक्षा के लिए हिंदू महिलाओं से चार बच्चे जनने का आह्वान करना सत्ताधारी लोगों के अहंकार को दर्शाता है, जो हमारे समाज की बहु-संस्कृति और बहु-धार्मिक पहचान के साथ मौलिक स्वतंत्रता को खंडित करता है। यह भी कम चिंता की बात नहीं है कि आरटीआई का गला घोंटा जा रहा है क्योंकि केंद्रीय सूचना आयोग के मुख्य सूचना आयुक्त का पद बीते सात महीनों से रिक्त पड़ा हुआ है। महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों जैसे प्रधानमंत्री कार्यालय, कैबिनेट सचिवालय, रक्षा, मानव संसाधन, से संबंधित शिकायतों को कोई सुनने वाला नहीं है। इन सरकारी अथॉरिटी के खिलाफ संबंधित 13,000 शिकायतें लंबित पड़ी हैं, जिनकी सुनवाई के लिए किसी बेंच का गठन नहीं किया जा सका है। तो क्या यही सूचना की स्वतंत्रता के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता है। लोग आसानी से व्यवसाय करने में चिंतित है, पत्रकार मोदी सरकार के प्रदर्शन पर रिपोर्टिंग करने को लेकर चिंतित दिख रहे हैं। सूचनाएं एक प्रकार से बोतल में बंद है। सत्ता के गलियारे से कोई सूचना नहीं निकल सकती, मंत्रियों के बात करने पर रोक लगी है। एक प्रकार से यह सूचना को लेकर ‘वन वे’ ट्रैक हो गया है, जहां सूचनाएं ऊपर से नीचे की ओर आती हैं, पत्रकारों के लिए संवाद, बहस और चर्चा करने को लेकर कठिन समय है। सरकार महिलाओं पर हो रहे अपमानजनक हमलों को रोकने में असमर्थ है, असुरक्षित और हाशिये के लोगों को लेकर हमें चिंता है। कारपोरेट जगत के लिए स्वतंत्रता आज की तारीख में प्राथमिकता में है और आम लोगों की स्वतंत्रता खतरे में है।
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री है)