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अब काबू में कैंसर

आपके जींस खोल देंगे राज, नई उपचार विधियों से मुकम्मल इलाज की उम्मीद जगी
जींस से खुलेंगे बीमारी के राज

नए मेडिकल अनुसंधानों और उपचार विधियों से उम्मीदों का वह आकाश खुलने लगा है, जिससे कैंसर से बचाव संभव दिखने लगा है। लंबे समय से दर्दनाक मौत का परवाना माने जाने वाले इस मर्ज के अब न सिर्फ इलाज के नए विकल्प सामने आ गए हैं, बल्कि इसे शुरुआत में ही पहचान लेने के टेस्ट भी उपलब्‍ध हो गए हैं। इन अनुसंधानों के केंद्र में कैंसर की असली वजहों और सूक्ष्मतम या उसकी आणविक जानकारियां काम आ रही हैं। डॉक्टर अब कैंसर को जींस या गुणसूत्रों की बीमारी मानते हैं, न कि किसी खास अंग की। हमारी सक्रियता के लिए हमारा शरीर रोजाना ही जींस के कूट संदेशों को खंगालता है। कई बार इसी प्रक्रिया में गलत संदेश चला जाता है और उससे गलत कूट-निर्देश मिल जाते हैं जिससे कोशिकाओं के विभाजन की प्रक्रिया बेकाबू हो जाती है। और वही कैंसर कहलाता है।

अब अच्छी खबर जानिए। प्रतिरोधक क्षमता से संबंधित इम्यूनो आंकोलॉजी के नए अत्याधुनिक अनुसंधानों और कम से कम 50 नई दवाइयों के ईजाद से वह संभव हो पाया है जिसे डॉक्टर लक्षित इलाज कहते हैं। कुछ उत्साही लोग तो इसे कैंसर के मुकम्मल इलाज के काफी करीब बता रहे हैं। दरअसल कुछ लक्षित इलाज इतने सटीक होते हैं कि इनसे सिर्फ कैंसर कोशिकाओं पर ही हमला बोला जाता है, बाकी शरीर पर इसके दुष्प्रभाव नहीं होते, जो अभी उपलब्‍ध एकमात्र भरोसेमंद उपचार केमोथेरेपी के मामले में होता है। भारत में डॉक्टर इन नए उपचारों को आजमाने को तैयार दिख रहे हैं, हालांकि यह इतना खर्चीला है कि कुछ ही लोग इसका बोझ उठा पाते हैं। फिर भी एक बात तो साफ है कि कैंसर से लड़ाई अब पहले से ज्यादा स्मार्ट हो गई है।

लक्षित उपचार में यह नहीं देखा जाता कि ट्यूमर कहां हुआ है, बल्कि इस पर जोर होता है कि जींस में कैसे परिवर्तन या मार्कर (कूट संदेशों) से यह हुआ है। मार्कर गुणसूत्रों (क्रोमोजोम्स) में वह जीन होता है जिसकी पहचान आसान होती है। इससे कैंसर के बारे में बेहद बारीकी में पहुंचना संभव हुआ है, जिससे मुकम्मल तस्वीर साफ होने लगी है। यही नहीं, इससे कैंसर की वजहों के बारे में नजरिए में भी खासा फर्क आया है, जो बहुत हद तक अभी भी रहस्य बना हुआ है।

असल में 2001 में ग्लीवाक की खोज मील का पत्‍थर साबित हुई। यह बिगड़ैल प्रोटीन पर सीधे वार करता है। उससे खास तरह के ल्यूकेमिया से पीड़ित लोगों का जीवन पांच साल से अधिक होने की दर 90 फीसदी तक बढ़ गई है। अब जीन पर लक्षित दवाइयां इस लड़ाई को आगे ले जा रही हैं। इसी जून में अमेरिकन सोसायटी ऑफ क्लीनिकल आंकोलॉजी (एएससीओ) के वार्षिक सम्मेलन में लैरोट्रेकटिनिब नामक दवा लेने वाले पहले 50 मरीजों पर किए अध्ययन के नतीजे जाहिर किए गए। यह दवा लेने के 12 महीने बाद 60 फीसदी या पचास में से 30 मरीजों में कैंसर के दोबारा लौटने के कोई लक्षण नहीं थे। जाहिर है, उन पर अभी भी निगाह रखी जा रही है। यह दवा ट्रोपोमायोसिन रिसेप्टर किनासे जीन के खास तरह के परिवर्तन पर काम करती है।

भारत में आंकोलॉजिस्ट अधिक लक्षित उपचारों के अभाव में लंबे समय से मुख्य रूप से कैंसर के इलाज के लिए केमोथेरेपी (कोशिकाओं को नष्ट करने वाली दवाएं) और रेडिएशन पर टिके हुए हैं, जिनका भारी दुष्प्रभाव होता है। लेकिन नई टेक्नोलॉजी के उपलब्ध होने के बावजूद निदान के तय तरीके ऐसे हैं कि कोई डॉक्टर शायद ही जीन टेस्ट की बात करे, ताकि उस प्रोटीन को पहचाना जा सके, जो किसी जीन के गलत संदेश से कोशिकाओं को बेहिसाब वृद्धि का निर्देश भेज रहा है। यानी फोकस इस पर नहीं है कि सूक्ष्म या आणविक स्तर पर क्या चल रहा है या दूसरे शब्दों में कहें कि कैंसर की वजह क्या है।

दरअसल, डॉक्टरों को हमेशा से पता है कि कैंसर खास तरह के जीन परिवर्तन का नतीजा है। फिर भी पुराना रवैया यही है कि केमोथेरेपी और रेडिएशन (सिंकाई) इस उम्मीद में दी जाए कि शायद यह कारगर हो जाए। इसकी एक वजह तो यह है कि जेनेटिक्स की जानकारी अभी कम है, यह एक मायने में नया विज्ञान है इसलिए इसके दायरे अभी खुल ही रहे हैं। इसके अलावा अभी ऐसे तरीके ज्यादा उपलब्‍ध भी नहीं हैं जिनसे अपेक्षित नतीजे हासिल किए जा सकें। इसलिए यह लड़ाई दुश्मन की आहट में किसी अंधे सिपाही की तरह इधर-उधर गोलीबारी करने जैसी है जबकि जरूरत लक्ष्यभेदी अचूक निशानदेही की है।

इसके नतीजे भयावह हो सकते हैं क्योंकि ज्यादातर मामलों में बिगड़ैल जीन के लिए इलाज होता ही नहीं है। ऐसे परिदृश्य में जहां एक से बढ़कर एक सैकड़ों चूक की आशंका बनी हुई है, अलक्षित हमले की सफलता की दर काफी कम होनी ही है। और यह सिर्फ सिद्धांत की ही बात नहीं है। लक्षित उपचारों से जीवन बचाने की दर वाकई सुधर रही है और कैंसर लंबी अवधि के लिए दूर हो जाता है।

मिली लक्ष्यभेदी दवाः स्कूल अध्यापिका और रेडियो गायिका मीना नांदाल का गर्भाशय का कैंसर केमोथेरेपी से काबू में नहीं आ रहा था। जेनेटिक टेस्ट के बाद बीआरसीए2 जीन में परिवर्तन का पता चला तो उन्हें पीएआरपी या पार्प नामक दवा दी गई। यह दवा काम कर रही है

दिल्ली में स्कूल शिक्षिका तथा आकाशवाणी की गायिका मीना नांदाल का मामला ही देखें। उन्होंने शुरू में अपने हल्के पेटदर्द को सामान्य ही समझा था। लेकिन 2011 दिसंबर में उन्हें बताया गया कि उन्हें तीसरे चरण का गर्भाशय कैंसर है तो मानो उनकी दुनिया ही थम गई। शुरू में केमोथेरेपी और रेडिएशन कारगर होता दिखा। “करीब अठारह महीने मैं ठीक रही लेकिन फिर कैंसर लौट आया।” वही उपचार फिर शुरू हुआ लेकिन अब उसका असर नहीं हो रहा था।

तब दिल्ली के बी.एल. कपूर मेमोरियल अस्पताल में उनके डॉक्टर अमित अग्रवाल ने जेनेटिक टेस्ट कराने का फैसला किया, ताकि यह जाना जा सके कि कैंसर कोशिकाओं पर कोई असर क्यों नहीं हो रहा है। इस टेस्ट की टेक्नोलॉजी वाले कुछेक संस्‍थानों में से एक बेंगलूरू की स्ट्रैंड लाइफ साइंसेज लिमिटेड में नमूना भेजा गया। इसके नतीजे काफी मददगार साबित हुए। नांदाल के कैंसर की वजह बीआरसीए2 जीन का परिवर्तन था। यह वही जीन है जिससे स्तन कैंसर होता है। हालांकि उसके परिवर्तन को मौटे तौर पर ‘अनजान असर के तत्व’ या वीयूएस बताया गया। यह ऐसे परिवर्तन का कोड है जिसका अनुसंधान अभी होना बाकी है। इसलिए स्ट्रैंड लाइफ साइंसेज के वैज्ञानिकों ने उनके परिजनों का परीक्षण करने का फैसला किया।

कई तरह की जांच और कंप्यूटर मॉडलिंग से पता चला कि नांदाल की हालत का जिम्मेदार वीयूएस के अलावा और कुछ नहीं है। बदतर यह था कि इससे उनके परिजन भी पीड़ित थे। उनकी छोटी बहन स्तन कैंसर से उबरी थीं। उनमें भी बीआरसीए2 जीन परिवर्तन का मामला था। यही हाल उनके भाई का भी था। ऐसे मामलों में मरीज पर केमोथेरेपी का असर नहीं होता था। मौजूदा गाइडलाइन के मुताबिक पीएआरपी या पार्प नामक दवा लेने की सलाह दी गई। सो, जीन टेस्ट का भला हो कि नांदाल पर लक्षित उपचार का असर होने लगा और फिलहाल वह जारी है।

प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका द लैंसेट में हाल में प्रकाशित इपीडिमियोलॉजी अध्ययन में भारत में हर साल कैंसर के करीब दस लाख नए मामले सामने आते हैं। यह दर पश्चिम के मुकाबले अभी भी कम है। भारत में स्‍त्री-पुरुष दोनों के मामलों को मिलाकर यूरोप का एक-चौथाई ही बैठता है। फिर भी मृत्यु दर उच्च आय वर्ग वाले देशों के बराबर ही है। इस अध्ययन के मुताबिक, 2012 में भारत में कैंसर से 6-7 लाख लोगों की मौत हुई।

अध्ययन की अगुआई करने वाले कोलकाता के टाटा मेडिकल सेंटर के प्रो. मोहनदास के. मलथ कहते हैं, “इन आंकड़ों से एक संकेत तो यही मिलता है कि शुरु‍आती चरण का कैंसर पहचाने जाने की दर बेहद कम है और इलाज के असर की दर खराब है।”

भारत में अचानक कैंसर बेहद आम होता जा रहा है तो उससे लड़ने और उसके लिए तैयार रहने की जागरूकता भी बढ़ रही है। पिछली गर्मियों में निर्मल कौर डॉक्टर के चैंबर के बाहर बैठी अपनी जिंदगी के फैसले का इंतजार कर रही थीं। पिछले दो साल से अपनी मां और आंटी को स्तन कैंसर से लड़ती देखने के बाद उन्होंने यह पता लगाने का फैसला किया कि उनमें भी कैंसर वाले जीन हैं या नहीं। कौर के टेस्‍ट से पता चला कि उनमें स्तन कैंसर की आशंका 65 फीसदी तक है। वे कहती हैं, “मैं अब बेहतर तैयारी कर चुकी हूं और डॉक्टरों ने मुझे हर छह महीने में टेस्ट कराने की सलाह दी है।” 

अब दो मामलों में काफी प्रगति हुई है। एक, जेनेटिक मैपिंग तकनीक देश में आसानी से उपलब्‍ध है। इससे कैंसर और अल्जाइमर्स जैसी असाध्य बीमारियों के होने की संभावना की मात्रा का पता चल जाता है, जैसा कि कौर के मामले में हुआ। इसका मकसद यह है कि इन बीमारियों की जल्दी पहचान कर ली जाए, ताकि उनका इलाज हो सके। इसके साथ ही भारतीय जीन के बारीक और विस्तृत डाटा से अपने देश के बारे में बेहतर समझ पैदा हुई है। मसलन, भारत में स्तन या गर्भाशय के 30 फीसदी कैंसर आनुवंशिक पाए गए हैं। स्ट्रैंड लाइफ साइंसेज के डॉ. विजय चंद्रू कहते हैं, “यह पश्चिम की तुलना में तीन गुना अधिक है।”

सामान्य बातों के अलावा भारतीयों में कोशिका परिवर्तन के रुझानों से विशिष्ट भारतीय जातीयता और जनसंख्या संरचना की संस्‍थागत जानकारी पैदा हो रही है, जिससे इलाज के मानक तय करने में मदद मिलेगी। बकौल डॉ. चंद्रू, भारतीयों में अधिकांश स्तन कैंसर बीआरसीए1 जीन की गड़बड़ियों की प्रचुरता के कारण होता है जबकि पश्चिम में यह बीआरसीए1 और 2 दोनों की वजह से होता है।

लेकिन आनुवंशिक वजहें भी बेतरतीब ढंग से ही काम नहीं करतीं कुछ खास मूल के लोगों में संभावनाओं की दर ऊंची होती है। अब ऐसा लगता है कि कोंकणी, गुजराती और मराठी औरतों में खतरा अधिक होता है। इस तरह डॉक्टरों के लिए यह तय करना आसान होता है कि कहां की औरतों को रेडियोथेरेपी की दरकार नहीं है। डॉ. चंद्रू कहते हैं, “बीआरसीए जीन का टेस्ट पहले भी होता था लेकिन समूचे जीन को जानना बड़ा महंगा होता था, इसलिए पश्चिमी औरतों में पाए जाने वाले मार्करों को ही तलाशा जाता था। लोग सोचते थे कि यही भारतीय ‌स्त्रियों के मामले में भी सही होगा। इस तरह ज्यादातर मामले बिगड़ जाते थे।”

दूसरी अहम प्रगति इम्यूनोथेरेपी के मामले में हुई है। एक मायने में यह रोगों से बचाव की जिम्मेदार हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को कैंसर से लड़ने के लिए सक्षम बनाना है। हमारी टी-कोशिकाएं मोर्चे पर सिपाही की तरह विभिन्न वायरस और संक्रमणों से हमारी रक्षा करती हैं। लेकिन कैंसर कोशिकाएं एक ऐसे प्रोटीन का उत्पादन करती हैं, जो टी-कोशिकाओं को कैंसर की कोशिकाओं को दुश्मन के रूप में पहचानने से रोकती हैं। इम्यूनोथेरेपी की दवाइयां टी-कोशिकाओं को कैंसर कोशिकाओं से भी लड़ने के योग्य बनाती हैं और कुछ मामलों में ये कैंसर का सफाया तक कर देती हैं।

फिर भी अनुभवी आंकोलॉजिस्ट सतर्कता बरतने की सलाह देते हैं। कई नई खोजों के भी कुछ साल बाद दुष्प्रभाव दिखने लगते हैं। मैक्स हॉस्पिटल के कैंसर केअर के चेयरमैन डॉ. हरित चतुर्वेदी कहते हैं, “मैंने इम्यूनोथेरेपी को तीन मरीजों पर आजमाया। दो में यह कारगर रहा।” वे इन्हें जादू की पुड़िया जैसी मानने से सतर्क करते हैं। वे कहते हैं, “मेरी अपनी राय है कि हमें इन नई बातों के प्रति दिमाग खुला रखना चाहिए लेकिन भारत में 95 प्रतिशत कैंसर का इलाज पारंपरिक तरीके से ही होता है।” ऐसा क्यों? एक, शुरुआती चरण के अलावा जीन टेस्ट में सिर्फ 2-3 प्रतिशत फायदा होता है। इम्यूनोथेरेपी गले और सिर के कैंसर में काम नहीं करती। डॉ. चतुर्वेदी कहते हैं, “अगर इम्यूनोथेरेपी काम कर गई तो मरीज को जीवन भर लेनी पड़ेगी और एक महीने में 1-1.5 लाख रुपये का खर्च आएगा।”

कैंसर से बचाव की तकनीकी प्रगति का मतलब है जेनेटिक टेस्ट। ये टेस्ट अब कुछ किफायती होने लगे हैं और 25,000 रुपये में बुनियादी परीक्षण कराया जा सकता है। धितिओनॉमिक्स टेक्नोलॉजीज, मैप माइ जीन्स और बेबीशिल्ड जैसे फर्म इसकी विभिन्न पेशकश करते हैं। हालांकि इस दिशा में पहला कदम जेनेटिक काउंसलर की सलाह ही होती है।

लब्बोलुआब यह कि भारत में चिकित्सा के दायरे लगातार बढ़ रहे हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने जेनेटिक्स को समझने की दिशा में पहला कदम 1997 में इंटरनेशनल ह्यूमन जिनोम प्रोजेक्ट के तहत उठाया। उस प्रोजेक्ट की अगुआई वैज्ञानिक और औद्योगिक शोध परिषद के पूर्व निदेशक तथा इंस्टीट्यूट ऑफ जिनोमिक ऐंड इंटीग्रेटिव बॉयोलॉजी (आइजीआइबी) के संस्‍थापक डॉ. समीर ब्रह्मचारी ने की थी।

उनका कहना है कि इसका मकसद "देश में लोगों की जीन मैपिंग से जुटी जानकारियों का इस्तेमाल भारत में आनुवंशिक गड़बड़ियों के कारण होने वाली बीमारियों को पहचानने और चिकित्सा" में करना था। 2007 में इंडियन जिनोम कंसोर्टियम से वैज्ञानिकों को भौगोलिक और जनसंख्या से संबंधित जीन्स की विविधता के अध्ययन में मदद मिली। डॉ. ब्रह्मचारी ने आउटलुक को बताया, ‘‘विचार ऐसे बुनियादी डाटा का संकलन था जो हर जेनेटिक वैज्ञानिक के काम आए। आनुवंशिक बीमारियां जीन्स संरचना में परिवर्तन के कारण होती हैं लेकिन किसी एक परिवर्तन से कोई बीमारी नहीं होती, अनेक तरह के परिवर्तनों के योग से ऐसा होता है। हम परिवर्तनों के इसी योग को रिकॉर्ड करने की कोशिश कर रहे थे।"

हेल्‍थी के क्लीनिकल एडवाइजरी बोर्ड के मुखिया डॉ. रामनेदा श्रीकांतैया नाडिग के मुताबिक, रोग की संभावना का पता लग जाने से उसे दूर करने में काफी मदद मिलती है। वे कहते हैं, "आपके परिवार में किसी बीमारी का पुराना इतिहास होने से ही यह तय नहीं हो जाता कि बीमारी आपको भी होगी। जेनेटिक मैपिंग से यह अंदाजा लगता है कि आपमें उसके होने की संभावना है या नहीं। इससे आपको बीमारी से जल्दी से जल्दी लड़ने में मदद मिलती है।"

लेकिन सबसे अधिक लाभ इस बीमारी से लड़ रहे मरीजों को है, जो अब जान सकते हैं कि कौन-सी दवा कारगर होगी। आइजीबीआइ और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्‍थान (एम्स), नई दिल्ली में गो मेड प्रोजेक्ट चल रहा है जिससे डॉक्टर मरीजों के बेहतर इलाज के लिए मरीज की आम और उसकी पारिवारिक जानकारियों का इस्तेमाल कर सकते हैं। इस प्रोजेक्ट के मुखिया डॉ. मुहम्मद फारूक कहते हैं, "हमारी वेबसाइट है जिससे डॉक्टर जानकारी ले भी सकते हैं और उसमें जोड़ भी सकते हैं।" गो मेड प्रोजेक्ट कैंसर सहित कई बीमारियों पर काम कर रहा है।

 

भारत में कैंसर का मुकम्मल इलाज अब ज्यादा करीब

डॉक्टर अब कैंसर को अंग की नहीं बल्कि जीन की बीमारी के रूप में देखते हैं। जेनेटिक्स अनुसंधानों में प्रगति से अब सबके लिए एक ही इलाज का नुस्‍खे वाला नजरिया बदल गया

स्तन कैंसर

-जेनेटिक टेस्ट अब पूरी तरह से यह बता देते हैं कि किस तरह के स्तन कैंसर में एस्ट्रोजन को कम करने वाली दवाओं से फायदा होगा और किसमें नहीं।

-जेनेटिक मार्कर के अनुसार यह तय होगा कि स्तन का कितना हिस्सा हटाना है। इसका अर्थ यह हुआ कि अब पूरा स्तन हटाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

-भारतीय जेनेटिक मार्कर से यह साफ हुआ है कि स्तन या गले के कैंसर का 30 प्रतिशत मामला आनुवंशिक है। यह दर पश्चिम के मुकाबले तीन गुनी ज्यादा है।

 -भारत में स्तन कैंसर के अधिकांश मामले बीआरसीए1 जीन में गड़बड़ी के कारण होते हैं, जबकि पश्चिम में बीआरसीए1 और बीआरसीए2 जीन समान रूप से इसके कारण होते हैं। (ये जीन हर शरीर में मौजूद रहते हैं।)

 -यह परिणाम अधिक लक्षित उपचार के दौरान आए हैं।

 -प्रारंभिक परिणाम यह भी बताते हैं कि कुछ नस्लों, जिनमें कोंकणी, गुजराती और मराठी महिलाएं शामिल हैं (केवल वंशानुगत ही नहीं), में इसके ज्यादा फैलने की आशंका रहती है।

 -अब यह बताना संभव हो गया है कि ऑपरेशन के बाद किस महिला को रेडियोथेरेपी की जरूरत नहीं पड़ेगी।

माइलॉयड ल्यूकेमियाः ग्लीवाक बना प्राणरक्षक

-2001 में इमैटिनिब मेसिलेट (ग्लीवाक) की खोज माइलॉयड ल्यूकेमिया के इलाज के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुई।

 -यह दवा इस प्रकार के ल्यूकेमिया के कारण बनने वाले प्रोटीन बीसीआर-एबीएल को दबा देती है।

 -क्रोमोजोन 9 और 22 के अस्वाभाविक मिश्रण से बीसीआर-एबीएल उत्पन्न होता है।

-इस दवा की खोज से पूर्व इलाज के बाद तीन में से मात्र एक रोगी ही पांच साल जिंदा रह पाता था। ग्लीवाक ने रोगियों के बचने की दर को बढ़ा कर 90 फीसदी कर दिया।

 -बीसीआर-एबीएल की पहचान करने वाले जेनेटिक टेस्ट भारत में भी उपलब्ध हैं।

फेफड़े का कैंसर

-क्रियोटिनिव (फाइजर की खोज, जो एक्सैलकोरी के नाम से बेचा जाता है) एएलके जीन के कारण होने वाले फेफड़े के कैंसर को कम कर देता है।

 -भारत में भी एएलके की पहचान करने वाला टेस्ट उपलब्ध है।

मेलेनोमा

-रोस का वेमुराफेनिब (जेलबोरैफ के नाम से बेचा जाता है ) बीआरएफ जीन से उत्पन्न प्रोटीन पर काफी कारगर ढंग से प्रभावी होता है।

 -बीआरएफ टेस्ट भारत में भी उपलब्ध है।

लिक्विड बॉयोप्सी

-इसमें खून का नमूना लिया जाता है इसलिए इसे लिक्विड बॉयोप्सी कहा जाता है।

-इससे स्तन, कोलोरेक्टल और मूत्राशय के कैंसर के इलाज में सहायता मिलती है।

आनुवंशिक टेस्ट क्यों

-अभी सामान्य जांच के जो तरीके हैं वे आनुवंशिक कैंसर के खतरे को पूरी तरह से पकड़ने में सक्षम नहीं है।

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