बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में बीते 23 सितंबर की रात जो हुआ, उसने एक साथ कई परतों को उघाड़ कर रख दिया। परिसर के भीतर लड़कियों-महिलाओं की सुरक्षा के मसले पर आज देश भर में बहस छिड़ चुकी है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग ने कुलपति को नोटिस जारी कर दिया है। हिंसा की न्यायिक जांच का आदेश हो चुका है। दर्जन भर याचिकाएं और बयान राष्ट्रपति के नाम भेजे जा चुके हैं। इसका असर इतना जरूर हुआ कि बीएचयू के इतिहास में पहली बार एक महिला को चीफ प्रॉक्टर नियुक्त कर दिया गया है। विश्वविद्यालय खुला तो दो महीने बाद रिटायर होने वाले कुलपति गिरीश चंद्र त्रिपाठी लंबी छुट्टी पर विदा हो गए। 23 सितंबर की हिंसा की घटना के बाद पूर्व चीफ प्रॉक्टर ओ.एन. सिंह को इस्तीफा देना पड़ा था और प्रॉक्टोरियल बोर्ड के सुरक्षाकर्मियों के तन से खाकी वर्दी को एसएसपी के एक आदेश से 48 घंटे के भीतर उतरवा लिया गया था। 27 सितंबर को इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल सांइस की प्रो. रोयाना सिंह नई चीफ प्रॉक्टर नियुक्त की गईं।
छात्राओं पर पुलिसिया कार्रवाई के बाद देश भर में बीएचयू की भद्द पिटी, लेकिन कुलपति प्रो. गिरीश चंद्र त्रिपाठी के अड़ियल रवैए में कोई बदलाव नहीं आया। 23 और 24 सितंबर की दरम्यानी रात जब बीएचयू जल रहा था, उस वक्त भी वहां धड़ल्ले से साक्षात्कार चल रहे थे। इधर दिल्ली में वाराणसी के सांसद और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से उनके आवास पर ज्ञापन लेकर 27 सितंबर की शाम मिलने गए बीएचयू के छात्रों को कारण बताए बगैर चाणक्यपुरी थाने में गिरफ्तार कर लिया गया। सांसद से लेकर कुलपति तक कहीं कोई राहत नहीं मिलने की सूरत में छात्र नए सिरे से आंदोलन को तैयार होते दिख रहे हैं।
पहले दिन से बीएचयू छात्र आंदोलन का हिस्सा रहीं विधि संकाय की छात्रा सुनीता (नाम बदला हुआ) ताजा घटनाक्रम पर कहती हैं, ‘‘यहां केवल मोहरे बदलते रहते हैं। महिला चीफ प्रॉक्टर के आने से कुछ ठीक नहीं होगा। हमारी मांग कुलपति को हटाने की नहीं थी बल्कि परिसर में सुरक्षा इंतजाम दुरुस्त करने की थी। परिसर खुलने पर फिर यह मुद्दा उठेगा।’’
बीएचयू की छात्राओं में बहुत आक्रोश है। उनके गुस्से का पहला निशाना कुलपति त्रिपाठी रहे जिनसे उनकी शिकायत थी कि वे धरने के दो दिन उनसे मिलने क्यों नहीं आए और लाठी क्यों चलवा दी। इसके अलावा छात्राओं का आरोप है कि 24 घंटे तक शांतिपूर्ण तरीके से चले आंदोलन को 23 की शाम राजनैतिक तत्वों ने ‘हाइजैक’ कर लिया। सुनीता कहती हैं, ‘‘सबसे पहली कोशिश एबीवीपी की एक नेता ने की जिसे हम लोगों ने भगा दिया, लेकिन अगले दिन ज्वाइंट ऐक्शन कमेटी के माध्यम से एनएसयूआइ के लोग इसमें घुस आए। लड़कियों का सामूहिक संघर्ष अराजनैतिक था लेकिन बाद में तमाम ताकतों ने मिलकर इसे राजनैतिक रंग दे डाला।’’
अगर कुलपति छात्राओं से वक्त रहते मिल लेते तो शायद इतना बवाल न होता। छात्राएं भी इस बात से सहमत हैं, लेकिन राष्ट्रीय महिला आयोग ने 27 सितंबर को बीएचयू हिंसा पर जो प्रेस नोट जारी किया है, उसकी पहली पंक्ति कुलपति त्रिपाठी के एक विवादास्पद बयान का हवाला देती है, ‘‘अगर हम हर लड़की की हर मांग को सुनने लगे तो विश्वविद्यालय को नहीं चला पाएंगे।’’ यह बयान 26 सितंबर को कई माध्यमों में प्रकाशित हुआ था। लड़कियां इसी बयान पर गुस्से में हैं, जिसकी गूंज निचले स्तर तक के अधिकारियों के बयानों में सुनी जा सकती है।
विश्वविद्यालय के जन संपर्क अधिकारी राजेश सिंह 21 सितंबर की घटना के बारे में फोन पर बताते हैं, ‘‘घटना थी क्या, वो किसी ने देखा थोड़ी है। वो तो लड़की से कहलवा रहे हैं लोग तो हम लोग समझ रहे हैं कि भाई हो सकता है कि छेड़ दिया हो। लड़की भारत कला भवन के पास से जा रही थी। छात्र संघ चौराहे के पास बाइक से कुछ लोग आए और उसको खोद कर भाग गए। पूरी घटना इतने है...।’’
‘‘पूरी घटना इतने है...’’ में जो उपेक्षा छुपी हुई है, यही बीएचयू में हुए ताजा कांड की जड़ है। बीएचयू के भीतर स्थित प्रौद्योगिकी संस्थान की एक छात्रा कंगना (नाम बदला हुआ) कहती हैं, ‘‘कुलपति की जो जड़ें हैं, इससे ज्यादा हम उम्मीद भी नहीं कर सकते। आरएसएस का एक आदमी और कैसे सोचेगा। उसके मातहत भी सारे लोग ऐसे ही सोचते हैं। इसके बावजूद उन्हें हटाने की हमारी मांग थी ही नहीं। हम तो बस सुरक्षा चाहते थे, जीएसकैश का गठन चाहते थे, सीसीटीवी कैमरे चाहते थे। पूरे मुद्दे को ही भटका दिया गया।’’
कुलपति लगातार कह रहे कि लड़कियों को समझा-बुझा दिया गया था। कंगना कहती हैं कि दिक्कत यही है कि छात्राएं जब बंद दीवारों के भीतर कुलपति से बात करती हैं तो उन्हें ‘‘समझा-बुझा’’ दिया जाता है। वे कहती हैं, ‘‘इसीलिए हमने इस बार तय किया था बात चारदीवारी के भीतर नहीं होगी। खुले में मुद्दे को सामने लाया जाएगा ताकि कुलपति आएं और अपनी बात रखें।’’ आंदोलन में हिस्सा लेकर और पुलिस की मार खाकर घर लौट चुकी छात्राओं के ऊपर दोहरा दबाव रहा। उनके परिवार वाले सुरक्षा के मसले से तो इत्तेफाक रखते हैं, लेकिन ये नहीं चाहते कि उनकी बेटी का नाम सामने आए। राजनैतिक संगठनों से जुड़ी हुई छात्राओं को छोड़ दें तो कोई भी आम छात्रा नहीं चाहती कि उसके बयान में उसके नाम को उजागर किया जाए।
बीएचयू के आंदोलन की विशिष्टता ही यह थी कि इसमें किसी एक राजनैतिक संगठन के लोग नहीं शामिल थे, बल्कि धीरे-धीरे काफिला बढ़ता गया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से लेकर एनएसयूआइ और समाजवादी छात्र सभा से लेकर भगत सिंह छात्र मोर्चा तथा आइसा तक हर विचारधारा के छात्रों की इसमें नुमाइंदगी थी। इसलिए सबसे पहला आरोप जो कुलपति और उनका प्रशासन लगा रहा है कि लड़कियों के संघर्ष को ‘हाइजैक’ कर लिया गया, यह अपने आप में निराधार है। लड़कियों की ओर से जो ‘हाइजैक’ किए जाने का आरोप है, वह विश्वविद्यालय के भीतर मौजूद राजनैतिक बेचैनी और विरोधाभासों को दिखाता है, जहां पिछले बीस साल से छात्र संघ नदारद है।
छात्रसंघ की नामौजूदगी में बीएचयू में जाति और पुरुष वर्चस्व का रोग बहुत पुराना हो चुका है। यहां सकारात्मक राजनीति के लिए स्पेस बीते दो दशक से नहीं है। इलाहाबाद हाइकोर्ट के आदेश के बाद यहां छात्र संघ का चुनाव तीन साल पहले ही कराया जाना था, लेकिन अब तक नहीं हो सका है। एनएसयूआइ, एबीवीपी और समाजवादी छात्र सभा के कई प्रत्याशी लंबे समय से छात्रसंघ चुनाव की बाट जोह रहे हैं, तो परिसर के बाहर से भी पूर्व छात्र नेताओं द्वारा लगातार छात्रसंघ बहाल करने की कोशिशें की जाती रही हैं। 23 सितंबर की घटना की कुछ लोग इस दृष्टिकोण से भी व्याख्या कर रहे हैं।
छात्राओं से छेड़छाड़ और उनके ऊपर प्रशासनिक बंदिशों का मामला भी नया नहीं है। इससे पहले 24 जनवरी 2014 की एक घटना का जिक्र किया जाना जरूरी है जब हिंदी विभाग की तीन छात्राओं के ऊपर क्लास जाते वक्त बिड़ला छात्रावास के लड़कों की ओर से फब्तियां कसी गई थीं। विरोध करने पर इन लड़कियों को बिड़ला छात्रावास के बाहर कोई पचासेक लड़कों ने घेर लिया था। उस वक्त भी चीफ प्रॉक्टर के पास जब मामला ले जाया गया था, तो वहां से चुप रहने की हिदायत मिली थी। उस समय कुलपति डॉ. लालजी सिंह हुआ करते थे। छात्राएं जब उनसे मिलने गईं, तो वीसी लॉज के बाहर बैरिकेड लगा दिए गए। कोई 150 छात्राओं ने बैरिकेड तोड़ दिया था और उनके ऊपर लाठीचार्ज किया गया था। शुरुआत में कुलपति सिंह ने लड़कियों से बात करने से इनकार कर दिया लेकिन उनके अड़े रहने के बाद छात्राओं के प्रतिनिधियों से उन्होंने बात की। उस बैठक में छात्राओं ने अपने लिए 24 घंटे की समर्पित हेल्पलाइन सेवा, दोषियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई और परिसर में सुरक्षागार्डों की तैनाती की मांग की थी। गणतंत्र दिवस के अपने भाषण में कुलपति सिंह ने महिला सेल गठित करने का ऐलान किया था। 29 जनवरी 2014 को एक विज्ञप्ति जारी करके प्रशासन ने एक सदस्यीय महिला सेल और महिला हेल्पलाइन सेवा 8004922000 की स्थापना की।
आज की तारीख में न तो इस हेल्पलाइन का पता है, न ही किसी महिला सेल का कोई सुराग। सबसे ज्यादा शर्म की बात यह है कि कार्यस्थल पर औरतों के खिलाफ हिंसा के मामले में सुप्रीम कोर्ट के विशाखा दिशानिर्देश के अनुपालन के लिए भी अब तक यहां कोई प्रकोष्ठ नहीं बना है। सुनीता बताती हैं, ‘‘एक प्रकोष्ठ है भी, लेकिन उसमें पीडि़ता को ही दोषी ठहरा दिया जाता है। इसमें मौजूद महिलाओं की मानसिकता भी पीडि़ता को ही दोष देने वाली है। उसका कोई मतलब नहीं।’’ पिछले दिनों पत्रकारिता विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. शोभना नार्लीकर ने हिंदी विभाग के प्रोफेसर कुमार पंकज के खिलाफ यौन उत्पीड़न की शिकायत चीफ प्रॉक्टर और कुलपति से की थी। परिसर में ऐसी सुनवाइयों के लिए कोई प्रभावी महिला प्रकोष्ठ नहीं है, लिहाजा उन्हें पुलिस में एफआइआर करानी पड़ी।
कुलपति ने अब तक इस बात का जवाब नहीं दिया है कि आखिर परिसर में पुलिस को कार्रवाई करने की अनुमति किसने दी। छात्र-छात्राओं और प्रत्यक्षदर्शियों से बात करने पर जो तस्वीर सामने आती है, उसके मुताबिक 23 सितंबर की रात लड़कियां कुलपति से मिलने वीसी लॉज पर गई थीं, जहां सबसे पहले प्रॉक्टोरियल बोर्ड के सुरक्षाकर्मियों ने लड़कियों पर डंडे चलाए।
सुनीता बताती हैं, ‘‘हमें इस बात का अंदेशा था कि अगर गेट पर हमारी संख्या कम हुई तो पुलिस खदेड़ कर भगा देगी। इसके बावजूद जब एक राजनैतिक संगठन की छात्रा ने कुलपति से मिलने का प्रस्ताव रात में रखा, तो कुछ लड़कियां उठकर चली गईं। इसी के कारण सब गड़बड़ हुआ।’’ यह अपने आप में अवैधानिक है कि प्रॉक्टोरियल बोर्ड के निजी सुरक्षाकर्मी छात्रों पर हाथ छोड़ दें, जबकि यह सब कुछ कुलपति की आंखों के सामने हुआ।
इसके बाद की कहानी इतिहास है। आधी रात दर्जनों की संख्या में पुलिस की गाडि़यों ने परिसर में प्रवेश किया। डीएम और एसपी सिटी की मौजूदगी में परिसर में आंसू गैस के गोले छोड़े गए और लंका गेट पर लाठीचार्ज किया गया। सभी प्रक्रियाओं को ताक पर रखते हुए महिला पुलिसकर्मियों की नामौजूदगी में पुरुष पुलिसकर्मियों ने महिला महाविद्यालय के भीतर घुसकर लाठीचार्ज किया। महिला महाविद्यालय में समाजशास्त्र की असिस्टेंट प्रोफेसर प्रतिमा गोंड ने 23 सितंबर की रात 11.30 का घटनाक्रम लिखा है कि कैसे एक छात्रा को बचाने के चक्कर में उन्हें पुलिस की लाठियां खानी पड़ी थीं। उन्होंने पुलिसवालों से बार-बार कहा कि वे शिक्षक हैं, लेकिन वे उनके सिर पर लाठियां बरसाते रहे। इस हमले में बीएचयू गेट पर खड़े कुछ पत्रकारों को भी चोटें आईं।
कुलपति खुद को आरएसएस का बताते हैं और उस पर गर्व भी करते हैं, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि खुद एबीवीपी के छात्र और सदस्य शिक्षक उनसे लगातार रुष्ट चल रहे हैं। इसके पीछे एक तो कुलपति का अराजक प्रशासनिक रवैया है, दूसरे नियुक्तियों में अनियमितताओं की गंभीर शिकायतें हैं। कुलपति पर आरोप है कि वे एक ही जाति के लोगों की भर्तियां कर रहे हैं। विश्वविद्यालय में एबीवीपी के एक पूर्व छात्र नेता बताते हैं कि कुलपति के संघ प्रेम और जातिगत आग्रहों की छाया नियुक्तियों और फैसलों पर इतनी हावी है कि सभी दलों के एक बिरादरी के लोग उनके खिलाफ लंबे समय से एकजुट हैं। बनारस के सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. लेनिन रघुवंशी कहते हैं, ‘‘अगर बीएचयू में नियुक्तियों में अनियमितता की सीबीआइ जांच करवा दी जाए तो सारी कहानी अपने आप साफ हो जाएगी।’’
फिलहाल, इस बार कुलपति का ऊंचा रसूख शायद काम नहीं आया। लेकिन छात्राओं का मूड इतने से संतुष्ट होने का नहीं लगता है। इन सब के बीच ज्यादा दुखद यह है कि परिसर में सुरक्षा और शिक्षा के लिए सहज माहौल बनाने पर कोई बात नहीं हो रही है। देश के एक महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय की यह दशा शिक्षा के माहौल और संस्कृति पर भी गंभीर टिप्पणी है। आखिर जिस विश्वविद्यालय की आजादी के दौर में महामना मदन मोहन मालवीय ने देश का सिर ऊंचा करने के लिए स्थापना की थी, वही शर्मसार करने लगा है।
अब तो इंतहा हो गई
यह कैसी विडंबना है! बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) का पूरा कैंपस नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा के लिए सजा हुआ था। बीएचयू के लोगो में भी मां सरस्वती हैं। लेकिन देवी की पूजा का क्या मतलब है, जब लड़कियों का सम्मान ही सुरक्षित न हो और उन्हें मूल अधिकारों से वंचित रखा जाए।
इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में, जिसे देश में तीसरा रैंक प्राप्त है, 21 सितंबर को जो हुआ, वह यौन उत्पीड़न की पहली घटना नहीं थी। भद्दे और अश्लील फिकरे कसने का सिलसिला तो रोज का है। यह कैंपस में लगातार चलता रहता है। जब भी हम शिकायत करती हैं तो हमसे हर बार बदमाशों-शोहदों को अनदेखा कर देने को कहा जाता है या फिर इसलिए डांट पिलाई जाती है कि हॉस्टल से बाहर क्यों गई। इस साल होली के समय लड़कियों को दो दिनों तक हॉस्टल में बंद कर दिया गया था।
कोई लड़की आवाज उठाती है तो उसे ही गलत ठहरा दिया जाता है। कभी उसके कपड़े, कभी बाहर निकलने तो कभी उसके हावभाव पर सवाल खड़े किए जाते हैं। वार्डन, प्रॉक्टर और कुलपति कैंपस को लड़कियों के लिए सुरक्षित बनाने की जिम्मेदारी से बचते हैं और पीड़ित पर ही आरोप लगाने लगते हैं।
इस बार, आर्ट्स फैकल्टी की पीड़ित छात्रा ने अनदेखी करने से इनकार कर दिया। घटना वाले दिन यानी 21 सितंबर को यह लड़की शाम को करीब छह बजे जब हॉस्टल लौट रही थी तब मोटरसाइकिल पर सवार तीन बदमाशों ने उसे घेर लिया। उन लोगों ने भारत कला भवन के निकट उसकी साइकिल रोकी और छेड़छाड़ कर भाग गए। घबराई लड़की मोटरसाइकिल का नंबर नोट नहीं कर पाई। जब लड़की ने प्रॉक्टर से शिकायत की तो उल्टे उसे ही डांट पड़ी कि वह छह बजे के बाद बाहर क्यों थी और उसे कपड़ों की वजह से भी खरी-खोटी सुनाई गई। उस दिन उसने कुर्ता और लेगिंग्स पहन रखा था। जब हॉस्टल वार्डन को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने कहा, “तुम लड़कियां कभी अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं करती...तुम हमसे यह उम्मीद नहीं रख सकती कि हम हर समय तुम्हारी निगरानी करते रहें।” चीफ प्रॉक्टर और वार्डन करीब शाम 8.30 बजे त्रिवेणी कॉम्पलेक्स आते हैं और लौट रही लड़कियों को ही डांटने लगते हैं।
उस रात लड़कियों ने अधिकारियों के रवैए और उनकी निष्क्रियता के खिलाफ प्रदर्शन किया। अगले दिन सुबह छह बजे सभी लड़कियां त्रिवेणी कॉम्पलेक्स से बीएचयू के मेन गेट पर पहुंचीं। इस दौरान कई लड़के भी उनके साथ जुड़ गए। पीड़िता ने घटना के विरोध में अपना सिर मुंडवा लिया।
लड़कियों की मांग थी कि पूरे कैंपस में सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं, सुरक्षा बढ़ाई जाए, कैंपस में लाइट की उचित व्यवस्था हो, सुरक्षाकर्मियों को छेड़छाड़ की शिकायत करने पर तुरंत कार्रवाई करने के पर्याप्त अधिकार दिए जाएं, लेकिन हमारे कुलपति का रवैया भेदभावपूर्ण रहा। प्रदर्शन 36 घंटे तक चलता रहा। जब कुलपति वहां नहीं आए तो कुछ छात्राएं उनके निवास पर गईं। इसी समय पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। आंसू गैस के गोले भी छोड़े गए पर लड़कियों ने कुलपति से मुलाकात किए बिना हटने के इनकार कर दिया। पुलिस की कार्रवाई में कई लड़कियां घायल हो गईं, कुछ के सिर में गहरी चोटें आईं और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा। दशहरे की छुट्टियां 28 के बदले 25 सितंबर से ही कर दी गईं। लड़कियों को हॉस्टल खाली करने को बाध्य किया गया। लड़कियों के हॉस्टल का बिजली और पानी काट दिया गया।
आखिर छात्राएं तो बस सुरक्षित कैंपस ही चाहती हैं। क्या लड़कियों के लिए कर्फ्यू जैसी समय की पाबंदियों से हल निकल आएगा? क्या कपड़े अलग तरह के पहनने से यह सब बदल जाएगा? यह दुखद घटना तब हुई जब माननीय प्रधानमंत्री अपने निर्वाचन क्षेत्र के दौरे पर थे। छात्रों को सुनने की बजाय उनका रास्ता ही बदल दिया गया। पूरे घटनाक्रम को नाहक ही राजनैतिक रंग दे दिया गया और प्रदर्शनकारियों को राष्ट्र विरोधी कहा गया। क्या किसी शैक्षणिक संस्थान में सुरक्षित माहौल की इच्छा रखना राष्ट्र विरोधी है?
छात्राओं के साथ भेदभाव लंबे समय से चला आ रहा है। लड़कों से हर भोजन का पैसा लिया जाता है जबकि लड़कियों से हर दिन के हिसाब से। लड़कियां मेस से अधिकतम पांच दिन की छुट्टी ले सकती हैं पर लड़कों के लिए कोई सीमा नहीं है। किसी भी फैकल्टी के क्लब में कोई लड़की काबिल होने पर भी अध्यक्ष नहीं बनी। हम यह नहीं चाहतीं कि कुलपति इस्तीफा दें। हम तो बस यही चाहती हैं कि वे हमारी बात सुनें और लंबे समय से लंबित समस्याओं का हल निकालें।
(लेखिका बीएचयू में मैनेजमेंट की छात्रा हैं और अपना नाम जाहिर नहीं करना चाहतीं)