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स्कूलों की कैसी है भूमिका

आखिर क्या है जरूरी? बी-स्कूलों, दाखिला लेने वालों और स्नातकों के लिए एक जरूरी दिशानिर्देश
दाखिले से पहले स्कूलों के बारे में जानना भी है जरूरी

बिजनेस स्कूलों का व्यस्ततम दौर शुरू होने वाला है। प्लेसमेंट विभाग नए उम्मीदवारों के चयन की तैयारी शुरू कर देते हैं और स्कूल नए सत्र के लिए छात्रों को आकर्षित करने की खातिर दाखिला की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं। सो, इस साल बिजनेस स्कूलों कीआउटलुक-दृ‌ष्टि रैंकिंग संयुक्त वस्तुनिष्ठ डाटा पर आधारित है। इसे चुनिंदा कॉलेजों का दौरा करके प्रमाणित किया गया है और 3,000 से ज्यादा छात्रों, प्रोफेसरों और नियोक्ताओं के बीच किए गए अवधारणात्मक सर्वे से भी पुष्ट किया गया है। इस साल, दृष्टि ने संस्‍थानों के बारे में सोशल मीडिया पर किए गए पोस्ट से भी रैंकिंग को पुष्ट किया है।

आइआइएम-ए और आइआइएम-सी रैंकिंग में आगे रहे और पिछले वर्षों की तरह अपना रुतबा बरकरार रखा। नए इंफ्रास्ट्रक्चर से नर्सी मोंजी ने बेहतर स्कोर किया। एसपी जैन ने पूर्व छात्रों को गतिशील प्रोजेक्ट प्रदान किए और छात्रों को सलाह देने के लिए बुलाया, उद्योगों से लिंक मजबूत किए, रोजगार के अवसर और प्रासंगिकता बढ़ाई। ऐसी कई पहल दिखाई दे रही हैं। मसलन, आइआइएम-सी ने आइएसआइ और खड़गपुर आइआइटी के साथ मिलकर बड़े डाटा और एनालिटिक्स पर आधारित नया कोर्स लांच किया।

वह क्या है जो किसी संस्थान को ऊंची रैंकिंग दिलाता है? नियोक्ता, शिक्षक और छात्र किसी टॉप स्कूल से अलग-अलग आकांक्षाएं रखते हैं।

नियोक्ता ऐसे लोगों को नौकरी देना चाहते हैं जो स्वतंत्र सोच के, व्यावहारिक और टीम के साथ काम करने में सक्षम हों और संस्थान की संस्कृति के अनुकूल हों। स्कूलों से उनकी आकांक्षा होती है कि वे अच्छे छात्रों का चयन करें जिनके पास कुछ अनुभव हो और उन्हें संपूर्ण सैद्धांतिक फ्रेमवर्क की जानकारी हो, जो उद्योग में काम आने वाली जरूरतों को पूरा करने में सहायक हो। स्थाई फैकल्टी चाहती है कि संस्थान उन्हें रिसर्च के अवसर और परामर्श का मौका मुहैया कराए। छात्र अच्छी फैकल्टी, अच्छा विषय, उद्योगों तक पहुंच और वरिष्ठ पेशेवर के अलावा पढ़ाई खत्म होने के बाद अच्छा प्लेसमेंट और रिटर्न ऑन इंवेस्टमेंट (आरओआइ) चाहते हैं।

ऐसे में, एक बड़े बिजनेस स्कूल के लिए ये बातें जरूर होनी चाहिएः 1-कोर्स का अच्छा स्ट्रक्चर, 2-पढ़ाई में थ्योरी और प्रैक्टिकल प्रोजेक्ट का बेहतर तालमेल, 3-रिसर्च पर फोकस, 4-फैकल्टी के लिए परामर्श के मौके, उद्योग और विकासशील मुद्दों के साथ लगातार संपर्क के अवसर उपलब्ध हों, 5-उद्योगों के साथ मजबूत पारस्परिक संबंध जो चालू परियोजनाओं में बदलें, 6-माहौल से सामंजस्य स्थापित करने वाले कोर्स, 7-उद्योगों के मजबूत दिग्गजों को आकर्षित करे, जो छात्रों को दृष्टिकोण दे सके, 8-अच्छे छात्रों का चयन करे और उन्हें कठिन परिश्रम के लिए प्रेरित करे, 9-अच्छा प्लेसमेंट हो जो छात्रों की आरओआइ की आकांक्षा पूरा करता हो, 10-पूर्व छात्रों का मजबूत नेटवर्क हो।

दाखिले के इच्छुक छात्रों को यह नोट करना चाहिए कि अर्थव्यवस्था धीमी हो गई है और बी-स्कूल से निकलने वालों के लिए बाजार की हालत परेशानी देने वाली हो सकती है। अगर आप दाखिला लेने की तैयारी कर रहे हैं तो किसी बी-स्कूल में आंख मूंद कर न जाएं। अच्छा स्कूल देखकर ही दाखिला लें। यह ज्यादा अच्छा होगा कि आप कुछ साल काम कर लें तब किसी बी-स्कूल में प्रवेश लें। ऐसा करना आपको नौकरी के लिए और अधिक योग्य बनाएगा।

दाखिला चाहने वालों को किस पर फोकस करना चाहिए? नए आइआइएम (हमने अभी इन्हें रैंक नहीं दिया है) के आने के बाद से बिजनेस स्कूलों के चयन का विकल्प बदल गया है। बहुत से लोग पूछते हैं कि ये ठीक-ठाक हैं भी कि नहीं। इसी तरह के सवाल शुरुआत में आइआइएम कोझिकोड और इंदौर को लेकर भी पूछे जाते थे, जो अब टॉप के संस्थान हैं। इतना ही नहीं, रांची (इसने रैंकिंग में हिस्सा नहीं लिया) और शिलांग तेजी से सुधार कर रहे हैं। इसलिए, नए आइआइएम जड़ जमाने में कुछ साल का समय लेंगे लेकिन वे आगे बढ़ेंगे। अभी तो स्थापित टॉप स्कूलों को कुछ नए आइआइएम की तुलना में बेहतर प्लेसमेंट की पेशकश करनी चाहिए।

इस प्लेसमेंट सत्र से क्या उम्मीद की जानी चाहिए? स्टार्ट अप तो शायद ही दिखें पर पारंपरिक नियोक्ता होंगे। यह सत्र पिछले साल की तुलना में कठिन हो सकता है क्योंकि बहुत कम नियोक्ताओं को ही ‘अच्छे दिन’ का भ्रम है। अधिकांश संस्थाओं के लिए 2016-17 (नोटबंदी) और 2017-18 (जीएसटी) काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। इस कारण ये कम लोगों को नौकरी देंगे। ऐसे में, अगर आप बी-स्कूल से स्नातक कर रहे हैं तो तनावपूर्ण प्लेसमेंट सत्र की उम्मीद करें।

आने वाले वर्षों में हालात अच्छे होने के आसार हैं क्योंकि व्यवस्था जीएसटी की अभ्यस्त हो जाएगी और अर्थव्यवस्था सरकारी खर्च में वृद्धि से बेहतर होगी। ऐसा कब तक होगा यह बहस का मुद्दा हो सकता है, इसमें एक, दो या तीन साल भी लग सकते हैं।

(लेखक दृष्टि स्ट्रैटेजिक रिसर्च सर्विसेज के एमडी हैं)

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