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फास्ट ट्रैक पर रोड इन्फ्रास्ट्रक्चर

तमाम अड़चनों और वित्तीय बाधाओं से बाहर निकालने के उपायों से हाइवे और एक्सप्रेसवे निर्माण में गजब की रफ्तार, पर सावधानी की फिर भी दरकार और कई सवाल भी सामने
तकनीक का कमालः दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे निर्माण की तेजी और नई डिजाइन की मिसाल

पिछले चार महीनों के भीतर दो मौके ऐसे आए जब केंद्र सरकार के कामकाज पर खूब चर्चा हुई। एक, जब मोदी सरकार ने तीन साल पूरे किए तब सरकार के भीतर और बाहर से विभिन्न मंत्रालयों और मंत्रियों के कामकाज की खूब समीक्षा हुई। दूसरे, जब सितंबर के पहले हफ्ते में मोदी की मंत्रिपरिषद में व्यापक फेरबदल हुआ, उसे भी मंत्रियों और मंत्रालयों के प्रदर्शन से जोड़कर देखा गया। इन दोनों ही मौकों पर अगर कोई बाजी मारता हुआ दिखा तो वो नितिन गडकरी थे। उनके पास उस सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय का जिम्मा है, जो तीन साल पहले तक अटके हाइवे प्रोजेक्टों के लिए सुर्खियों में रहता था। लेकिन आजकल मोदी सरकार की विकास योजनाओं को नए आयाम देने वाली खबरें लुटियन दिल्ली के परिवहन भवन से निकलती हैं। हाइवे सेक्टर के साथ-साथ इस मंत्रालय का भी रिवाइवल हो गया।

आंकड़ों और जमीनी स्तर पर नजर आ रहे इस बदलाव को समझने के लिए एक दशक पीछे जाना जरूरी है। 2008-09 की आर्थिक सुस्ती के बाद वह हरेक क्षेत्र में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को बढ़ावा देने का दौर था। वाजपेयी सरकार की स्वर्णिम चतुर्भुज जैसी योजनाओं को टक्कर देने के लिए यूपीए सरकार ने पीपीपी के जरिए हाइवे बनवाने के बड़े-बड़े दावे किए। वित्त वर्ष 2010 का बजट पेश करते हुए तब के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने 20 किलोमीटर रोजाना हाइवे निर्माण का लक्ष्य देकर खूब सुर्खियां बटोरीं, जबकि सड़क परिवहन क्षेत्र के लिए महज 19,894 करोड़ का बजट दिया। जाहिर है, सारा दारोमदार प्राइवेट सेक्टर के कंधों पर था। नीतिगत जड़ता और सरकार पर निजी क्षेत्र के घटते भरोसे के बीच 2011-2014 के दौरान मुश्किल से रोज 13 किलोमीटर के हाइवे बन पाए। जितने हाइवे बने, उससे ज्यादा तमाम उलझनों में फंसकर रह गए।

राजमार्गों का भी कायाकल्पः लखनऊ में भी सड़क निर्माण में तेजी लाने का दबाव बढ़ा

2014 में जब मोदी सरकार सत्ता में आई और नितिन गडकरी को सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय का जिम्मा मिला तो 300 से ज्यादा हाइवे प्रोजेक्ट अटके हुए थे, जिसकी वजह से तीन लाख करोड़ रुपये के निवेश पर संकट मंडराने लगा। इसमें से ज्यादातर बैंकों का कर्ज था, जो डूबने के कगार पर था।

इस तरह गडकरी के लिए यह दोहरी चुनौती थी। इन अटके प्रोजेक्ट की बाधाएं दूर करना और हाइवे सेक्टर के लिए निवेश जुटाना। मंत्रालय का जिम्मा संभालने के बाद उन्होंने जो पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस की वह सीमेंट की सड़कों और वाटरवेज की वजह से चर्चित हुई। मगर असली बात की तरफ किसी ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। तब गडकरी ने कहा था, “पीडब्‍लूडी मिनिस्टर रहा हूं। सड़कें कैसे बनेंगी, मुझे पता है। पैसा कहां से आएगा, यह भी जानता हूं। आप लोग देखना काम कैसे होता है।”

करीब तीन साल बाद गडकरी के ये दावे काफी हद तक खरे साबित हो रहे हैं। हालांकि, इस दौरान अर्थव्यवस्था की विकास दर 8 फीसदी से घटकर 7 फीसदी रह गई है। नोटबंदी और जीएसटी के बाद इसमें और ज्यादा गिरावट के साफ संकेत हैं। फिर भी गडकरी दावा कर पा रहे हैं कि पिछले तीन साल में 18 हजार किलोमीटर के हाइवे बने हैं जो उससे पहले के तीन वर्षों के मुकाबले 25 फीसदी ज्यादा हैं। हाइवे प्रोजेक्ट के निर्माण की मंजूरी, जिसे प्रोजेक्ट अवार्ड करना कहते हैं, के मामले में मोदी सरकार इन तीन वर्षों में यूपीए के मुकाबले दोगुना से भी ज्यादा आगे है। पिछले तीन साल में करीब 34 हजार किलोमीटर के हाइवे निर्माण शुरू हुए हैं, जबकि यूपीए के आखिरी तीन वर्षों में यह आंकड़ा 15 हजार किलोमीटर के आसपास था। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि हाइवे निर्माण के इन आंकड़ों में सड़कों के चौड़ीकरण और मरम्मत के काम भी शामिल होते हैं। इसलिए यह नहीं समझना चाहिए कि देश में इतने नए हाइवे बन गए। इनमें ज्यादातर दो लेन से चार लेन या चार से छह लेन बनने वाले हाइवे हैं। मंत्रालय के अधिकारियों का मानना है कि यूपीए के समय रोजाना बनने वाले हाइवे के जो दावे किए गए, उससे लक्ष्यों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की होड़ छिड़ गई। पर्याप्त मंजूरियों के बगैर प्रोजेक्ट अवार्ड करना इसी का नतीजा है, जिसका अतीत में भारी खामियाजा उठाना पड़ा।

आंकड़ों से इतर भी कई संकेत हैं जो हाइवे सेक्टर में सुधार के दावों को पुख्ता करते हैं। करीब 15 हजार किलोमीटर के 300 से ज्यादा प्रोजेक्ट 2019 तक पूरे होने जा रहे हैं। इनमें दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे, बेंगलूरू-मैसूर एक्सप्रेसवे जैसी लंबित परियोजनाएं और दिल्ली को ट्रैफिक से निजात दिलाने वाले ईस्टर्न पेरीफेरल एक्सप्रेसवे जैसे प्रोजेक्ट शामिल हैं। बदलाव जमीन पर भी नजर आने लगा है। केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी बताते हैं कि 2014 से अटके पड़े 300 हाइवे प्रोजेक्ट में से ज्यादातर की बाधाएं दूर कर ली गई हैं। करीब 40 प्रोजेक्ट ऐसे हैं जिन्हें टर्मिनेट किया गया। इनके दोबारा टेंडर की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। हाइवे सेक्टर संकटों से उबरकर अब रफ्तार पकड़ने लगा है।

अगस्त के आखिर में जारी हुई भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) की जिस सालाना रिपोर्ट ने नोटबंदी के आंकड़े उजागर किए थे। उसी रिपोर्ट में हाइवे सेक्टर की स्थिति पर भी महत्वपूर्ण टिप्पणियां की गई हैं। जाहिर है, नोटबंदी के शोर में इस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं गया। यह रिपोर्ट बताती है कि हाइवे निर्माण और प्रोजेक्ट शुरू होने के मामले में मोदी सरकार ने अब तक के उच्चतम स्तर को छू लिया है। 2016-17 में रोजाना हाइवे निर्माण की रफ्तार 22.6 किलोमीटर तक पहुंच चुकी है जो इससे पहले के साल में 16.6 किलोमीटर रोजाना थी। हालांकि, देश में हाइवे निर्माण की दैनिक रफ्तार नितिन गडकरी द्वारा तय 40 किलोमीटर रोजाना के आंकड़े से कम है लेकिन स्थिति अब 11-12 किलोमीटर रोजाना से काफी आगे निकल आई है। फीडबैक इंफ्रा के चेयरमैन विनायक चटर्जी कहते हैं कि 40 किलोमीटर के लक्ष्य के मुकाबले हाइवे निर्माण का आंकड़ा रोजाना 30 किलोमीटर तक भी पहुंचता है तब भी यह संतोषजनक माना जाएगा। अहम बात यह है कि देश में ऐसा हाइवे मिनिस्टर है जो खुलेआम लक्ष्यों की बात करता है।

महत्वाकांक्षी लक्ष्यः हाइवे नेस्ट और हाइवे विलेज की रूपरेखा का अनावरण करते गडकरी

दरअसल, 2016-17 के लिए गडकरी ने 15 हजार किलोमीटर हाइवे निर्माण और 25 हजार किलोमीटर के प्रोजेक्ट अवार्ड करने का लक्ष्य रखा था। इसके मुकाबले 8231 किलोमीटर का निर्माण और 16271 किलोमीटर के प्रोजेक्ट अवार्ड हो पाए हैं। ये आंकड़े गडकरी के अति महत्वाकांक्षी लक्ष्य से भले ही कम हैं लेकिन यूपीए के आखिरी साल से कहीं बेहतर हैं। 2013-14 के मुकाबले राजमार्गों के निर्माण में करीब दोगुनी और प्रोजेक्ट अवार्ड करने में पांच गुना बढ़ोतरी हुई है।

आरबीआइ ने भी इस रिवाइवल को स्वीकार किया है। आरबीआइ की रिपोर्ट के मुताबिक, आर्थिक गिरावट के इस दौर में भी कई इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्रों में उल्लेखनीय सुधार देखने को मिला है और आगे की संभावनाओं को बल मिला है। सबसे पहले यह केंद्र की इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की लागत और समय में देखी गई। इसके अलावा हाइवे के निर्माण और प्रोजेक्ट अवार्ड होने का आंकड़ा अभी तक के सर्वाधिक स्तर पर पहुंच गया है। इस दौरान अटकी परियोजनाओं में 40 फीसदी की कमी दर्ज की गई है।

आरबीआइ के अलावा क्रेडिट रेटिंग एजेंसी इक्रा ने भी सड़क क्षेत्र में नीतिगत प्रयासों और सुधारों की बात को माना है। इक्रा की रिपोर्ट के अनुसार, 80 फीसदी मंजूरी मिलने के बाद ही प्रोजेक्ट अवार्ड करने जैसे नीतिगत उपायों के चलते ही पिछले 36 महीनों में सड़क क्षेत्र को उबारने में मदद मिली है। इक्रा के वाइस प्रेसिडेंट और कॉरपोरेट रेटिंग के प्रमुख शुभम जैन का कहना है कि सड़क क्षेत्र को उबारने की अधिकांश कोशिशों पर वित्त वर्ष 2014-15 के आखिर तक अमल होने लगा था। यही कारण है कि वित्त वर्ष 2016-17 के दौरान परियोजनाएं पूरी करने में 37 फीसदी इजाफा हुआ। जैन का मानना है कि हाइवे निर्माण से जुड़ी नीतियों में कई तरह के बदलाव किए गए। खासकर प्रोजेक्ट से बाहर निकलने की छूट, फंड की किल्लत से जूझ रहे प्रोजेक्ट में सरकारी पैसा लगाने और प्रोजेक्ट अटकने की स्थिति में मुआवजे के प्रावधान से डेवलपरों में भरोसा पैदा हुआ है।

ऐसे समय में जब सबका ध्यान नोटबंदी और जीएसटी जैसे बड़े आर्थिक फैसलों पर केंद्रित रहा, हाइवे सेक्टर में रिवाइवल की कहानी आगे बढ़ रही थी। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय में संयुक्त सचिव (राजमार्ग) रहे और फिलहाल भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) के मेंबर (फाइनेंस) रोहित कुमार सिंह बताते हैं कि हाइवे सेक्टर में जो सुधार दिखाई दे रहा है, उसकी नींव कई अहम नीतिगत फैसलों और कार्यप्रणाली में बदलाव से पड़ी है। मंत्रालय, मंत्रिमंडल और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर मंत्री समूह के स्तर पर अब तक 22 महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लिए गए हैं। अटकी परियोजनाओं को जहां एकबारगी फंड देकर उबारा गया, वहीं नए प्रोजेक्ट के लिए पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के पुराने मॉडल के बजाय हाइब्रिड एन्नुटी जैसे नए तरीके अपनाए गए। दरअसल, पीपीपी के पुराने मॉडल में कई डेवलपरों ने बढ़ा-चढ़ाकर बोलियां लगाईं और फिर टोल के जरिए लागत निकालना मुश्किल हो गया था। यही वजह है कि 2014 के पहले पीपीपी के जरिए हाइवे बनाने के लिए प्राइवेट डेवलपर आगे नहीं आ रहे थे। विवादों में फंसे प्रोजेक्ट को उबारने के लिए एक तरफ समाधान की प्रक्रिया को सुधारा गया है जबकि दूसरी ओर ऐसे आर्बिट्रेशन वाले मामलों में डेवलपरों को बैंक गारंटी के एवज में 75 फीसदी तक भुगतान जैसी सहूलियतें दी गईं। गडकरी का कहना है कि इस तरह के उपायों से ही हाइवे सेक्टर की राह आसान हुई है। इसके अलावा इलेक्ट्रॉनिक टोल कलेक्शन, ऑनलाइन टोल इनफॉर्मेशन सिस्टम, आटॉमेटिश ट्रैफिक काउंटिंग जैसी तकनीक भी बहुत काम आईं।

इस उलझन से निकलने के लिए पहले तो पर्यावरण और वन मंजूरी दिलाने की राह आसान की गई, जबकि दूसरे फंडिंग और पीपीटी के तरीके में बदलाव हुए। हाइब्रिड एन्नुटी मॉडल में प्रोजेक्ट लागत का 40 फीसदी पैसा सरकार डेवलपर को देती है। इससे निर्माण के दौरान फंड की समस्या दूर हुई है। इसके अलावा हाइवे बनने के बाद टोल सरकार वसूलती है, डेवलपर को इसके रखरखाव और मरम्मत के लिए पैसा दिया जाता है। यह तरीका प्राइवेट डेवलपरों को काफी लुभा रहा है। इस तरीके से 54 हाइवे प्रोजेक्ट अवार्ड किए जा चुके हैं। निजी भागीदारी में जिन राजमार्गों को बनाने में किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई, वहां सरकार खुद के पैसे से सड़कें बनवा रही है। वित्त वर्ष 2017-18 में सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के बजट में 11 फीसदी की बढ़ोतरी की गई थी। इस बढ़े बजट से भी हाइवे सेक्टर को शह मिली। हालांकि, विश्व के दूसरे सबसे लंबे करीब 52 लाख किलोमीटर के सड़क नेटवर्क और एक लाख किलोमीटर से ज्यादा के नेशनल हाइवे के लिए यह बजट काफी कम है। इसमें यातायात और सड़क सुरक्षा पर खर्च होने वाला पैसा भी शामिल है। इसे यूं समझिए कि अहमदाबाद-मुंबई के बीच बनने वाली बुलेट ट्रेन पर सड़क मंत्रालय के साल भर के बजट से 60 फीसदी ज्यादा पैसा खर्च होगा। पिछले दो साल में एनएचएआई ने आधे से ज्यादा प्रोजेक्ट इसी तरीके से अवार्ड क‌िए हैं।

इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में भारी निवेश की जरूरत और सीमित सरकारी बजट की वजह से ही निजी भागीदारी को खूब बढ़ावा दिया गया है। लेकिन पीपीपी के कटु अनुभवों के बाद निवेश जुटाने के नए रास्ते तलाशे जा रहे हैं। इसके लिए सरकार का जोर मौजूदा सड़क परियोजनाओं से कमाई के रास्ते तलाशने पर है। टोल-ऑपरेट-ट्रांसफर (टीओटी) मॉडल के तहत पहले से बन चुके दर्जन भर नेशनल हाइवे पर टोल वसूली के अधिकार निजी क्षेत्र को देने की तैयारी है। एनएचएआइ के अधिकारियों का मानना है कि इससे सरकार को एकमुश्त पैसा जुटाने में आसानी होगी, जिसका इस्तेमाल नए हाइवे डेवलप करने में किया जा सकता है।

यानी, पुराने हाइवे से कमाई के जरिए सरकार नए हाइवे बनाने की राह आसान करना चाहती है। लेकिन सरकारी संपत्तियों के इस तरह अंधाधुंध निजी हाथों में सौंपने को लेकर शंकाएं भी कम नहीं हैं। अब तक जो कंपनी सड़क बनाती थी, उसे टोल वसूली का अधिकार मिलता था। लेकिन आने वाले दिनों में पहले से बन चुके हाइवे पर कई देसी-विदेशी कंपनियां दिखाई देंगी। पिछले साल आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने एनएचएआइ को 75 नेशनल हाइवे से इस तरह कमाई के लिए अधिकृत किया था। इससे करीब 36 हजार करोड़ रुपये जुटाने का अनुमान है। इसमें निजी क्षेत्र ने काफी दिलचस्पी दिखाई है। पहले चरण में जिन 10 हाइवे को कमाई के लिए निजी क्षेत्र को सौंपा जाएगा, उनमें छह आंध्र प्रदेश और चार गुजरात में हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस तरह के नए उपायों के पीछे नितिन गडकरी का दिमाग है। अहमदाबाद की सेप्ट यूनिवर्सिटी में इन्फ्रास्ट्रक्चर प्लानिंग के प्रोफेसर शाश्वत बंदोपाध्याय का कहना है कि प्राइवेट सेक्टर को लुभाने और निजी निवेश को जुटाने के लिए लीक से हटकर नीतियां और नियम बनाने जरूरी हैं। लेकिन पीपीपी मॉडल की कई नाकामियों से भी सीख लेने की जरूरत है। 

हालांकि, कई मामलों में सरकार ने पुरानी गलतियों से सीख ली है। पहले हाइवे के रास्ते में पड़ने वाली रेल ओवर ब्रिज की मंजूरी मिलने में दो-तीन साल तक का समय लग जाता था। सड़क मंत्रालय के अधिकारी बताते हैं कि इस मामले में नितिन गडकरी ने खुद पहल कर रेल मंत्री से बात की और इस मंजूरी की प्रक्रिया को सरल करवा दिया। अब रेलवे ओवरब्रिज की मंजूरी ऑनलाइन मिलने लगी है और पांच महीने के अंदर रेलवे ओवरब्रिज बनाने का मानक तय हुआ है। इसी तरह, पहले हरेक प्रोजेक्ट के लिए अलग नियम-कायदे तय होते थे। इससे भ्रष्टाचार भी बढ़ता और छोटी कंपनियों को मौका नहीं मिल पाता था। नितिन गडकरी बताते हैं कि हाइवे डेवलपरों की पात्रता के मानक तय कर ज्यादा डेवलपरों को अवसर दिए जा रहे हैं। इससे न सिर्फ ज्यादा डेवलपर सड़क बनाने के लिए आगे आ रहे हैं बल्कि प्रतिस्पर्धा बढ़ने से 15-20 फीसदी कम दाम पर बोलियां लग रही हैं। इसी से सरकार ने करीब पांच हजार करोड़ रुपये की बचत की है।

निजी भागीदारी में हाइवे निर्माण के नए तरीके अपनाने और डेवलपरों के मुताबिक नीतिगत बदलावों से मंत्रालय और एनएचएआइ की इंजीनियर लॉबी में बेचैनी भी साफ नजर आ रही है। कई इंजीनियरों का मानना है कि हाल के वर्षों में सड़क निर्माण में प्राइवेट सेक्टर का दबदबा बढ़ा है। वे मंत्रालय के बरसों पुराने तौर-तरीके बदल रहे हैं। साथ ही इंजीनियरों की ताकत कम हुई है। सड़क मंत्रालय के एक वरिष्ठ इंजीनियर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि प्राइवेट सेक्टर के हिसाब से नीतियां बनने और नए-नए मॉडल आजमाए जाने की वजह से सरकारी नियंत्रण घटा है। जिसका असर सड़कों की गुणवत्ता पर पड़ सकता है।

जाहिर है, कई मामलों में गडकरी ने प्राइवेट सेक्टर को राहत दिलवाने वाले फैसले कराए। लेकिन ऐसे भी मामले हैं जब एनएचएआइ के अधिकारियों के पक्ष में गडकरी ने सीबीआइ जैसी संस्था के सामने भी अपनी बात रखने में हिचक नहीं दिखाई।

उत्तराखंड में एक हाइवे के लिए हुए भूमि अधिग्रहण में कथित भ्रष्टाचार के मामले की राज्य सरकार ने सीबीआइ जांच की सिफारिश की तो गडकरी ने मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखी कि इससे अधिकारियों का मनोबल टूटेगा, भूमि अधिग्रहण तो स्‍थानीय प्रशासन का मामला ज्यादा है। हाइवे सेक्टर में भरा यह नया जोश ऐसे तमाम चीजों पर टिका है, जिसके केंद्र में गडकरी हैं।

वैसे, आंकड़ों के दावे अपनी जगह हैं लेकिन सड़क क्षेत्र की सबसे बड़ी चुनौती अब भी भूमि अधिग्रहण और राज्य सरकारों के साथ तालमेल को लेकर है। 80 फीसदी अधिग्रहण के बगैर हाइवे प्रोजेक्ट शुरू नहीं होने की नई शर्त के चलते नई परियोजनाओं की गति प्रभावित हुई है। लेकिन अच्छी बात यह है कि एक बार मंजूरी मिलने और कॉन्ट्रैक्ट अवार्ड होने के बाद काम तेजी से चलता है।

दिल्ली-मेरठ, चंडीगढ़-शिमला जैसे एक्सप्रेसवे में दिन-रात तेजी से चल रहा काम और गुडगांव में 18 महीने में बने तीन फ्लाइओवर इसका सबूत हैं। जिस तेजी से आजकल सड़क पर काम चल रहा है। उसका एक संकेत तो साफ है कि इरादा हो तो रास्ते निकल जाते हैं।

मगर सवाल अब भी कई हैं जिनका जवाब अभी बाकी है। मसलन, टोल वसूली को लेकर देश भर में बढ़ रहे असंतोष से यह नई व्यवस्‍था कैसे पार पाएगी? पुराने सभी राजमार्गों पर प्रस्तावित टोल अवार्ड दिए जाने के बाद लोगों में कैसी प्रतिक्रिया होगी? फिर इससे जुड़ा सवाल यह भी है कि राष्ट्रीय संसाधनों को निजी हाथों में सौंपने का सिलसिला कहां जाकर थमेगा? ये सवाल अभी ही जुबां पर तैरने लगे हैं। हालांकि यह भी तय है कि गडकरी यह सब इसलिए कर पा रहे हैं क्योंकि मोदी सरकार का इस ओर स्पष्ट रुझान है। पहले की सरकारों में इस ओर बढ़ने में एक तरह की हिचक थी। जो भी हो, मोदी सरकार कम से कम इस मामले में तो रफ्तार पकड़ती दिख रही है।

 

भूमि अधिग्रहण की चुनौतियां

सड़क क्षेत्र की चुनौतियों का भूमि अधिग्रहण से पुराना नाता रहा है। 2014 से पहले वन और पर्यावरण मंजूरी न मिलने की वजह से कई हाइवे परियोजनाएं अटकी हुई थीं। इस मोर्चे पर मोदी सरकार ने काफी चुस्ती दिखाते हुए मंजूरी दिलाने की प्रक्रिया में तेजी ला दी है। इस काम में नितिन गडकरी की अगुआई में इन्फ्रास्ट्रक्चर मामलों पर बना मंत्री समूह भी अहम भूमिका निभा रहा है। लेकिन भूमि अधिग्रहण की दिक्कतें अभी भी कम नहीं हैं। एनएचएआइ के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि नए भूमि अधिग्रहण के तहत मुआवजा दिए जाने से लैंड पर आने वाला खर्च कई गुना बढ़ गया है। इसका असर प्रोजेक्ट लागत पर भी पड़ रहा है। इसका तत्काल असर यह हुआ कि कोई भी हाइवे प्रोजेक्ट हजार करोड़ रुपये से ऊपर पहुंच जाता था, जिसकी मंजूरी के लिए कैबिनेट के पास जाना जरूरी होता। इसमें विलंब होना तय था। इस समस्या को दूर करने के लिए 1000 करोड़ रुपये तक के प्रोजेक्ट मंत्रालय के स्तर पर ही मंजूर कराने की व्यवस्था की गई। इनकी मंजूरी के लिए कैबिनेट के पास नहीं जाना पड़ा। इस 1000 करोड़ रुपये की सीमा में भी जमीन की कीमत शामिल नहीं की जाती है। इसके अलावा स्‍थानीय अधिकारियों को मंजूरी का अधिकार भी भी 25 करोड़ की जगह 100 करोड़ रुपये तक के दे दिए गए हैं।

हालांकि, नए भूमि अधिग्रहण के तहत बढ़ा हुआ मुआवजा दिए जाने से बहुत से लोग आसानी से जमीन देने के लिए राजी होने लगे हैं। इससे अधिग्रहण की मुश्किलें कुछ कम हुई हैं लेकिन खर्च बढ़ गया है। सड़क मंत्रालय के एक अधिकारी बताते हैं कि 2013 से पहले हाइवे प्रोजेक्ट में जमीन की लागत 15-20 फीसदी होती थी जो अब बढ़कर 35-40 फीसदी तक पहुंच जाती है। मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार, पिछले तीन साल में सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय ने 23,500 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण कर कुल 47800 करोड़ रुपये का मुआवजा बांटा। इससे भी सड़क निर्माण में आई तेजी का अंदाजा लगता है।

 

भारतमाला

देश के प्रमुख औद्योगिक कॉरिडोर को जोड़ने के लिए केंद्र सरकार ने भारतमाला नाम की परियोजना शुरू की है। इसके तहत करीब 25 हजार किमी हाइवे का निर्माण किया जाएगा। इसमें करीब छह लाख करोड़ रुपये के निवेश का अनुमान है। इसमें इकोनॉमिक कॉरिडोर और कॉस्टल व बॉर्डर रोड भी शामिल होंगे।

हाइवे विलेज

दो लाख किमी के नेशनल हाइवे बनाने के लक्ष्य के साथ इनके किनारे सुविधाएं विकसित करने पर जोर। राजमार्गों पर हर 50 किमी पर ‘हाइवे विलेज’ और ‘हाइवे नेस्ट’ बनेंगे। इसके लिए 183 स्थानों पर जमीन का अधिग्रहण हो चुका है। 34 के लिए निविदाएं आ चुकी हैं। अक्टूबर के अंत तक कांट्रैक्ट अवार्ड होंगे।

दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे

दिल्ली एनसीआर पर प्रदूषण और ट्रैफिक का दबाव कम करने के लिए करीब 35 हजार करोड़ रुपये की हाइवे परियोजनाएं चल रही हैं। इनमें दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे प्रमुख है जो करीब सात हजार करोड़ की लागत से चार पैकेज में बनेगा। इससे दिल्ली-मेरठ के बीच 90 किमी की दूरी 35 से 40 मिनट में तय की जा सकेगी।

ईस्टर्न पेरीफेरल

दिल्ली में भारी वाहनों की एंट्री को नियंत्रित करने के लिए बन रहे ईस्टर्न पेरीफेरल एक्सप्रेसवे का काम दिसंबर तक पूरा होने की उम्मीद। भूमि अधिग्रहण को लेकर किसानों के विरोध की मुश्किलें आईं। इस पर रोजाना करीब एक लाख बोरी सीमेंट की खपत जबकि सीमेंट से सड़क की 10 में से 8 मशीनें यहां लगीं।

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