यह देखना मुश्किल नहीं है कि देश के विविध और बुरी तरह बंटे हुए श्रम बाजार में कम से कम तीन समूहों को फौरन रोजगार की दरकार है। ये समूह हैं बेहतर शिक्षित युवाओं की बढ़ती जमात, खेतीबाड़ी की दुर्दशा से बाहर निकलने को बेताब अशिक्षित मजूदर और पढ़ी-लिखी लड़कियां, जिनकी शिक्षा का स्तर भी बढ़ रहा है और संख्या भी। देश की अर्थव्यवस्था यकीनन दुनिया में सबसे तेजी से विकसित हो रही है। इसके बावजूद कमतर निवेश, घटती कृषि विकास दर, कर्ज उठान में कमी, उद्योगों में स्थापित क्षमता से कम इस्तेमाल, पॉवर प्लांटों की कमतर उत्पादन क्षमता की वजह से रोजगार वृद्धि दर भी बेहद कम बनी हुई है।
पिछली कुछ तिमाहियों में धीमी रफ्तार के बावजूद वृद्धि दर अपेक्षाकृत अधिक रही है लेकिन उसके तौर-तरीकों से समस्या पैदा हुई है। इस समस्या के कई आयामों में से एक यह है कि आर्थिक सुधारों के शुरू होने के चौथाई सदी बाद भी मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र अर्थव्यवस्था की रफ्तार का अगुआ नहीं बन पाया है। मैन्युफैक्चरिंग या उत्पादन क्षेत्र को ही पूरी अर्थव्यवस्था में विकास का इंजन होना चाहिए। सेवा क्षेत्र यह भूमिका नहीं निभा सकता क्योंकि उसका काम उत्पादित सामान का वितरण करना मात्र है।
ऐसे में नीति-निर्माता रोजगार वृद्धि दर बढ़ाने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर में ज्यादा से ज्यादा निवेश के अलावा क्या कर सकते हैं, जो सरकार खासकर पिछले 18 महीने से ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में कर रही है?
औद्योगिक और व्यापारिक नीति की दरकार
केंद्र सरकार का औद्योगिक नीति तथा संवर्धन विभाग (डीआइपीपी) आखिरकार एक औद्योगिक नीति तैयार कर रहा है। 1991 में आर्थिक सुधारों की शुरुआत होने के 20 साल बाद तक कोई राष्ट्रीय उत्पादन नीति नहीं थी। 2011 में यह बनी भी तो अभी तक लागू नहीं हो पाई है। 12वीं योजना (जिसमें 1991 के बाद पहली बार औद्योगिक नीति का उल्लेख किया गया था) जब सार्वजनिक की गई, तत्कालीन यूपीए सरकार ‘पॉलिसी पैरालाइसिस’ की शिकार हो चुकी थी। 1990 के दशक में न केवल शुल्क जरूरत से ज्यादा तेजी से नीचे आए, बल्कि इन्वर्टेड ड्यूटी स्ट्रक्चर ने भी मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र को नुकसान पहुंचाया।
डीआइपीपी आखिरकार काफी देर से औद्योगिक नीति का दस्तावेज तैयार कर रहा है। हालांकि यह आवश्यक है कि औद्योगिक नीति के अनुरूप ही व्यापारिक नीति भी हो। ऐसा नहीं होने पर दोनों एक-दूसरे के विपरीत काम करेंगे और एक-दूसरे के उद्देश्यों को कमजोर करेंगे। ऐसा ही पिछले कई साल से होता आया है। आयात पर अत्यधिक जोर से देश के उत्पादन क्षेत्र का महत्व घटता गया है। दरअसल इन्वर्टेड ड्यूटी स्ट्रक्चर में अंतिम उत्पाद के मुकाबले उसमें लगने वाले सामान पर ऊंचा शुल्क लगता है। अंतिम उत्पाद पर अक्सर कस्टम ड्यूटी में छूट भी मिल जाती है। लिहाजा, प्रतिकूल इन्वर्टेड ड्यूटी स्ट्रक्चर के कारण घरेलू उत्पादकों को ऊंचे शुल्क के कारण कच्चा माल महंगा मिला, जिससे लागत बढ़ गई। बीते 12-15 साल से एल्यूमीनियम, स्टील, केमिकल, कैपिटल गुड्स, इलेक्ट्रॉनिक्स के क्षेत्र की ऐसी स्थिति की ओर 2014 में फिक्की ने अपनी रिपोर्ट में ध्यान खींचा था, जिसने आर्थिक सुधारों के बाद से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को आगे बढ़ने से रोका है। इसे फौरन दुरुस्त किया जाना चाहिए। देश में ऑटोमोबाइल सेक्टर पर इन्वर्टेड ड्यूटी स्ट्रक्चर का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा। लिहाजा, यह क्षेत्र काफी फला-फूला। आज भारत कई प्रकार के वाहनों का उत्पादन करने वाले दुनिया के बड़े देशों में है। इलेक्ट्रॉनिक क्षेत्र पर इन्वर्टेड ड्यूटी स्ट्रक्चर का विपरीत प्रभाव पड़ा। लेकिन, वित्त मंत्री ने कुछ बदलाव किए और धीरे-धीरे इस क्षेत्र में उत्पादन बढ़ रहा है।
अधिक श्रमिकों वाले उद्योगों के लिए विशेष पैकेज
देश में कई उद्योग श्रम सघन हैं यानी जिनमें श्रमिकों की ज्यादा दरकार होती है। मसलन, खाद्य प्रसंस्करण, चमड़ा, फुटवियर, फर्नीचर और लकड़ी के सामान, टेक्सटाइल, परिधान और वस्त्र निर्माण के क्षेत्र। करीब एक साल पहले केंद्र सरकार ने सिलेसिलाए वस्त्र और कपड़ा उद्योग को विशेष पैकेज दिया है। लेकिन, अन्य श्रम सघन क्षेत्रों की अनदेखी हो रही है। सभी क्षेत्रों के लिए उनकी जरूरतों के अनुसार जल्द से जल्द पैकेज दिए जाने की जरूरत है।
कुटीर, लघु और मझोले उद्योगों के लिए क्लस्टर
असंगठित क्षेत्रों में ज्यादातर रोजगार कुटीर, लघु और मझोले उद्योगों (एमएसएमई) में है, जिनके केंद्र देश के खास इलाकों में स्थित होते हैं। देश में 1,100 आधुनिक इंडस्ट्री क्लस्टर हैं, जबकि हैंडलूम, हैंडीक्राफ्ट और अन्य पारंपरिक वस्तुओं के 6,000 से ज्यादा क्लस्टर हैं। एमएसएमई मंत्रालय क्लस्टर डेवलपमेंट प्रोग्राम भी चला रहा है। पर उसका बजट आवंटन बेहद कम है और उसका स्वरूप बेहतर किया जा सकता है। क्लस्टर डेवलपमेंट सहित सभी कार्यक्रमों के लिए एमएसएमई का कुल बजट 3,000 करोड़ रुपये से कुछ ही ज्यादा है। 6,000 से ज्यादा क्लस्टर हैं और वहां मौजूद एमएसएमई बढ़ावा देने के लिए यह बेहद कम है।
शहरी विकास को क्लस्टर से जोड़ना
शहरी विकास मंत्रालय का एक कार्यक्रम है अमृत। इसका मकसद छोटे शहरों में इन्फ्रास्ट्रक्चर को बेहतर करना है। इन्फ्रास्ट्रक्चर में सरकार द्वारा निवेश हमेशा रोजगार पैदा करता है। लेकिन, मंत्रालय के कार्यक्रम का फोकस असंगठित क्षेत्र के क्लस्टरों पर नहीं होता है। ऐसा करने के लिए शहरी विकास मंत्रालय और एमएसएमई के बीच जुड़ाव जरूरी है। इससे कृषि से इतर रोजगार पैदा करने वाले ऐसे क्लस्टर में निवेश को बढ़ावा मिलेगा।
लड़कियों को नौकरियों में मिले प्रश्रय
लड़कियां नौकरी खो रही हैं। जिनके पास अच्छी शिक्षा है वे भी नौकरी की तलाश नहीं कर पातीं, जबकि पिछले दस साल में उच्च स्तर की शिक्षा पाने वाली लड़कियों की संख्या बढ़ी है। पांच साल (2010-2015) में माध्यमिक शिक्षा में दाखिला 58 फीसदी से बढ़कर 85 फीसदी हो गया और इसमें लड़कियों की तादाद भी अधिक है। ऐसे में रोजगार पैदा करने वाले क्लस्टर के करीब कौशल विकास के केंद्र ज्यादा सफल होंगे, जबकि अमूमन प्रोफेशलन प्रशिक्षण केंद्र अलग होते हैं। इन केंद्रों से कौशल हासिल करने के बाद रोजगार नहीं मिलना बड़ी समस्या है। कौशल विकास केंद्रों के करीब नौकरी की उपलब्धता से ऐसे कार्यक्रमों की मांग भी बढ़ेगी।
स्वास्थ्य, शिक्षा, पुलिस और न्यायपालिका में सार्वजनिक निवेश
वर्ष 2017 के शुरुआत में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाए जाने के बावजूद स्वास्थ्य क्षेत्र में पिछले तीन साल से सार्वजनिक निवेश जीडीपी का 1.15 फीसदी ही रहा है। स्वास्थ्य नीति से संकेत मिलते हैं कि स्वास्थ्य पर खर्च 2025 तक बढ़कर जीडीपी का 2.5 फीसदी हो जाएगा। देश में स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति को देखते हुए यह महत्वपूर्ण है कि इस क्षेत्र में सार्वजनिक खर्च को तेजी से बढ़ाया जाए, न कि 2025 का लक्ष्य रखा जाए। सार्वजनिक निवेश ज्यादा नहीं होने के कारण निजी क्षेत्र अपना विस्तार कर रहा है। निजी क्षेत्र की वजह से स्वास्थ्य पर प्रति परिवार खर्च बढ़ता जा रहा है, जबकि स्वास्थ्य की स्थिति में ज्यादा सुधार नहीं दिख रहा है। इसका कारण यह है कि निजी क्षेत्र लोगों के रोगों की रोकथाम और सार्वजनिक स्वास्थ्य उपायों पर जोर नहीं देता है। निजी क्षेत्र लोगों के बीमार होने पर उनका इलाज करने के लिए अस्पताल खोलना चाहता है। उसकी कोशिश यह नहीं होती कि उन उपायों पर जोर दिया जाए, जिससे लोग बीमार ही न हों। स्वास्थ्य सभी देशों में हमेशा से सरकार की जिम्मेदारी रही है। इस क्षेत्र में जितना सरकारी खर्च बढ़ेगा उतनी ही, नौकरियां पैदा होंगी और लोगों का स्वास्थ्य उतना ही बेहतर होगा।
सरकारी स्कूलों की हालत इतनी खराब है कि माता-पिता निजी स्कूलों में अपना पैसा खर्च करने को मजबूर हैं। गरीब माता-पिता इन स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने का भार नहीं उठा सकते। प्राथमिक स्कूलों में ही दाखिला नहीं बढ़ा है, बल्कि 2010 से 2015 के बीच माध्यमिक स्तर पर भी यह 58 फीसदी से बढ़कर 85 फीसदी हो गया है। माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर खासकर, गणित और विज्ञान के शिक्षकों की जबर्दस्त जरूरत है। युवाओं को इस स्तर पर गणित और विज्ञान पढ़ाने के लिए विशेष ट्रेनिंग देने से कई नए लोगों को सरकारी नौकरी मिलेगी।
यह पुलिस और न्यायपालिका पर भी लागू है। अर्धसैनिक बलों के जवानों की संख्या बढ़ रही है, पर राज्य सरकारें पुलिस और न्यायपालिका में पहले से स्वीकृत पदों पर भी बहाली नहीं कर रहीं। दोनों क्षेत्रों में हर स्तर पर पद खाली हैं। ज्यादा पुलिसकर्मी और बड़ी न्यायपालिका होने से अपराध में कमी के साथ-साथ आम आदमी को न्याय देने की प्रक्रिया भी तेज होगी।
(लेखक जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और सेंटर फॉर इनफार्मल सेक्टर ऐंड लेबर के चेयरमैन हैं)