प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार को संविधान से अधिक विवाह संस्था की फिक्र है। दिल्ली उच्च न्यायालय में उसने हलफनामा पेश करके कहा है कि वैवाहिक बलात्कार यानी पत्नी की इच्छा के विरुद्ध पति द्वारा उसके साथ जबर्दस्ती रतिक्रिया करने को बलात्कार नहीं माना जा सकता। ऐसा करने से विवाह संस्था खतरे में पड़ जाएगी। यह हलफनामा ऐसे समय दिया गया है जब सर्वोच्च न्यायालय की नौ-सदस्यीय खंडपीठ एकमत से यह फैसला सुना चुकी है कि निजता का अधिकार भारतीय नागरिकों को संविधान द्वारा प्रदत्त बुनियादी अधिकार है। इस हलफनामे का सीधा-सीधा आशय इस फैसले को नकारना है क्योंकि स्त्री का अपनी देह पर अधिकार स्वाभाविक रूप से निजता के अधिकार में अंतर्निहित है। इसका यह आशय भी है कि विवाह केवल एक सामाजिक संस्था है, दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच समानता पर आधारित स्वैच्छिक संबंध नहीं। विवाह एक अपरिवर्तनशील सामाजिक संस्था है जिसके पितृसत्तात्मक स्वरूप, मान्यताओं और नियमों में बदलाव नहीं किया जा सकता। इसमें पति की इच्छा ही सर्वोपरि होगी; पत्नी की इच्छा का कोई महत्व नहीं होगा।
राजनीतिक दलों की ओर से भी सरकार के इस रुख का कोई खास विरोध नहीं हुआ जबकि उसके नीतीश कुमार जैसे समर्थक और लालू प्रसाद यादव और शरद यादव जैसे विरोधी अपने आपको राममनोहर लोहिया का अनुयायी बताते हैं। राममनोहर लोहिया की प्रसिद्ध सूक्ति है: “बलात्कार और वादा-खिलाफी के अलावा मर्द और औरत का हर रिश्ता जायज है।” लेकिन क्या बलात्कार तभी बलात्कार है जब पति के अलावा कोई और करे? यदि पति करे तो वह बलात्कार नहीं है?
भारतीय संस्कृति के ये हिंदुत्ववादी ध्वजवाहक यदि अपने ही ग्रंथों से परिचित होते तो उन्हें पता होता कि विवाह संस्था अस्तित्व में आई ही इसलिए क्योंकि उसका उद्देश्य स्त्री को बलात्कार से बचाना और स्त्री-पुरुष संबंधों को मर्यादा की परिधि में लाना था। ‘महाभारत’ के ‘आदि पर्व’ में पांडु कुंती को ऋषि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु की कथा सुनाते हैं जिसने बलपूर्वक विवाह संस्था के नियम लागू किए क्योंकि एक अपरिचित उसकी मां को उनकी इच्छा के विरुद्ध खींच कर ले जा रहा था और उसके पिता चुपचाप देख रहे थे। श्वेतकेतु ने जब इसका कारण पूछा तो पिता ने कहा, “अनावृता हि सर्वेषां वर्णानामङ्गना भुवि” (इस भूमंडल में सभी स्त्रियां बिना रोक-टोक के सभी से मिल सकती हैं) इसके बाद श्वेतकेतु ने पति द्वारा पत्नी के अलावा किसी अन्य स्त्री के साथ और पत्नी द्वारा पति के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के साथ संबंध स्थापित करने पर रोक लगा दी।
विवाह संस्था के उदय और विकास पर संस्कृत के उद्भट विद्वान विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े (1863-1926) के लेखों का एक संग्रह ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास’ प्रकाशित हुआ था, जिसमें वैदिक साहित्य से लेकर परवर्ती संस्कृत साहित्य के अवगाहन के बाद निकाले गए उनके अनेक चौंकाने वाले निष्कर्ष थे। उनके इस अत्यंत महत्वपूर्ण अध्ययन से स्पष्ट था कि मानव सभ्यता के विकास क्रम में स्त्री-पुरुष संबंधों का स्वरूप लगातार बदलता गया और अंततः उसने वर्तमान विवाह संस्था का रूप ग्रहण किया।
यह रूप भी पहले के रूपों की तरह ही परिवर्तनशील है। राजवाड़े के अनुसार ‘महाभारत’ के ‘शांति पर्व’ में भीष्म बताते हैं कि कृतयुग के स्त्री-पुरुषों के बीच जब मन हुआ तब समागम हो जाता था। त्रेतायुग में पसंद-नापसंद करने की व्यवस्था थी। द्वापर में स्त्री-पुरुष अपनी टोली में जोड़ी बनाकर रहने लगे लेकिन अभी इन जोड़ियों को स्थिर अवस्था प्राप्त नहीं हुई थी। कलियुग में यह जोड़ी स्थिर हो गई और विवाह संस्था का उदय हुआ।
लोग भूले न होंगे कि पिछली सदी के पूर्वार्ध तक हिंदुओं में तलाक की अनुमति नहीं थी। जब इस संबंध में कानून लाया गया तब भी उसके पुरातनपंथी विरोधियों ने यही कहा था कि इससे विवाह संस्था नष्ट हो जाएगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। आज एक बार फिर से विवाह के वर्तमान रूप में बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है। हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार रमेश उपाध्याय साहित्य सृजन के अलावा सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर प्रगतिशील चिंतन विकसित करने का बहुत समय से प्रयास कर रहे हैं।
इसी क्रम में उन्होंने ‘आज के सवाल’ पुस्तक माला के अंतर्गत अनेक पुस्तिकाएं प्रकाशित की हैं जिनमें से एक ‘विवाह की संस्था में बदलाव की जरूरत’ भी है। इसमें प्रख्यात समाजशास्त्री और नारी आंदोलन में सक्रिय रजनी पालड़ीवाला, जो दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में प्रोफेसर हैं, के साथ एक इंटरव्यू और कमलिनी दत्त, रमेश उपाध्याय, अरविंद जैन, सुभाषिनी अली, उत्पल कुमार और जवरीमल्ल पारख के लेख संग्रहीत हैं। रजनी पालड़ीवाला ने एक महत्वपूर्ण बात यह कही है कि घर के अंदर स्त्री पर हो रहे शारीरिक-मानसिक अत्याचार और हिंसा का ही प्रतिफलन बाहर भी होता है। इस स्थिति में बदलाव आए बिना कुछ भी संभव नहीं है।
विवाह का आधार पति और पत्नी के बीच समानता, आदर और प्रेम होना चाहिए, पति की एकछत्र सत्ता और शासन नहीं। एक स्वस्थ और खुशहाल परिवार में वैवाहिक बलात्कार की कोई जगह नहीं है। यदि दुर्भाग्य से वह घटित होता है, तो फिर उसे अपराध मानना ही न्याय संगत होगा। सभी जानते हैं कि बलात्कार के पीछे सेक्स की इच्छा कम, दूसरे पक्ष के खिलाफ हिंसा और उस पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की इच्छा अधिक होती है। वैवाहिक संबंधों में इसे कानूनी स्वीकृति नहीं दी जा सकती।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)