Advertisement

बोलने की आजादी और सब की खुशी

धर्म, राजनीति और साहित्य पर मतभेद होना ही है इसी में अभिव्यक्ति का रास्ता हमें निकालना होगा
सर्वधर्म समभाव

याद आता है, इसी आजाद भारतवर्ष में मेरा क्या हाल हुआ था। कुछ साल पहले मुझे पश्चिम बंगाल, फिर राजस्थान और फिर हिंदुस्तान से बाहर निकाल दिया गया था। किस तरह मुझे नजरबंद रखा गया था, किस तरह असुरक्षित थी मैं इस देश के सुरक्षित घर में। सरकार अपने छल-बल-कौशल से मुझे देश से भगाना चाह रही थी। और मैं, एक असहाय, निर्वासित लेखिका, जिसके साथ न कोई राजनीतिक दल, न कोई संगठन था। चंद साधारण लोगों के अलावा कोई नामी-गिरामी शख्सियत भी साथ नहीं थी। मैं अकेली अडिग खड़ी रही। सरकार की कोई नसीहत, कोई आदेश नहीं माना मैंने। खुद के मनोबल के अलावा कोई और सहारा नहीं था मेरा। मैंने कोई अन्याय नहीं किया, फिर मुझे क्यों सजा मिले। पृथ्वी की संतान हूं, जिस देश में प्यार से रहना चाहती हूं, उस देश में रहने का अधिकार क्यों न होगा मेरा। जो राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करता है, वह क्यों एक ईमानदार, साहसी और धर्मनिरपेक्ष लेखक को नारी विरोधी, बेईमान और असहिष्णु कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए देश से निकाल देगा। अपनी जान बचाने के लिए एक वक्त पर मैं भारत से निकल जाने के लिए मजबूर जरूर हुई थी, लेकिन हजारों पाबंदियां, रुकावटें, कोहराम और धमकियों के बावजूद मैं हिंदुस्तान लौट आई। इसलिए नहीं कि इस देश में वापस आने के अलावा कोई और चारा नहीं था बल्कि यह देश आजाद सोच का सम्मान करता है, इसलिए। मैं अपनी तरह अपना मत प्रकट करूंगी चाहे वह किसी दूसरे के मत से अलग क्यों न हो। मैं भारत में ही रहूंगी। भारत को देख कर पड़ोसी देशों को सीखना चाहिए, प्रेरणा लेनी चाहिए, जो अब तक ठीक से जानते न हों कि वाक् स्वाधीनता किसे कहते हैं।

हाल ही में वाक् स्वाधीनता विरोधी किसी एक कानून पर भारतवर्ष में प्रतिबंध लगा है। काले कानून को खत्म करने की लड़ाई में मुट्ठी भर लोगों में से एक मैं भी थी। भारत की नागरिक न होने के बावजूद एक असंवैधानिक कानून के विरोध की लड़ाई में शामिल हुई और जीती भी हूं। सिर्फ भारत ही नहीं, यह लड़ाई पूरी दुनिया में चल रही है। लेकिन यह लड़ाई विभिन्न धर्मों के बीच नहीं बल्कि दो सिद्धांत, धर्मनिरपेक्षता और कट्टरपंथ के बीच है। ज्ञान और अज्ञानता, जागरूकता और जड़ता, आजादी और पराधीनता के बीच है। विरोध का मतलब यह नहीं है कि नापसंदगी पर किसी को गोली मार दें। अगर किसी का मत मुझे पसंद नहीं तो मैं उसे चूमूंगी नहीं लेकिन उसके गाल पर थप्पड़ भी नहीं मारूंगी। मैं लिख कर अपनी राय जाहिर करूंगी। अगर किसी को मेरा लिखा पसंद नहीं आता तो वह मेरे लिखे का विरोध लिखकर ही करे। वह चाहे तो अभिव्यक्ति के खिलाफ भाषण दे सकता है, लेकिन मुझे मारने नहीं आ सकता। वाक् स्वाधीनता की इस शर्त को आजकल बहुत लोग जानते हैं। लेकिन जानते हुए भी कुछ धार्मिक कट्टरपंथी-आतंकी इस शर्त को बिलकुल नहीं मानना चाहते।

इस तरह मार-पीट कर धर्म को टिकाए रखा जा सकता है क्या? दुनिया में हजारों धर्म थे। अब ज्यादातर धर्म विलुप्त हो गए हैं। कहां हैं आज ओलंपिया पहाड़ के वे मशहूर देवी-देवता? कहां हैं शक्तिशाली रोमनों के वे महान ईश्वर? आज सब इतिहास हैं। सभी धर्म एक वक्त पर इतिहास बन जाएंगे। हो सकता है, दुनिया इसी तरह चलती रहेगी। शिक्षा और जागरूकता के साथ-साथ अशिक्षा, जड़ता और मूर्खता भी चलती रहेगी। धर्मांध और नेता अपना-अपना स्वार्थ देखेंगे, समाज को अंधकार में ही पड़े रहने देंगे। बस कुछ स्वस्थ, सचेतन लोग ही समाज को बदलने के बारे में सोचेंगे। उंगलियों पर गिने जाने वाले लोग ही समाज को बदलते हैं। हमेशा से यही हुआ है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व, तानाशाहों को तो छोड़ दिया जाए, अधिकांश लोकतांत्रिक सरकारें भी नहीं समझना चाहती हैं। वाक् स्वाधीनता की बात करने पर बहुतों को कहते सुना है कि इसकी भी एक सीमा है। आजादी का मतलब किसी की भावनाओं को चोट पहुंचाना नहीं है। लोकतंत्र तो बिलकुल निरर्थक साबित हो जाता है जहां इनसान को बोलने या अभिव्यक्ति की आजादी नहीं होती। समाज बदलने के लिए लोगों की अनुभूतियों को तो आघात लगता ही है, राष्ट्र से धर्म को अलग करने या नारी विरोधी कानूनों को दूर करने पर लोगों के धर्मानुभूति पर भी चोट लगती है। धर्मानुभूति पर चोट पहुंचाए बिना समाज में आज तक कोई अच्छा काम नहीं हुआ है। यूरोप से गिरजाघर के कुशासन को खत्म करते वक्त बहुत लोगों की धर्मानुभूति पर आघात लगा था। गैलीलियो की बात से लोगों की धर्मानुभूति पर चोट लगी थी। विज्ञान की प्रगति से कुसंस्कारग्रस्त लोगों की धर्मानुभूति पर आघात लगता ही है। लेकिन उन्हें चोट पहुंचेगी इसलिए हम मत प्रकट करना बंद कर नहीं कर सकते। हम विज्ञान के आविष्कार एवं व्यवहार निषिद्ध कर दें, सभ्यता के चक्के को रोक दें, तब तो समाज ठहरा जलाशय हो जाएगा, उसे फिर स्वत: स्फूर्त धारा बनाना हमारे लिए कतई संभव न होगा। अगर लोगों के मन को संतुष्ट करने के लिए बातें की जाएं तो हमें अभिव्यक्ति शब्द को भूल जाना होगा। फिर हमें वाक् स्वाधीनता की कोई जरूरत नहीं है। वाक् स्वाधीनता के पक्ष में न रहकर जब सरकार वाक् स्वाधीनता विरोधियों का पक्ष लेती है, तब वह अपने देश के ध्वंस को खुद ही दावत देती है।

(बांग्ला लेखिका। बांग्लादेश से निर्वासित होकर भारत में रह रही हैं।) बांग्ला से अनुवाद अमृता बेरा

Advertisement
Advertisement
Advertisement