यह सवाल वाकई मौजूं है कि क्या हाल के कुछेक विश्वविद्यालयों के छात्रसंघ चुनावों के नतीजों को युवा मन के बदलते रुझानों का आईना माना जा सकता है? दरअसल, दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की हमेशा से देश की सियासत का मूड भांपने में खास सियासी अहमियत रही है। सो डीयू में चार साल के अंतराल के बाद कांग्रेस की छात्र शाखा एनएसयूआइ की धमाकेदार वापसी और जेएनयू में संयुक्त वामपंथी पैनल की फिर जीत क्या युवाओं के बदलते मूड का संकेत दे रहे हैं। यही नहीं, हाल में राजस्थान में छात्रसंघ चुनावों के नतीजे भी कुछ बदलाव का इशारा करते दिखते हैं। राजनैतिक पंडितों को भी यह बदलाव अहम दिखता है, भले उनकी व्याख्याएं अलग-अलग हों।
चार साल बाद डीयू में एनएसयूआइ ने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद जीता और संयुक्त सचिव पद भी दोबारा गिनती के बाद मामूली अंतर से हारी, सचिव पद एबीवीपी के पाले में गया। इसी तरह जेएनयू में संयुक्त वाम पैनल की सभी शीर्ष पदों पर जीत हुई। भाजपा शासित राजस्थान के विश्वविद्यालयों तथा कॉलेजों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन (एनएसयूआइ) को सीवाइएसएस यानी छात्र युवा संघर्ष समिति ने टक्कर दी। चुनाव विश्लेषक और स्वराज इंडिया के नेता योगेंद्र यादव ने कहा, “अहम यह है कि जीते तो अलग-अलग संगठन पर हारी सब जगह एबीवीपी ही है।”
इस बार नतीजे ही अलग नहीं हैं, बल्कि चुनाव से पहले मिरांडा हाउस में ‘एबीवीपी नहीं चाहिए’ की आवाजें भी उठीं जिसके वीडियो वायरल हुए। उससे डीयू के मूड का अंदाजा होने लगा। रामजस कॉलेज में एक सेमिनार को लेकर जो हंगामा खड़ा हुआ, उसका नुकसान भी एबीवीपी को उठाना पड़ा। छात्रों और शिक्षकों के साथ मारपीट के विवाद में एबीवीपी और इसके नेताओं की छवि खराब हुई। वैसे, छवि एनएसयूआइ के छात्र नेताओं की भी डीयू में बहुत अच्छी नहीं है। लेकिन मोहभंग की स्थिति में वह विकल्प बन गई लगती है। दिल्ली विश्वविद्यालय में बीए थर्ड ईयर की छात्रा सुजाता का कहना है, “नरेन्द्र मोदी की नीतियों को लेकर छात्रों में रोष बढ़ रहा है। रोजगार के बारे में जैसा मोदी ने कहा, वैसा कुछ दिखाई नहीं दे रहा। इसके अलावा रिटायर्ड प्रोफेसर को फिर से लगाना भी ठीक नहीं कहा जा सकता। इससे पीएचडी कर रहे युवाओं के रास्ते ही बंद होंगे। चार साल तक काबिज एबीवीपी ने भी छात्रों के हित में कुछ नहीं किया।”
हालांकि एबीवीपी की राष्ट्रीय सचिव मोनिका चौधरी कहती हैं, “एबीवीपी को दो सीटें मिली हैं और तीसरी का अंतर भी कम रहा है। दो सीटों पर हुई हार की समीक्षा करेंगे। डीयू में अध्यक्ष पद पर निर्दलीय राजा चौधरी को लेकर भी छात्रों में मतदान के दौरान भ्रम रहा क्योंकि यह हमारे उम्मीदवार रजत चौधरी से मिलता जुलता नाम था। जहां तक जेएनयू की बात है तो वहां लेफ्ट के तीन धड़ों ने मिलकर चुनाव लड़ा है इसके बावजूद यहां एबीवीपी का वोट बढ़ा है।”
दरअसल, यह जानना जरूरी है कि डीयू और जेएनयू को युवा मूड बदलने का संकेत क्यों माना जा रहा है। डीयू और जेएनयू देश भर की मिली-जुली छात्र आबादी के बड़े केंद्र हैं लेकिन दोनों की तासीर अलग रही है। डीयू के पूरी दिल्ली में फैले 80 से ज्यादा कॉलेज-कैंपस और सवा लाख से ज्यादा छात्र किसी विधानसभा से कम नहीं हैं। डीयू मुख्यधारा की राजनीति में बदलाव के हर मोड़ पर खड़ा रहा है। जेपी आंदोलन, वी.पी. सिंह की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम, मंडल-मंदिर हलचल और अन्ना आंदोलन की धमक यहां सबसे अधिक दिखी है। जेएनयू खास तरह के वामपंथी रुझान और नए विचारों के प्रस्फुटन का केंद्र रहा है। लेकिन मौजूदा संदर्भ में दोनों की खास अहमियत है। 2011-12 के अन्ना आंदोलन से बनी भ्रष्टाचार विरोधी फिजा में 2013 में नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली में श्रीराम कॉलेज और बाद में मिरांडा हाउस में केंद्रीय राजनीति की अपनी मोटी रूपरेखा बताई थी और युवाओं में मोदी का आकर्षण एक फिनामिना की तरह उभरा था। सो, डीयू में पिछले चार साल से भाजपा की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) का दबदबा रहा है।
इसी तरह जेएनयू हाल के वर्षों में काफी हलचल का केंद्र रहा है। उसे देशद्रोहियों का अड्डा तक बताया गया। अब एबीवीपी को मिले मतों में मामूली अंतर ही आया है पर नए छात्र संगठन बापसा से वह दूसरे तीसरे नंबर की होड़ लेती रही है। इसलिए वाम संगठनों की जीत को एबीवीपी की कोशिशों से खास इजाफा न होने की तरह देखा जा रहा है। शायद इसी वजह से दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर तथा डीटीएफ के उपाध्यक्ष राजीव कुमार का कहना है कि मुख्य तौर पर ये परिणाम राष्ट्रीय राजनीति को वैकल्पिक दिशा देने का काम कर सकते हैं। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज शिमला से जुड़े प्रोफेसर आनंद कुमार का कहना है, “जेएनयू के विद्यार्थियों ने परिवर्तन और प्रगति के पक्ष में फिर से मतदान किया है। वहां का विद्यार्थी समुदाय समूचे भारत का छोटा स्वरूप है, इस नाते इसे मौजूदा शासकों को अपनी नीतियों की समीक्षा का आग्रह मानना चाहिए। अगर इसे देशद्रोहियों का ऐलान-ए-बगावत माना गया तो यह उनकी दृष्टिहीनता का परिचायक होगा। दूसरे, दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ का फैसला भाजपा और आप दोनों के लिए इस बात का संकेत है कि दिल्ली का युवा मोहभंग का ऐलान कर रहा है। डीयू में एनएसयूआइ का जीतना दर्शाता है कि मोदी सरकार के प्रति नई पीढ़ी का मोहभंग हो रहा है।”
प्रोफेसर राजीव के मुताबिक, “एबीवीपी और वीसी के जरिए यूजीसी से आयद फेलोशिप से लेकर गजट अमेंडमेंट और सीट कट तक खेल जारी रहा। नामांकन की प्रक्रिया बदली गई। आरक्षण को खत्म करने की आरएसएस योजना का समर्थन हुआ। दूसरे, आरक्षण विरोधी नीति गढ़ी गई। तीसरा, सांप्रदायिकता को आवरण बनाकर शिक्षा नीति पर हमले की योजना का आधार बनाया गया। सार्वजनिक शिक्षा के अंत का प्रभाव अंततः दलित, पिछड़े, महिलाओं और गरीबों पर ही होगा।”
एनएसयूआइ के राष्ट्रीय अध्यक्ष फिरोज खान कहते हैं, “युवाओं का अब भाजपा से मोहभंग हो रहा है और कई राज्यों में एबीवीपी लगातार हारी है। रोजगार, नोटबंदी, छात्रवृत्ति जैसे मुद्दों पर छात्रों का सरकार से विश्वास हटा है। युवाओं ने हम पर विश्वास किया है।” आइसा की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुचेता डे कहती हैं, “पूरे प्रशासन और पुलिस तंत्र के साथ होने के बावजूद एबीवीपी को रिजेक्ट किया गया है।”
लेकिन जरा ठहरिए, ये चुनाव मोहभंग की एक और तस्वीर पेश कर रहे हैं, जो शायद मुख्यधारा की पार्टियों के लिए चिंता का सबब बन सकते हैं। अब इन दलों को नोटा यानी ‘इनमें से कोई नहीं’ का विकल्प कड़ी चुनौती देता लग रहा है। नोटा के खाते में जेएनयू और डीयू में जमकर वोट पड़े। डीयू में अध्यक्ष पद पर 5162, उपाध्यक्ष पद पर 7684 और सचिव पद पर 7891 छात्रों ने नोटा को चुना। संयुक्त सचिव पद पर तो नोटा के पक्ष में 9028 वोट पड़े। मतलब, जीतने वाले उम्मीदवार को 16691 वोट मिले तो 9 हजार से ज्यादा छात्रों ने नोटा को अपनी पसंद बनाया। विकल्पहीनता के ऐसे उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं। डीयू छात्रसंघ के चारों पदों पर 29 हजार से ज्यादा छात्रों ने किसी भी उम्मीदवार के बजाय नोटा को तरजीह दी।
इससे पहले जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में एनएसयूआइ को नोटा से भी कम वोट मिलने का खूब मजाक बना था। वहां सेंट्रल पैनल के लिए एनएसयूआइ के चारों उम्मीदवारों को कुल 728 वोट मिले थे, जबकि नोटा के खाते में 1512 वोट आए। जेएनयू में कामयाबी का परचम फहराने वाले वामपंथी छात्र संगठनों को डीयू में नोटा ने मात दे दी। हालांकि, डीयू में आइसा ने जनाधार बढ़ाया लेकिन अध्यक्ष पद पर इसकी उम्मीदवार पारुल चौहान 4895 वोट पाकर चौथे नंबर पर रहीं, क्योंकि 5162 वोट नोटा को चले गए। इसी तरह उपाध्यक्ष पद पर एबीवीपी के पार्थ राणा सिर्फ 175 वोटों से हारे जबकि 7684 छात्रों ने नोटा को चुना। यानी एबीवीपी हो या एनएसयूआइ या फिर आइसा, नोटा ने सबको चोट दी।
हालांकि यह भी माना जा रहा है कि डीयू में नोटा को गए हजारों मतों में से बड़ा हिस्सा आम आदमी पार्टी की छात्र इकाई सीवाइएसएस का है, जिसने सेंट्रल पैनल के चुनाव में अपने उम्मीदवार नहीं उतारे। पिछले साल सीवाइएसएस ने अपने समर्थकों से नोटा का इस्तेमाल करने की अपील की थी। इसलिए इस साल नोटा को गए वोटों में भी सीवाइएसएस समर्थकों का बड़ा हिस्सा हो सकता है। फिर भी नोटा को मिले भारी समर्थन से इतना जरूर जाहिर है कि देश के सबसे प्रखर नौजवान छात्रों में मौजूदा राजनीतिक विकल्पों से मोहभंग दिखाई पड़ रहा है।
उभरते छात्र संगठन
कुछ छात्र संगठनों ने कम समय में छात्रों के बीच अपनी अच्छी-खासी पकड़ बनाकर सबको चौंकाया है। छात्रों के बीच इनकी मौजूदगी को पुराने और पारंपरिक छात्र संगठनों के लिए चुनौती के रूप में भी देखा जा रहा है। इन पर एक नजरः
बापसा
बापसा यानी बिरसा आबंडेकर फूले स्टूडेंट्स एसेसिएशन तब सुर्खियों में आया जब 2016 में जेएनयू छात्रसंघ चुनाव के दौरान इसने अपने प्रदर्शन से सबको चौंका दिया था। दरअसल इस दल के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार राहुल सोमपिम्पले ने आइसा के मोहित पांडे का आखिर तक पीछा किया और महज 409 वोटों से उन्हें हार का सामना करना पड़ा। यही नहीं बापसा के दूसरे उम्मीदवारों ने भी अच्छा प्रदर्शन किया। बापसा खासकर दलितों, आंबेडकरवादियों और मुस्लिम मतदाताओं का एक गठबंधन है। इसका गठन जेएनयू में 15 नवंबर 2014 को हुआ जिसके बाद से वह छात्रों के बीच विचार प्रधान राजनीति कर रहा है।
लाल और भगवा झंडे को भाई-भाई बताने वाले इस दल ने वामपंथी गढ़ जेएनयू में छात्रों को नया विकल्प देने का प्रयास किया है। इसने अपने गठन के बाद से कैंपस में दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, मुस्लिमों, कश्मीरियों और पूर्वोत्तर के रहने वाले विद्यार्थियों में अपनी पैठ बनानी शुरू की। नतीजा यह हुआ कि इस बार भी बापसा की ओर से अध्यक्ष पद की उम्मीदवार शबाना अली 935 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहीं। इनके बाकी उम्मीदवार भी तीसरे स्थान पर रहे। जबकि कन्हैया कुमार जिस संगठन एआइएसएफ से अध्यक्ष चुने गए थे, उसकी अध्यक्ष पद की उम्मीदवार डी राजा की बेटी अपराजिता इस बार पांचवें स्थान पर रहीं।
यूनाइटेड ओबीसी फोरम
यूनाइटेड ओबीसी फोरम के संस्थापक सदस्य मुलायम यादव का मानना है कि प्रगतिशीलता के मुखौटे का पर्दाफाश करने के लिए लेफ्ट या राइट से अलग एक मंच की जरूरत थी। ‘‘जिन सवालों पर गौर नहीं किया गया, जिन सवालों को दबाया गया, उन सवालों को पूछने के लिए हमने यूनाइटेड ओबीसी फोरम बनाया।’’
2015 में जेएनयू के भीतर गठित इस संगठन की इकाइयां अब कर्नाटक, गुजरात, हैदराबाद की सेंट्रल यूनिवर्सिटी में भी बन चुकी हैं। वहीं 2017 में इस बार हुए जेएनयू छात्रसंघ चुनाव में इसका समर्थन बापसा को रहा। बापसा या ओबीसी फोरम जैसे संगठनों की जरूरत पर मुलायम कहते हैं, ‘‘हमारे मसलों पर ठेकेदारी की गई, इसीलिए अपनी लड़ाई खुद लड़नी जरूरी है। अब लोग अपने नायकों की खोज में इस तरह के संगठन बना रहे हैं।’’
सीवाइएसएस
आम आदमी पार्टी ने सीवाइएसएस यानी छात्र युवा संघर्ष समिति का गठन किया, जिसके बाद राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब, दिल्ली, गुजरात सहित कई राज्यों में पार्टी ने अपनी पहुंच बनाई। 2016 में दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इसने चुनाव में भी भाग लिया लेकिन कोई खास सफलता नहीं मिल पाई। लेकिन हाल ही में राजस्थान में हुए छात्रसंघ चुनाव में सीवाइएसएस ने अपनी कामयाबी से सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। दरअसल, भाजपा शासित राजस्थान में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन जैसे पारंपरिक संगठनों का बोलबाला है। ऐसे में सीवाइएसएस का दावा है कि उसने राजस्थान के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में 50 से अधिक सीटों पर कामयाबी पाई है। इस जीत से आम आदमी पार्टी भी काफी उत्साहित नजर आई। अब सीवाइएसएस दिल्ली के प्रवक्ता अनमोल को भरोसा है कि देश के अन्य इलाकों में भी उनके संगठन की स्वीकार्यता बढ़ेगी।
कुछ और नए छात्र संगठन
हाल फिलहाल जिन दो संगठन की खबरें सुर्खियां बनीं उसमें पहला है आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्कल और दूसरा है भगत सिंह आंबेडकर स्टूडेंट आर्गेनाइजेशन यानी बासो। बासो के संस्थापक जेएनयू के खालिद उमर हैं। ‘स्वराज इंडिया’ की शाखा ‘यूथ फॉर स्वराज’ भी दिल्ली सहित कई राज्यों में सक्रिय है।