ऑनलाइन ट्रोलिंग हमेशा से है लेकिन बीच में जैसे बहुत ज्यादा बढ़ गई थी। अब हालांकि कुछ कम हुई है। सोशल मीडिया पर बदतमीजी और गाली-गलौज एक नया ही चलन है। बहुत से लोगों ने इस वजह से सोशल मीडिया से दूरी बना ली है। मैं खुद भी ट्विटर पर नहीं हूं। मेरा मानना है कि मैं ऐसा माहौल सहन करने या गाली-गलौज सुनने के लिए नहीं हूं। बहुत सारे लोग सोशल मीडिया पर या तो चुप्पी साध लेते हैं या छोड़ देते हैं। मेरे अनुसार ऐसा माहौल बनाना, जिसमें कोई चुप हो जाए-वह अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश है। अभिव्यक्ति की आजादी सिर्फ यह नहीं है कि जो आप चाहते हैं या जैसा आप चाहते हैं वही बोला जाए।
ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने ऐसे माहौल के कारण या तो सोशल मीडिया छोड़ दिया या कम एक्टिव हो गए। ऐसे में नुकसान किसका हुआ? जाहिर है ऐसे लोगों के जाने से हम उनके विचार ही नहीं जान पाएंगे। जैसे राजदीप और रवीश ने सोशल मीडिया छोड़ दिया। काफी देर के बाद राजदीप तो ट्विटर पर लौट आए हैं लेकिन ऐसे माहौल से सोशल मीडिया पर कुछ दोस्तों की सक्रियता कम हुई है। मेरी नजर में यह बड़ी आवाज का नुकसान है। ऐसे में हम खुद पर पाबंदी लगा लेते हैं। एक प्रकार से ऐसे माहौल में नुकसान तो उन आवाजों का होता है, जिन्हें फिर हम सुन नहीं पाते हैं। अब हम सेंसर बोर्ड की ही बात कर लें। बीते दिनों सेंसर बोर्ड ने किस प्रकार काम किया है। सरकार में रहते हुए कुछ लोग सार्वजनिक तौर पर कुछ लोगों के पीछे पड़ जाते हैं। जैसे हाल ही में रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर ने बॉलीवुड अभिनेता आमिर खान के लिए टिप्पणी की। आखिर कोई ऐसा कैसे बोल सकता है, क्या यह लोकतंत्र है, लोकतांत्रिक है? आलोचना तो पहले भी होती थी लेकिन आलोचना करने पर कोई किसी दूसरे को देशद्रोही कैसे बोल सकता है। किसी दूसरे से अलग विचार होने पर कोई देशद्रोही नहीं हो जाता है। यह सब बहुत अजीब-सा माहौल बनाता है। इस माहौल से आपकी मानसिक शांति भी भंग होती है। संविधान हमें हक देता है कि हम संविधान के दायरे में रहते हुए किसी से असमहत हो सकते हैं। हमें यह हक भी है कि हम अपने तरीके से किसी की आलोचना कर सकते हैं।
लोकतांत्रिक माहौल में यह एक गंभीर विषय है। भय का वातावरण पैदा करना। मेरा साफ-सा मानना है कि अगर आप किसी के विचारों से सहमत नहीं हैं तो देशद्रोही तो नहीं हो सकते हैं। असहमती का मतलब देशद्रोही होना नहीं है। आप ऐसा करें, ऐसा न करें, यह खाएं, यह नहीं खाएं, गो-रक्षा वाले मामले को ले लीजिए। देश में तानाशाही नहीं चल सकती है। सभी का अपना-अपना मत है, अपनी-अपनी राय है। देश में तमाम तरह के लोग हैं। तमाम धर्मों के, जाति के, संप्रदाय के लोग रहते हैं। हर किसी की अपनी राय है। भारत जैसे विभिन्नता से भरे देश में एक प्रकार की राय या विचार थोपे नहीं जा सकते हैं। अगर फिर भी कोई ऐसा करता है तो यह एक बड़ी भूल होगी। मेरा यह भी मानना है कि अभिव्यक्ति की आजादी मीडिया तक महदूद नहीं है। अगर आप किसी आंदोलन या रैली में किसी पर लाठीचार्ज करते हैं तो वह भी अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है। अगर आप किसी वजह से डर के मारे घर के अंदर बैठे हैं, किसी फिल्म पर पाबंदी लगा दी जाती है, खाने पर, किसी पेंटिंग पर पांबदी लगाते हैं तो यह तमाम तरह के अंकुश अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला हैं। इससे बोलने की आजादी को नुकसान होता है। मीडिया की जहां तक बात है तो मेरा मानना है कि अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला हो रहा है या उसपर अंकुश है या नहीं, मीडिया उसकी पड़ताल ही नहीं कर रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, कोबरा पोस्ट के संपादक हैं।)