“सांप्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति की खोल ओढ़कर आती है। हिंदू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को। दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं, यह भूल गए हैं कि अब न कहीं हिंदू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति और न कोई अन्य संस्कृति। संगीत और चित्रकला भी संस्कृति का एक अंग है, लेकिन यहां भी हम कोई सांस्कृतिक भेद नहीं पाते। वही राग-रागनियां दोनों गाते हैं और मुगलकाल की चित्रकला से भी हम परिचित हैं। नाट्य कला पहले मुसलमानों में न रही हो, लेकिन आज इस सीगे में भी हम मुसलमानों को उसी तरह पाते हैं जैसे हिंदुओं को।
फिर हमारी समझ में नहीं आता कि वह कौन सी संस्कृति है, जिसकी रक्षा के लिए सांप्रदायिकता इतना जोर बांध रही है। वास्तव में संस्कृति की पुकार केवल ढोंग है, निरा पाखंड। इन संस्थाओं को जनता के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है जिसे राष्ट्र के सामने रख सकें।”
-प्रेमचंद
ऐसी दो-टूक बातें करने वाले लेखक को भला कोई राजसत्ता कैसे स्वीकार कर सकती है, विशेषकर वह राजसत्ता जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद यानी हिंदुत्व का झंडा बुलंद करके ही अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल हो पाई हो और जिसका प्रमुख नारा ही ‘भारतीय संस्कृति’ बचाने का हो। खबर है कि आगरा-स्थित केंद्रीय हिंदी संस्थान ने प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास गोदान को अपने पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया है। संस्थान के निदेशक नंदकिशोर पांडेय का कहना है कि गोदान विदेशी छात्रों को आसानी से समझ में नहीं आता और वह किसी विश्वविद्यालय में स्नातक-स्तर के पाठ्यक्रम में भी नहीं है। गोदान को हटाकर राम के जीवन पर आधारित मैथिलीशरण गुप्त की काव्यकृति पंचवटी को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। जाहिर है कि यह सत्तारूढ़ पार्टी के लिए अधिक रुचिकर होगा। यहां यह याद दिलाना अनुचित न होगा कि हाल ही में पूर्व पत्रकार और प्रतिबद्ध रंगकर्मी अनिल शुक्ल के निर्देशन में सक्रिय सांस्कृतिक समूह रंगलीला की पहल पर कई साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों ने मिलकर आगरा में प्रेमचंद पर केंद्रित एक बत्तीस-दिवसीय समारोह आयोजित किया था जिसमें प्रयाग शुक्ल, वीरेंद्र यादव और असगर वजाहत जैसे अनेक जाने-माने साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों ने भाग लिया था। इस समारोह के दौरान हुई विचार-गोष्ठियों में कई वक्ताओं ने यह चिंता भी व्यक्त की थी कि प्रेमचंद को उपेक्षित किया जा रहा है। इसके ठीक बाद संस्थान का यह निर्णय आना इस बात का प्रमाण है कि प्रेमचंद किस तरह न्यस्त स्वार्थों के लिए बेहद असुविधाजनक हैं। अपनी सफाई में केंद्रीय हिंदी संस्थान कह रहा है कि उसने गोदान की जगह प्रेमचंद की चार कहानियां पाठ्यक्रम में रखी हैं, लेकिन जानकार लोग बताते हैं कि वे पहले से ही थीं। यूं भी गोदान का कोई विकल्प हो सकता है, यह मानना कठिन है। दूसरे, यदि विदेशी छात्र इन कहानियों की भाषा समझ सकते हैं तो फिर उन्हें गोदान की भाषा समझने में क्या कठिनाई है? क्या गोदान में प्रेमचंद की भाषा बदल गई है?
जब भी भारतीय जनता पार्टी सत्ता में होती है, प्रेमचंद पर उसकी कृपा बरसनी शुरू हो जाती है। लोग भूले नहीं हैं कि 2003 में जब केंद्र में प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार थी, तब केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने प्रेमचंद के स्त्री-केंद्रित उपन्यास निर्मला को पाठ्यक्रम से हटाकर उसकी जगह भाजपा नेता मृदुला सिन्हा के उपन्यास जो मेंहदी का रंग को शामिल किया था। सांप्रदायिक तत्वों का प्रेमचंद पर हमला कोई नई बात नहीं है। प्रेमचंद के जीवन काल में भी उन पर ऐसे हमले होते रहते थे और मुस्लिम सांप्रदायिक तत्व भी इस काम में पीछे नहीं रहते थे।
अलीगढ़ से निकलने वाली पत्रिका सुहेल के नेतृत्व में प्रेमचंद पर अनेक पत्रिकाओं में इस बात के लिए हमले किए गए थे कि अपने उपन्यास कर्मभूमि में उन्होंने जानबूझकर सकीना का प्रेम अमरकांत नामक हिंदू युवक से कराया है और रंगभूमि में रिश्वत लेने वाले दारोगा को मुसलमान दिखाया है। और यह तब था जब प्रेमचंद लगातार अपने समय की हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिकता की तीखी आलोचना करते रहते थे। इसी तरह ठाकुर का कुआं और सद्गति जैसी कहानियों के लेखक प्रेमचंद पर पिछले कुछ समय से दलित आलोचकों के प्रहार बढ़ गए हैं। अपनी कहानियों और उपन्यासों में सामंती शोषण के यथार्थपरक चित्र प्रस्तुत करने और हमेशा उसका विरोध करने वाले प्रेमचंद को दलित आलोचक धर्मवीर, जिनका कुछ समय पहले ही निधन हुआ है, ‘सामंत का मुंशी’ करार देते थे। कफन कहानी में उन्होंने सामंती आधार पर टिकी पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा हर तरफ से लुटे-पिटे दलित की बची-खुची मानवीयता को लूटने जैसा मर्मस्पर्शी चित्रण किया है, वह उसे विश्व की कालजयी कहानियों की कतार में ला खड़ा करता है। लेकिन इसी कहानी के आधार पर दलित चिंतक उनकी लानत-मलामत करते हैं, कुछ उसी अंदाज में जिसमें मुस्लिम सांप्रदायिक तत्वों ने रिश्वतखोर दारोगा को मुसलमान दिखाए जाने के लिए की थी। आज जब किसानों की आत्महत्या रोजमर्रा की बात हो गई है, पूंजीपतियों का हित-साधन करने वाली राजसत्ता उस लेखक को कैसे सहन कर सकती है जिसने लिखा था: “यह कैसे आशा की जा सकती है कि पूंजीपति लोग किसानों के दुख व दुर्दशा को देखकर अपनी मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति को छोड़ दें। यह तो कुत्ते द्वारा गोश्त की हिफाजत करने की आशा करने जैसा है।”
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)