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युवा आकांक्षा पर महती मार

कम होने लगीं अच्छे वेतन वाली नौकरियां, आइटी कंपनियों से लेकर दूसरे क्षेत्रों का बुरा हाल, खाड़ी देशों में भी कम हो रहे हैं अवसर
निराशाः एकाएक नौकरी जाने से युवाओं में फैल रही है अशांति

आर्थिक जगत की एक पुरानी कहावत के अनुसार सरकार या तो तेज मंदी के कारण हारती है या फिर बढ़ती बेरोजगारी के कारण। इतना ही नहीं ऐसा होने के दोनों कारण भी हो सकते हैं। भारत की युवा कार्यशक्ति के लिए रोजगार का सृजन बड़ी समस्या रही है। एक अनुमान के अनुसार नोटबंदी के बाद इस साल की पहली तिमाही के दौरान करीब 15 लाख निम्न कौशल वाले लोग बेरोजगार हुए। इतना ही नहीं आइटी उद्योग में भी बड़ी संख्या में नौकरियां गईं। ऐसा इस क्षेत्र में दशकों बाद पहली बार हुआ। इसकी वजह से खलबली मच गई। यह इस बात के साफ संकेत हैं कि मध्यमवर्गीय शहरी नौकरियों पर संकट के बादल छा गए हैं। जब अच्छे वेतन वाली नौकरियां गायब होने लगती हैं तभी वह और ज्यादा घातक ढंग से महसूस होती है। ऐसा होने के दो कारण हैं। पहला यह कि फॉर्मल सेक्टर में नौकरियों के जाने की संख्या बताना आसान है और दूसरा इनकी व्यापक चर्चा होती है।

रोजगारविहीन विकास के कारण निराशावाद बढ़ रहा है और इसके बीच नौकरियों को लेकर मध्यम वर्ग चपेट में आ गया है। इतना ही नहीं भारत विकास की धीमी गति, निम्न निवेश चक्र और विपरीत आर्थिक परिस्थितियों से जूझ रहा है। अच्छे पेशेवर लोगों के लिए अच्छे वेतन वाली नौकरियों की कमी राजनीति को सरगर्म कर सकती है। भारत में मध्यम वर्ग का दायरा तय नहीं है। इसमें छोटे ऑफिस में काम करने वाले क्लर्क से लेकर बड़े अफसर तक शामिल हैं। हाथ में स्मार्टफोन लेकर चलने वाला वर्ग दूसरों की तुलना में तेजी से जनता की राय सामने लाता है। टेलीविजन चैनल उनकी भाषा बोलते हैं और मीडिया भी निराश गरीबों की तुलना में इनके विचार ज्यादा रखता है।

मध्यम वर्ग को रोजगार देने वाली कंपनियां कर्जे से जूझ रही हैं और दूसरे सेक्टर वेतन की राशि में कटौती कर रहे हैं। आइटी कंपनियां हों या बैंक या बिजली कंपनियां सभी में ऐसा हो रहा है। भले ही वह छोटे स्तर पर ही क्यों न हो। ऐसे में यह आशंका है कि मध्यम स्तर की जो नौकरियां है उनमें 52 फीसदी की कमी हो सकती है। यह अलग ढंग से चुनौती के रूप में आ सकती है। कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र की बड़ी कंपनी लार्सन एंड टूब्रो ने 2016-17 के अंत तक 14,000 कर्मचारियों की छंटनी कर दी। साथ ही, आइटी उद्योग से भी करीब 56,000 इंजीनियरों की नौकरी गई। लेकिन यह केवल ट्रंप प्रशासन की विदेशी लोगों को लेने में कटौती करने वाली नीति से प्रभावित आइटी सेक्टर तक ही सीमित नहीं है। गुरुग्राम स्थित रोजगार का समाधान करने वाली एक कंपनी द्वारा किए गए सर्वे अस्पाइरिंग माइंड्स नेशनल इंप्लाॅयबिलिटी रिपोर्ट के अनुसार चार फीसदी से भी कम इंजीनियर नौकरी पाने के योग्य हैं।

आइटी क्षेत्र से नौकरियां जाने की चर्चा हर ओर हुई पर अच्छे वेतन पर नौकरी देने वाले इंजीनियरिंग क्षेत्र में नौकरियों के कम होने पर कम ध्यान गया। इसका कारण रोजगार सृजन की जगह ढांचागत मामला अधिक हो सकता है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि बड़ी संख्या में लोग तकनीकी शिक्षा की ओर जा रहे हैं जिससे दूसरे क्षेत्र की तुलना में एक क्षेत्र में नौकरी चाहने वालों की संख्या मांग से ज्यादा हो जा रही है। उदाहरण के तौर पर, 2011 की जनसंख्या के अनुसार भारत में 60 से ज्यादा उम्र के लोगों में प्रत्येक 100 इंजीनियरों की तुलना में 35 डॉक्टर थे। इस उम्र समूह में डॉक्टरों से इंजीनियरों का आंकड़ा गिरावट दर्शाता है। 20 से 24 साल के उम्र समूह में यह अनुपात 15 और सात का है। अस्पाइरिंग माइंड्स के 2015 में 650 इंजीनियरिंग कॉलेज के 1,50,000 छात्रों पर किए गए सर्वे के अनुसार उस साल पास 80 फीसदी ग्रेजुएट नौकरी नहीं पा सके थे।

बैंक, तेजी से बढ़ रही उपभोक्ता वस्तुओं की कंपनियां, कंस्ट्रक्शन फर्म और इंजीनियरिंग कंपनियां भी नौकरियों में कमी कर रही हैं। एऑन हेविट के अनुसार 114 लिस्टेड कंपनियों में कर्मचारियों की संख्या 7,86,094 से कम होकर 7,24,036 हो गई है। ये कंपनियां आइटी क्षेत्र से इतर ऊर्जा, उपभोक्ता वस्तुओं, कंस्ट्रक्शन और एफएमसीजी से जुड़ी हैं। एक्जक्यूटिव उपलब्ध कराने वाली कंपनी रेड हंट रिक्रूटर्स के कपिल वासु कहते हैं, “हमारे प्राइवेट सेक्टरों को इस समय ज्यादा तवज्जो मिली हुई है। इसकी वजह से विस्तार नहीं हो पा रहा और नौकरियां एक सीमा के अंदर ही दी जा रही हैं।” ज्यादा तवज्जो वाली कंपनियां वे हैं जिन्होंने एक वित्त वर्ष में वापस करने से ज्यादा कर्ज ले रखा है।

भारतीय आइटी पेशेवरों की स्थिति इतनी चिंताजनक हो गई है कि वे पहली बार यूनियन बनाने और एकजुट होने पर बाध्य हो गए हैं। जब तेजी से नौकरियां जा रही थीं तब मई 2017 में इन लोगों ने अपनी यूनियन बनाई। इस यूनियन का नाम ‘द फोरम ऑफ इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी वर्कर्स’ रखा और देश के पहले आइटी पेशेवरों की यूनियन के रूप में इसका पंजीकरण कराया। आइटी सेक्टर में घबराहट अभी कम नहीं हुई है। इस बात की आशंका है कि नौकरियों से निकाले जाने के और कई दौर आएंगे। मैकेंजी ऐंड कंपनी की मई में जारी रिपोर्ट के अनुसार मध्यम दर्जे के आधे पेशेवर अगले तीन से चार साल में अप्रासांगिक हो जाएंगे। टेक महिंद्रा से निकाले गए एक कर्मचारी के अनुसार, “अगर ऐसा मामला है तो कंपनियां फिर से प्रशिक्षण देने के लिए निवेश क्यों नहीं करती? उन्होंने कोई कारण नहीं बताया। बस एक कॉल किया और कहा ‘मेरी सेवा’ समाप्त कर दी गई है। मुझे इस्तीफा दे देना चाहिए।”

दबाव का अन्य कारण खाड़ी में नौकरियों की कमी का होना भी है। अब मध्य-पूर्व में हाई प्रोफाइल नौकरियां मिलना आसान नहीं रह गया है। वास्तव में, स्थिति इसके विपरीत हो गई है। खाड़ी में नौकरी करने वाले अधिकांश भारतीय मध्यम या निम्न वेतन पाने वाले होते हैं। अभी करीब 1.4 करोड़ भारतीय विदेश में काम करते हैं इनमें से 50 लाख खाड़ी के देशों में हैं। यूरोस्टेट के डाटा के अनुसार तेल की कीमतों में आई गिरावटों की वजह से सऊदी सरकार को अपनी सरकारी परियोजनाओं पर खर्चे में 13 फीसदी की कटौती करनी पड़ी। वास्तव में, 2016 में दुनिया के सबसे बड़े तेल निर्यातक देश में नौकरियों को लेकर निराशाजनक साल रहा। निटकैट श्रम बाजार के सुधारों के कारण विदेशियों को मिलने वाले रोजगार में कमी आई। इन सुधारों के अनुसार कंपनियों के लिए सऊदी नागरिकों को नौकरियां देने के लिए कोटा तय कर दिया गया था। वहीं कंपनियां विदेशी लोगों को नौकरियां दे सकती थीं जिन्होंने यह कोटा पूरा कर लिया हो।  निटकैट सुधारों के अलावा सऊदी सरकार ने एक और नीति बनाई जिसकी वजह से विदेशी लोगों को नौकरियां मिलने में कठिनाई हुई। विशेषज्ञों के अनुसार ऐसा देश में काम कर रहे विदेशी कामगारों को हतोत्साहित करने के लिए किया गया। जुलाई में आई इस नीति के अनुसार हर विदेशी कामगार को अपने साथ रहने वाले हर आश्रित (बच्चे, पत्नी और अन्य) को सौ रियाल (करीब 2,000 रुपये) देने होंगे। इसके अलावा आश्रित टैक्स हर साल सौ रियाल से बढ़ते हुए 2020 तक 400 रियाल पहुंच जाएगा। मक्का में रहने वाले उत्तर प्रदेश के व्यापारी मोहम्मद मिउन कहते हैं, “अब मुझे आश्रित टैक्स के रूप में अतिरिक्त 12,000 रुपये चुकाने होंगे। हम पहले भी आश्रित टैक्स देते थे पर वह काफी कम था। सौ रियाल काफी ज्यादा है। मुझे जल्दी ही सऊदी छोड़ देना होगा।”

स्वतंत्र वेंचरों द्वारा भारत की अर्थव्यवस्था को दिया गया दर्जा अभी भी आकर्षित कर रहा है। स्टार्टअप भारत की नई अर्थव्यवस्‍था की चाल का प्रतिनिधित्व करते हैं और पेशेवरों को नौकरी देने वाले प्रमुख नियोक्ता के रूप में उभरे हैं। लेकिन व्यापार में बने रहना काफी मुश्किल होता जा रहा है। इस सेक्टर के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मोदी सरकार ने ‘स्टार्टअप इंडिया’ के नाम से इस तरह के उद्यम के लिए सरकारी फंड शुरू किया है। इसके अलावा भारतीय परियोजनाओं के लिए निजी सेक्टर भी पूंजी उपलब्ध करा रहे हैं। उदाहरण के लिए टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में पूंजी उपलब्ध कराने वाले विश्व के सबसे बड़े फंड द सॉफ्टबैंक विजन फंड ने भारत के लिए बड़ी योजना शुरू की है। उसने अगस्त में भारत के सबसे बड़े ऑनलाइन व्यापार करने वाली कंपनी फ्लिपकार्ट की 20 फीसदी हिस्सेदारी 2.5 अरब डॉलर खर्च कर हासिल की है। यह सौदा अस्थिर टेक्नोलॉजी सेक्टर में सबसे बड़े निवेश का प्रतिनिधित्व करता है।

भारत में अभी करीब 19,000 टेक्नोलॉजी स्टार्टअप हैं। इनमें से अधिकांश उपभोक्ता या वित्तीय सेवा देने वाले हैं। 2015-16 के आर्थिक सर्वे के अनुसार 2015 के पहले छमाही के दौरान इन्हें 3.5 अरब डॉलर की फंडिंग की गई। आठ भारतीय स्टार्टअप को ‘यूनिकॉर्न’ श्रेणी में हैं। ये वैसे स्टार्टअप हैं जिनकी वैलूएशन एक अरब डॉलर या उससे अधिक है।

लेकिन अब तनाव दिखाई पड़ने लगा है। पिछले साल 6,000 टेक्नोलॉजी स्टार्टअप शुरू किए गए थे पर अभी तक इस साल मात्र 800 ही शुरू हुए हैं। कई बंद हो चुके हैं और स्नैपडील जैसी कंपनियां जिस तरह से अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं वह चुनौतियों को बताने वाली हैं। बेरटेल्समैन इंडिया के प्रबंध निदेशक पंकज मक्कड़ कहते हैं कि अगर हम निवेश के पूरे परिदृश्य पर नजर डालें तो साफ होता है कि यह इस साल कम हुआ है। स्टार्टअप पर नजर रखने वाली कंपनी टैक्सन के अनुसार 2016 के 1000 की तुलना में गिरावट आई है और यह करीब 700 पहुंच गई है।

अब तक, भारत में सरकार से फंड प्राप्त करने वाले स्टार्टअप विफल साबित हुए हैं। इसके लिए 10,000 करोड़ का फंड बनाया गया और स्माल इंडस्ट्रीज डेवलपमेंट बैंक ऑफ इंडिया (सिडबी) को इसकी जिम्मेदारी दी गई। सिडबी के बारे में माना जाता है कि यह प्राइवेट वेंचर कैपिटल (वीसी) में निवेश करेगी पर अब यह निजी उद्यमों में भी निवेश करेगी। प्रारंभिक स्तर के स्टार्टअप के मूल्यांकनकर्ता बैरोन के सत्यजीत बरुआ कहते हैं, “भारत में फंड के लिए फंड मॉडल बुरा है।” वह कहते हैं कि जब सिडबी राशि स्वीकृत कर देता है तब भी इसका उपयोग करना काफी मुश्किल होता है क्योंकि बैंक कुल राशि का 15 फीसदी ही देता है जबकि शेष 85 फीसदी राशि जुटानी पड़ती है। इसपर भी यह शर्त होती है कि राशि का इस्तेमाल स्टार्टअप के प्रारंभिक स्तर पर ही कर लिया जाए। इससे वीसी के लिए निवेश के अवसर सीमित हो जाते हैं।

एक नए आंकड़े के अनुसार रोजगार में इजाफा दिखाई देता है। जून में जारी मैकेंजी ग्लोबल की इंडियाज लेबर मार्केटः ए न्यू इंफैसिस ऑन गेनफुल इंप्लॉयमेंट नाम से जारी रिपोर्ट के अनुसार सरकारी खर्चे बढ़ने, स्वतंत्र काम बढ़ने और एंटरप्रेन्योरशिप के कारण 2014-15 में लाभकारी रोजगार पाने वालों की संख्या दो करोड़ से बढ़कर 2.16 करोड़ हो गई।

इस मामले में नीति आयोग के तत्कालीन प्रमुख अरविंद पानगढ़िया के उस बयान के बाद बहस तेज हो गई थी जिसमें कहा गया था कि जितनी नौकरियां जा रही हैं उससे ज्यादा रोजगार के अवसर फॉर्मल सेक्टर में उपलब्ध होंगे। सामाजिक सुरक्षा का भुगतान करने से बचने के लिए कंपनियां अपने कर्मचारियों के भ्रमित करने वाले आंकड़े दे सकती हैं। यह सच भी हो सकता है। सरकार ने औपचारिक रूप से काम करने वाले कर्मचारियों की सही संख्या नहीं बताने वाले नियोक्ताओं के लिए आम माफी योजना (जनवरी से जून 2017 के बीच में लागू) घोषित की। इसमें सामाजिक सुरक्षा और कानूनी सालाना अनुबंध की जानकारी देनी थी, इसके आते ही इंप्लाइज प्रॉविडेंट फंड में दर्ज संख्या में 26 फीसदी की वृद्धि हुई। प्रॉविडेंट फंड योजना में एक करोड़ से ज्यादा नए कर्मचारियों के नाम दर्ज कराए गए। लेकिन यह नई नौकरियों का सृजन नहीं था (नौकरी करने वाले लोगों की आधिकारिक घोषणा भर हुई)। यह औपचारिक नौकरियां करने वालों के सही आकंड़े नहीं हो सकते हैं यह दिए गए आकंड़े से ज्यादा हो सकता है। नोमुरा की अर्थशास्‍त्री सोनल वर्मा कहती हैं, “रोजगार तभी बढ़ सकते हैं जब सरकार गैर निष्पादित संपत्तियों की समस्याओं के साथ कर्ज से लदी कंपनियों की समस्या का हल कर दे। यही एकमात्र उपाय है।”

सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज तिरुअनंतपुरम से जुड़े विनोज अब्राहम लेबर ब्यूरो के रोजगार-बेरोजगार सर्वे, त्रैमासिक रोजगार सर्वे और संशोधित त्रैमासिक रोजगार सर्वे के आधार पर कहते हैं कि 2013-14 और 2015-16 के बीच रोजगार में जोरदार गिरावट दर्ज की गई। यह स्वतंत्र भारत में संभवतः पहली बार हुआ।” असली संकट छोटे और मध्यम उपक्रमों (एमएसएमई)को लेकर है, जिनके महत्व की हरदम अनदेखी कर दी जाती है। इनका देश के सकल घरेलू उत्पाद में 37.5 फीसदी हिस्सा होता है। इसका अर्थ हुआ कि आठ करोड़ लोगों की जीविका इसी क्षेत्र से चलती है। इस क्षेत्र पर समीक्षा रिपोर्ट जारी करने वाली संस्था क्रिसिल लिमिटेड के मुख्य अर्थशास्‍त्री धर्मकीर्ति जोशी का मानना है कि एमएसएमई सेक्टर रोजगार के लिए महत्वपूर्ण है। यह बड़े उपक्रमों से अलग है और इसकी समस्याएं भी भिन्न हैं। 

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