अभिव्यक्ति कई बार अपनी स्वाभाविकता और तात्कालिकता के बावजूद आसान नहीं होती, जिस प्रक्रिया से वह अकसर संभव हो पाती है वह जटिल होती है। उसकी स्वतंत्रता, कुल मर्यादा के साथ, भारतीय संविधान द्वारा दिया गया एक मौलिक अधिकार है। पर इस अधिकार की वास्तविक स्थिति और पूरी तरह अमल सच्चा उतना नहीं, जितना सपना है। सच्चाई आज यह है कि इस अधिकार का एहतराम करने और उसे बढ़ावा देने के लिए न राज तैयार है, न समाज। दोनों उसे पोसने-बढ़ाने में नहीं, उसे रोकने-थामने और दबाने में एकजुट हो जाते हैं।
एक विडंबना तो यह है कि हमारी तथाकथित लोकतांत्रिक राजनीति-जो राज पर अधिक एकाग्र और नीति पर कम है-अपने लिए तो अबाध स्वतंत्रता चाहती-बरतती है पर वही स्वतंत्रता साहित्य, कला, विचार, शिक्षा आदि को देने के लिए तैयार नहीं है। कुछ ऐसा माहौल लगातार बनता रहा है कि राजनीति अभिव्यक्ति की और पूरे समाज की केंद्रीय विधा है और अन्य अनुशासन हाशिये के हैं। दूसरी विडंबना यह है कि कई मायनों में धर्म, राजनीति, नैतिकता, मीडिया, विश्वविद्यालय और अन्य संस्थाएं एक स्तर पर अभिव्यक्ति की ही विधाएं हैं। पर वे ही जब-तब और इन दिनों अकसर ही अभिव्यक्ति को बाधित करने की कोशिश में लगी रहती हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले इन दिनों बढ़ गए हैं। प्राय: हर दिन हम ऐसी खबरें पढ़ते हैं कि कहीं किसी समूह ने, राज्य की किसी एजेंसी ने, मीडिया के किसी हिस्से ने, किसी धार्मिक या सांप्रदायिक नेता ने स्वयं इसी स्वतंत्रता का उपयोग और कई बार उपभोग करते हुए दूसरों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला किया, उसे बाधित या रोकने-थामने की कोशिश या मांग की या उसे लेकर कोई झगड़ा-फसाद या सार्वजनिक हंगामा किया। ऐसे मामलों में राज्य अपने को उनका साथ देने या उन पर चुप रहकर उन्हें समर्थन देने या हमलावरों पर कोई कार्रवाई न करने या उसे बहुत मंदगति और मंदमति से करता है। समाज भी अकसर तमाशबीन बनकर दूर से देखता रहता था और स्वतंत्रता की रक्षा करने आगे नहीं आता। बहुत हुआ तो स्थानीय बुद्धिजीवी किसी चैनल पर एक बाइट देकर स्थानीय रूप से मशहूर हो जाने के उद्देश्य से कुछ कह देते हैं। कई बार ऐसा लगने लगता है कि जैसे आम तौर पर नागरिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना जरूरी नहीं मानते हैं। यह सोचना भयावह है कि वह स्वतंत्रता बचेगी कैसे जिसे नागरिक ही अपने लिए जरूरी और रक्षणीय न मानते हों।
इस स्वतंत्रता के लगातार सिकुड़ते जाने का एक पहलू है। इस समय सारा सामाजिक संवाद फिर वह संसद में हो या मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक चैनलों पर या जनसभाओं में, इस कदर झगड़ालू, आक्रामक, गाली-गलौज से भरपूर होता जा रहा है कि उसमें किसी सभ्य और सम्यक् संवाद हो पाने की संभावना लगातार घट रही है। राष्ट्रवाद, भारत माता की जयकार आदि अपने मुख्य आशय में दूसरों को पीटने के औजार बन रहे हैं।
सौभाग्य की बात यह है कि ऐसे लोग, लेखक, बुद्धिजीवी, कलाकार, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, सार्वजनिक टिप्पणीकार आदि हैं जो अकेले पड़ जाने या गलत समझे जाने या अपने रुख के लिए दंडित किए जाने का जोखिम उठाकर इस स्वतंत्रता का उपयोग और उसकी रक्षा कर रहे हैं। कई बार यह सोचकर दहशत होती है कि उनकी संख्या शायद घट रही है। ‘कौन झंझट में पड़े’ की मानसिकता पहले से ही व्यापक है। दुर्भाग्य की बात यह है कि धीरे-धीरे एक तरह की सेल्फ सेंसरशिप विकसित होने और व्याप्त हो जाने का खतरा है। लेखक या कलाकार कुछ कहने से पहले यह सोचना शुरू कर देंगे कि कहीं इससे कोई हंगामा तो नहीं हो जाएगा और इस आशंका से अपना सच स्थगित करने लगेंगे। हमारे जाने बहुत लोगों को लगता है कि भारत की राजनीति और सत्ता कश्मीर में जो कर रही है वह मानवीय गरिमा, न्याय आदि के विरुद्ध है और कश्मीरियों का गुस्सा जायज है पर वे अपना मुंह नहीं खोल रहे हैं कि उनको राष्ट्रद्रोही या पाकिस्तानपरस्त आदि कहकर लांछित किया जाएगा।
राज्य और व्यापक सवर्ण समाज अनेक अंचलों में किसानों, आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों, स्त्रियों आदि के साथ जो लगातार अत्याचार कर रहे हैं और एक तरह का हत्यारा माहौल पूरे देश में फैलता जा रहा है उसके बारे में चुप रहना भारतीय संविधान, भारतीय संस्कृति और परंपरा, भारतीय लोकतंत्र और भारतीय जन सभी के साथ, एक साथ, विश्वासघात करने के बराबर है। हमारे एक बड़े कवि मुक्तिबोध ने साठ बरसों पहले अंत:करण का आयतन संक्षिप्त होने की बात की थी। उनकी जन्मशती शुरू होने के अवसर पर लगता है कि भारतीय अंत:करण सिकुड़-दब कर रोज ब रोज बड़ी तेजी से छोटा होता जा रहा है। उसके पूरी तरह गायब हो जाने या अप्रासंगिक हो जाने का खतरा सामने मंडरा रहा है। क्या हम उसका सामना करने के लिए तैयार हैं? क्या हम अकेले इस समय में अपने सच पर और उसे निर्भीकता से कहने पर जिद कर अड़े रह सकते हैं? न हमें स्वतंत्रता उपहार में मिली, न आसमान से टपकी। उसके लिए हमारे पुरखों ने संघर्ष किया। उस संघर्ष को याद कर अभिव्यक्ति की अपनी कठिन पर जरूरी स्वतंत्रता को बचाने का संघर्ष करें तभी वह बच पाएगी और हमारे भारतीय और लोकतांत्रिक होना साबित हो पाएगा।
(लेखक प्रसिद्ध कवि हैं।)