लोकतंत्र में चुनाव का सामना करने से कोई बार-बार नहीं बच सकता। यह शासन-व्यवस्था का ऐसा तंत्र है, जिसमें जनता के हित के लिए जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही सारी व्यवस्था का संचालन करते हैं। इसलिए गोरखपुर से तत्कालीन सांसद योगी आदित्यनाथ जब 19 मार्च को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, तब उनसे उम्मीद की गई थी कि वह शासन-व्यवस्था संभालने के लिए कोई शॉर्ट कट नहीं अपनाएंगे और विधानसभा का उपचुनाव जीत कर सदन की शोभा बढ़ाएंगे। लेकिन जनसंख्या के लिहाज से देश के सबसे बड़े राज्य को गर्व का यह मौका न देकर, चुनाव से बचते हुए, उन्होंने विधान परिषद का सदस्य बनने का शॉर्ट कट रास्ता ही अपनाया।
विधानसभा में प्रचंड बहुमत से सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को छह महीने में ही एकजुट विपक्ष का ऐसा भय सताने लगा कि वह अपने मुख्यमंत्री को ही सीधे चुनावी दंगल में उतारने से घबरा गई। इसलिए पार्टी ने योगी और मंत्रिमंडल के चार अन्य सदस्यों को प्रदेश विधायिका का सदस्य बनाने के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव का रास्ता चुना और पांचों को विधान परिषद के रास्ते विधानमंडल में स्थापित किया।
लेकिन लोकतंत्र में बार-बार शॉर्ट कट नहीं चलता। यहां कदम-कदम पर चुनाव का सामना करना ही पड़ता है। छह महीने पूरी कर चुकी योगी सरकार के सामने भी शहरी निकाय चुनाव सामने आ गया है। यह कहना ही होगा कि नवंबर में होने वाले निकाय चुनाव योगी के लिए अग्निपरीक्षा साबित होंगे, क्योंकि सत्ता संभालने के बाद से उन्होंने अभी तक प्रत्यक्ष चुनाव का सामना नहीं किया है और न ही ऐसे किसी चुनाव का नेतृत्व किया है। हालांकि शहरी निकायों में भाजपा का काफी समय से वर्चस्व रहा है। फिर भी राज्य में प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ होने के कारण योगी सरकार के सामने चुनौती न केवल पार्टी की सीटें बरकरार रखने की होगी, बल्कि सीटें बढ़ाने की भी है।
प्रदेश में इस समय 16 नगर निगम हैं। इनमें योगी सरकार द्वारा हाल ही में गठित अयोध्या और मथुरा-वृंदावन नगर निगम भी शामिल हैं। इनके अलावा 438 नगरपालिकाएं और 202 शहरी क्षेत्र भी हैं, जिनमें तीन करोड़ से भी अधिक मतदाता मतदान करेंगे। इन चुनावों में हजार से अधिक पार्षद और दस हजार से अधिक नगरपालिका परिषद सदस्यों का चयन होगा।
2012 के निकाय चुनावों में जहां भाजपा और कांग्रेस उम्मीदवारों ने पार्टी के चिह्न पर चुनाव लड़ा था, वहीं सपा और बसपा ने अपने उम्मीदवारों का समर्थन तो किया था, पर उन्हें पार्टी के चुनाव चिह्न इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी थी। 2012 में भाजपा ने इन चुनावों में अपना सिक्का जमाते हुए उस वक्त के 12 में से 10 नगर निगमों में मेयर पद जीते थे। पार्टी ने गाजियाबाद, लखनऊ, कानपुर, मेरठ, आगरा, गोरखपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़, झांसी और वाराणसी में जीत दर्ज की थी।
उत्तर प्रदेश भाजपा के महामंत्री विजय बहादुर पाठक ने कहा, “पार्टी पूरी तरह से निकाय चुनाव की तैयारी में जुटी है। हम पिछली बार से भी बेहतर प्रदर्शन करेंगे। हमारे लिए पार्टी पहले है और प्रत्याशी बाद में। इसलिए परिसीमन के बाद प्रत्याशियों का चयन होगा और हम पूरी ताकत से शहरी निकाय चुनाव लड़ेंगे।”
वैसे तो विपक्ष ने योगी सरकार को घेरने के लिए भविष्य में होने वाले चुनावों में एकजुट होने के संकेत दिए हैं, पर सपा, बसपा और कांग्रेस ने शहरी निकाय चुनाव अलग-अलग लड़ने की घोषणा भी कर रखी है। इससे न केवल योगी के लिए रास्ता सुगम होगा बल्कि विपक्षी एकजुटता के दावों की पोल भी खुल जाएगी। वरिष्ठ सपा नेता एवं उप्र के पूर्व कैबिनेट मंत्री राजेंद्र चौधरी ने आउटलुक से बातचीत में इसकी पुष्टि की कि उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी। उन्होंने कहा, “शहरी निकाय चुनाव के लिए पार्टी पूरी तरह से तैयार है। उम्मीदवारों के आवेदन आने भी शुरू हो गए हैं और हम जल्द ही नामों के चयन की प्रक्रिया आरंभ करेंगे।” बसपा के प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मंत्री राम अचल राजभर ने भी बताया कि उनकी पार्टी अपने चुनाव चिह्न पर ही लड़ेगी और किसी से गठबंधन नहीं करेगी।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर ने पहले ही अपनी पार्टी का रुख साफ करते हुए घोषणा कर दी थी कि उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी। उनके मुताबिक, गठबंधन करने से कांग्रेस के कार्यकर्ता और नेता हतोत्साहित होंगे।