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गुमराह सुधारों से बेहाल हुई अर्थव्यवस्थाध

एफडीआइ और पश्चिम के नाकाम पूंजीवादी मॉडल पर फोकस से खेती-बाड़ी, छोटे उद्योग और काम-धंधे तबाह, फौरन सरकार रवैया बदले वरना संकट विकट
नीति आयोग के सामने हैं कई चुनौतियां

दिल्ली में 26 मई को नीति आयोग के एक कार्यक्रम में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर माइकल पोर्टर ‘देश और सरकारें-नई अंतर्दृष्टि’ विषय पर बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था की मुख्य खामी यह है कि जीडीपी विकास में आगे होने के बावजूद भारत सामाजिक और आर्थिक प्रगति में काफी पीछे है। उन्होंने सामाजिक प्रगति पर राज्यवार रिपोर्ट बनाने का सुझाव दिया, ताकि असलियत का पता चले। यह शर्मनाक है कि सरकार से सामाजिक-आर्थिक प्रगति के लिए गंभीर होने की बात हार्वर्ड के एक प्रोफेसर को कहनी पड़ी।

भारत की स्थितियों के अनुकूल नहीं होने के बावजूद वैश्वीकरण के नाम पर पिछले 26 साल से लागू की जा रही गलत नीतियों और विध्वसंक आर्थिक सुधारों से ये हालात पैदा हुए हैं। जीडीपी ग्रोथ का मौजूदा मॉडल समावेशी नहीं है। यह समाज के एक छोटे से मलाईदार तबके को लाभ पहुंचा रहा है। इससे समाज में हाशिए पर जीने वालों और वंचित आबादी को लाभ नहीं मिल रहा। यही कारण है कि एक के बाद एक सरकारों की नीतियों के खिलाफ भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) को कड़ा आलोचनात्मक स्टैंड लेना पड़ा है। 1990 तक भारत रूस के समाजवादी मॉडल पर अमल करता रहा। योजना आयोग ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद हम अमेरिका की पूंजीवादी व्यवस्‍था ‌की ओर बढ़ चले। लिहाजा, योजना आयोग की जगह नीति आयोग आ गया। यही कारण है कि कानपुर के हालिया राष्ट्रीय अधिवेशन में बीएमएस ने नीति आयोग की नीतिगत गलतियों पर तीखे हमले किए। बीएमएस ने साफ किया कि मित्रवत सरकार होने के बावजूद हमारी अर्थव्यवस्‍था गलत दिशा में जा रही है।

मुद्दे, प्राथमिकताएं, उनके विश्लेषण के लिए अपनाई गई कार्यप्रणाली और सुझाए गए समाधान सभी बेहद दोषपूर्ण और नाकाम पश्चिमी पूंजीवादी मॉडल पर आधारित हैं। हर नए सुधार और सरकार की पहल का परिणाम अमीरों को सब्सिडी और गरीबों पर कर के बोझ के रूप में सामने आ रहा है। ऐसे हालात में कॉरपोरेट सबसे बड़े लाभार्थी हैं क्योंकि सरकार की खासकर नीति निर्धारण प्रक्रिया में कॉरपोरेट सलाहकारों की महत्वूपर्ण भूमिका है।

गलत सलाहकार चुनने का हुनर

हमारी सरकार केवल विदेश से विचारधारा और निवेश लाने में ही नहीं लगी है, बल्कि विदेशी, एनआरआइ सलाहकार और विशेषज्ञ भी आयातित किए जा रहे हैं। इन विशेषज्ञों और सलाहकारों को असली भारत का कोई ज्ञान नहीं है। डॉ. मनमोहन सिंह की विदाई का रास्ता आसान करने वाले यूपीए सरकार के ज्यादातर ब्यूरोक्रेट और सलाहकार मौजूदा सरकार को भी सलाह दे रहे हैं। भारी नीतिगत भूलों के लिए प्रसिद्ध शख्स सरकार के सलाहकारों की टीम का नेतृत्व कर रहा है। उन्होंने किसानों पर कर लगाने का प्रस्ताव दिया, जिसका वित्त मंत्री और अन्य लोगों को सार्वजनिक रूप से खंडन करना पड़ा। कॉरपोरेट लॉबी का पैरोकार होने के नाते उन्होंने रेलवे के लिए सुझाव दिया कि उसका “उदारीकरण, निजीकरण और कॉरपोरेटीकरण” कर दिया जाए। इस पर भी फौरन सरकार को झेंपते हुए सफाई देनी पड़ी। यह तो एक उदाहरण मात्र है। आम लोगों के प्रति हिकारत का भाव रखने वाले इन सलाहकारों के कारण चीजें अभी भी गलत राह पर हैं। इन्हीं लोगों के कारण सरकार यूपीए की नीतियों को ज्यादा जोशोखरोश के साथ आगे बढ़ा रही है। लिहाजा, यह सरकार तो आर्थिक और श्रम के मोर्चे पर यूपीए-3 ही है। बदलाव कॉस्मेटिक किस्म के ही हैं। जो लोग इस सरकार को परफॉर्म करते देखना चाहते थे, उनकी उम्मीदों के मुताबिक कुछ नहीं हो रहा।

जॉबलेस इंडियाका निर्माण

1990 के दशक में एलपीजी (लिबराइजेशन, प्राइवेटाइजेशन, ग्लोबलाइजेशन यानी उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) सुधारों को लागू करने के दस साल के भीतर ही इस विकास की पहचान ‘जॉबलेस ग्रोथ’ के तौर पर उसी मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने की, जो इन नीतियों के प्रमुख पैरोकार थे। आज भी जितनी नौकरियां पैदा हो रही हैं उससे ज्यादा रोजगार के अवसर समाप्त हो रहे हैं। स्किल इंडिया और नौकरी पैदा करने के सरकार के प्रयासों के बावजूद यह चिंता का कारण बना हुआ है। जॉबलेस ग्रोथ देश को जॉबलेस इंडिया की ओर धकेल रहा है। इसका गंभीर असर वेतन, सेवा शर्तों, ठेका प्रथा में वृद्धि और यहां तक कि मजदूरों के अस्तित्व पर दिखने लगा है।

सरकार इस हकीकत को भुला रही है कि श्रम सघन महत्वपूर्ण क्षेत्र ध्वस्त हो चुके हैं। 55 फीसदी रोजगार देने वाला कृषि क्षेत्र अब पूरी दुनिया में किसानों की हजारों नहीं, लाखों में आत्महत्या के लिए कुख्यात हो चला है। किसानों की यह हालत कृषि विपणन व्यवस्‍था के कारण है जो बिचौलियों की मर्जी पर निर्भर है। कुटीर और लघु उद्योग, जो रोजगार प्रदान करने के मामले में दूसरा अहम क्षेत्र है, के अनेक पारंपरिक केंद्र मटियामेट हो चुके हैं। एलपीजी सुधारों, विदेशी निवेश, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हमलों वगैरह से ये हालात पैदा हुए हैं। कुटीर, लघु और मझोले उद्यमों के प्रमुख पारंपरिक केंद्र फरीदाबाद, अमृतसर या दक्षिणी भारत के होसुर जैसे इलाके हुआ करते थे। कृषि और लघु उद्योग, इन दो क्षेत्रों में ही 85 फीसदी रोजगार हुआ करते थे। रोजगार पैदा करने वाले अन्य बड़े सेक्टर कपड़ा, बीड़ी और निर्माण उद्योग हैं। ये सभी संकट में हैं। इन हालात में सरकार को रोजगार सृजन का कोई भी दावा करने के लिए किसी जादूगरी की दरकार है। एफडीआइ के लिए दीवानेपन ने हमारे कुटीर, लघु और मझोले उद्योगों और छोटे व्यापारियों का बंटाधार  कर दिया। ई-कॉमर्स के बड़े कारोबारी जैसे अमेजन, फ्लिपकार्ट, स्नैपडील वगैरह ने स्‍थानीय व्यापारियों को तबाह कर डाला है। उबर और ओला भी तबाही ला रहे हैं। हालांकि इनमें एक भारतीय है।

अर्थव्यवस्‍था के मुद्दों की गलत पहचान

जीडीपी में 60 फीसदी योगदान करने के दावे वाले सर्विस सेक्टर को ग्रोथ का इंजन बताना कोई टिकाऊ विचार नहीं है। कृषि और उद्योग के बाद सर्विस सेक्टर का नंबर आता है। सर्विस सेक्टर इन दो क्षेत्रों का सहयोगी ही साबित होगा।

हमारी अर्थव्यवस्‍था के सामने पांच संकट हैं। आजादी के सत्तर साल में किसी सरकार ने इसका समाधान नहीं किया। पहला संकट गरीबी है। देश की आधी आबादी अब भी गरीबी रेखा से नीचे या उसके आसपास है। मानव विकास सूचकांक और सामाजिक विकास सूचकांक पर भारत दुनिया के ज्यादातर देशों से बदनामी के स्तर तक पीछे है। कृषि क्षेत्र की समस्या दूसरा संकट है। तीसरे और चौथे संकट का उल्लेख 2013-14 के आर्थिक सर्वे में है। मैन्यूफैक्चरिंग ग्रोथ का आजादी के बाद से सबसे कम होना तीसरा संकट है।

इकोनॉमिक सर्वे में जिस चौथे संकट का जिक्र ह‌ै, वह है 1950 के बाद सबसे ज्यादा व्यापार घाटा। भारत के बाजारों में चीनी उत्पादों की भरमार है, मोबाइल फोन से लेकर पटाखे तक। चीन से भारत का व्यापार घाटा चीन के रक्षा बजट 60 अरब डॉलर के बराबर है। मतलब यह कि चीन से युद्ध हुआ तो भारतीय बाजार उसका सैन्य खर्च वहन करेगा।

मैन्यूफैक्चरिंग और विदेशी व्यापार के ये संकट पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के आखिरी साल में भी थे। पांचवां संकट जिससे हम जूझ रहे हैं वह इन चारों संकटों से पैदा हुआ है। वह है, बेरोजगारी। सरकार की कोशिशों के बावजूद पैदा होने वाली नौकरियों से ज्यादा लोगों का रोजगार छिन रहा है। इससे दो और मुद्दे जुड़े हैं। पहला, राजस्व का संकट। सरकार के पास अपनी मशीनरी चलाने और सामाजिक क्षेत्र के विकास के लिए पैसा नहीं है। दूसरा, एनपीए का बढ़ना। यह संकट विशेषकर बड़े कॉरपोरेट घरानों के बैंकों का कर्ज नहीं चुकाने से पैदा हुआ है। राजस्व में कमी और एनपीए में इजाफे से गरीबों के लिए आवंटन नहीं मिल रहा।

पूर्वी भारत में कई इलाके हैं जहां लोग गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, अशिक्षा, नक्सल समस्या से त्रस्त हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे ज्यादातर क्षेत्रों में स्कूल और अस्पतालों से ज्यादा खदानें हैं। इस तरह के हालात में भारत एक रेंगने वाली अर्थव्यवस्‍था होने का जोखिम नहीं उठा सकता।

लोगों से दूरी और दोषपूर्ण कार्यान्वयन

प्रधानमंत्री की कई अच्छी पहल और प्रयास उचित विशेषज्ञों के अभाव, गलत सलाहकारों और ब्यूरोक्रेट, गुमराह सुधारों, संवाद की कमी से बेअसर हो गए। नई सरकार ने देश को बदलने के लिए कई अच्छे नीतिगत पहल की। आम लोगों के लिए कई सामाजिक सुरक्षा योजना जैसे उज्ज्वला, मेक इन इंडिया, श्रमेव जयते, यू विन कार्ड, स्टार्ट अप इंडिया, लेबर कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी वगैरह शुरू किए। इनमें से ज्यादातर नीतिगत खामियों के कारण सही परिणाम नहीं दे पाए। लेबर कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी पर नया ड्राफ्ट इसका विशिष्ट उदाहरण है। देश के आखिरी श्रमिक को भी यह जिस तरह चौदह लाभों की गारंटी देता है वह इसे ऐतिहासिक और क्रांतिकारी बनाता है। लेकिन, इसके काम करने का तंत्र बेहद दोषपूर्ण है। जैसे राज्य सरकारों को बड़े ईएसआइ और पीएफ फंड सौंपना, सामाजिक बीमा का निजीकरण, समितियों में मजदूर संगठनों का प्रतिनिधित्व सीमित करना वगैरह। यह बीमारी हाल के कई अच्छे फैसलों में दिखती है, जैसे नोटबंदी, जीएसटी, डिजिटलीकरण और अन्य श्रम तथा आर्थिक सुधार। मजदूर संगठनों सहित सामाजिक क्षेत्र के अन्य प्रतिनिधियों से उचित सलाह-मशविरा नहीं करने के कारण ये विफल रहे।

इसमें दो राय नहीं कि नोटबंदी और जीएसटी क्रांतिकारी और ऐतिहासिक कदम हैं, लेकिन इसे गलत तरह से लागू किया गया। जमीनी हकीकतों को नजरअंदाज कर अवैज्ञानिक तरीके से अमल किया गया है। टैक्स का ढांचा भी अजीब बना दिया गया है, जहां पांच फीसदी टैक्स लगना चाहिए, वहां 18 फीसदी लगा दिया गया और जहां 20 फीसदी लगना था, वहां पांच फीसदी लगा दिया गया। सभी जगह एक ही शिकायत सामने आई है। मसलन, फाइलिंग के लिए आखिरी दिन तय किए गए हैं और लोग आमतौर पर आखिरी दिन ही फाइलिंग करते हैं तो डिजिटल सिस्टम क्रैश हो जाता है। इन छोटे-छोटे मुद्दों पर सरकार उचित कदम उठाकर जब तक चीजें दुरुस्त करेगी तब तक व्यापारी सड़क पर आ जाएंगे। यह सरकार की घटिया निगरानी प्रणाली को दिखाता है।

श्रम सुधार, एक त्रासदी

श्रम सेक्टर की हालत अधिक त्रासद है। सरकार में बैठे लोग मानवाधिकारों को छीनकर मजदूरों की भीड़ पैदा करना चाहते हैं। अपने देशों में मजदूरों को पूर्ण अधिकार देने वाले उद्योगपति भारत आते ही तमाम तरह की आजादी मांगते हैं। सलाहकार सरकारों को श्रम क्षेत्र में दासता जैसे हालात पैदा कर उद्योगपतियों को उपकृत करने का सलाह देते रहे हैं। श्रमिकों, खासकर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की बेहद खराब स्थिति को सुधारने की चिंता सरकार में नहीं है। जब हम नौकरी पैदा करने पर चर्चा करते हैं, तो उसके स्तर पर बात नहीं करते। जैसे ठेके पर रोजगार बढ़ना। इसके कारण मजदूरों की संस्‍थान के साथ स्‍थाई निष्ठा नहीं होती। हमारे उद्योगों के विफल होने का यह महत्वपूर्ण कारण है। टेक्सटाइल उद्योग इसलिए गिरा क्योंकि करीब अस्सी फीसदी लोग ठेके पर काम कर रहे हैं। सरकार के मौजूदा मॉडल में श्रमिकों और सामाजिक क्षेत्र के अन्य समूहों के लिए उचित जगह नहीं है। सामाजिक क्षेत्र में मजदूर, बीपीएल, आदिवासी, पिछड़े लोग, कुटीर उद्योग वगैरह आते हैं। कारोबार सुगम बनाने का माहौल तैयार करने के नाम पर आक्रामक तरीके से श्रम कानूनों में सुधार और अन्य कदम उठाए गए। इसके बावजूद कारोबार सुगमता की दृष्टि से देश 131वें स्‍थान से एक पायदान उठकर 130वें नंबर पर है।

बदलाव के लिए 17 नवंबर को रैली

वंचित भारत के सपनों को जब हाशिए पर ढकेला जा रहा है तो बीएमएस जैसे संगठन हस्तक्षेप को मजबूर हैं। यही कारण है कि बीएमएस ने 17 नवंबर को एक विशाल रैली और संसद तक मार्च का फैसला किया है। इसमें 44 फेडरेशनों की मांगें शामिल हैं जिनमें तीन मुख्य हैं, समान काम के लिए समान वेतन, सभी जगह न्यूनतम मजदूरी लागू करना और आंगनबाड़ी या आशा कार्यकर्ताओं को सरकारी कर्मचारी की तरह कर्मचारी माना जाना। ये मांगें संघ लगातार उठाता रहा है। आज असंगठित क्षेत्र के केवल सात से 10 फीसदी श्रमिकों को ही न्यूनतम मजदूरी का लाभ मिल रह‌ा है। चुनाव में जाने के लिए सरकार के पास मुश्किल से डेढ़ साल का वक्त बचा है। सरकार इसी तरह चलती रही तो नतीजे 2019 में शायद ही 2014 जैसे हों। लेकिन, घबराने की जरूरत नहीं है। आम आदमी की सुध लेने का वक्त अभी भी है। प्रधानमंत्री की दूरदर्शी दृष्टि को ईमानदारी से जमीन पर उतारने की जरूरत है।

(लेखक भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)

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