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ये तेरा घर, ये मेरा घर, ये घर सभी का हो

हम ऐसे स्वराज की स्थापना के लिए प्रयत्नरत रहें, जहां गरीब भारतीय को भी यह महसूस हो कि यह देश उसका है
अन्याय बर्दाश्त नहीं इसलिए सरकार से न्याय मांगते हैं लोग

एक तरफ हम प्रगति पथ पर बढ़ रहे है, चांद पर बसने का ख्वाब देख रहे हैं। दूसरी तरफ इस पावन देश को अपने क्षुद्र स्वार्थ, अहंकार, असहिष्णुता, पाशविकता, हिंसा से रहने लायक भी नहीं छोड़ रहे। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या बुलेट ट्रेन, मेगा मॉल, स्मार्ट सिटी आदि भौतिक संरचना ही मानवता के विकास का पैमाना हैं? या फिर मानव जीवन का मूल्यांकन करुणा, प्रेम, सद्भावना जैसे मानवीय मूल्यों से होगा। भारत के अध्यात्म में विश्व का आध्यात्मिक मार्गदर्शन करने की शक्ति है। मगर विगत दिनों की मानव अधिकार हनन की घटनाएं चिंता का विषय हैं।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था ‘मैं एक ऐसे भारत के निर्माण के लिए काम करूंगा जिसमें सबसे गरीब व्यक्ति भी महसूस करे कि यह उसका अपना देश है और जिसके निर्माण में उसकी प्रभावी भूमिका है।’ अपनत्व की इस भावना का अहसास सबसे ज्यादा हम अपने घर में करते हैं। हमें अपने घर में ही तो संरक्षण, प्यार, अपनापन, आजादी, अधिकार और कर्त्तव्यबोध का मिला-जुला मुक्त वातावरण मिलता है। तथापि परोक्ष रूप से बापू के शब्दों का मतलब यही है कि हर देशवासी को अपने देश में अपने घर जैसा लगना चाहिए। राजनीतिक परतंत्रता से संघर्ष इस दिशा में उठाया गया पहला कदम था। इसकी मंजिल ‘पूर्ण स्वराज’ है। आध्यात्मिक स्तर पर स्वराज का अर्थ देह से परे जाकर स्वयं को समझना और स्वयं को पूरी तरह नियंत्रित करना है। राजनीतिक, सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ‘स्वराज’ आधारित राष्ट्र-राज्य-अवाम के हर एक तबके के व्यक्ति को बिना भेद के आजादी, न्याय और समता प्रदान करने का सशक्त संवैधानिक माध्यम है।

लोकतांत्रिक राज्य कायम होने के बावजूद कानून और नियम की आड़ में अन्याय और भेद पनपने लगे तो यह शोषणकारी हो जाएगा। दादरी में अखलाक को और मंदसौर में सलमा बहन को गोमांस के उपभोग की आशंका के चलते तथाकथित संस्कृति के स्वयंभू रक्षकों के हाथों पिटना पड़ता है। अखलाक की तो दुर्भाग्य से मृत्यु तक हो जाती है। गुजरात में ऐसी ही एक घटना में एक दलित को बेरहमी से मारा जाता है। तब कहीं न कहीं यह महसूस होता है कि अनजाने में ही, सही, कुछ कानून और नियम तो मात्र गरीबों के शोषण और उन्हें अधिकार विहीन बनाने के उपकरण बन जाते हैं। फिर यह देखा जाता है कि ऐसे नियमों का खुलकर उल्लंघन होने लगता है अथवा उससे बचने का जनता द्वारा कोई उपाय ढूंढ़ लिया जाता है। उसे हम ‘जुगाड़’ कहकर महिमामंडित करते है। यह गंभीर स्थिति है।

राष्ट्रपिता ने आजादी के संघर्ष के समय ही स्पष्टता से कहा कि स्वतंत्र भारत में भेदभाव, अन्याय, आजादी का हनन हुआ तो वह तब भी सत्याग्रह का मार्ग अपनाएंगे। हमारी सबसे बड़ी कसौटी यह है कि हर भारतीय को महसूस हो सके कि भारत उसका अपना देश अपना घर है। आज इतने सब के बाद भी अगर अखलाक का परिवार भारत में अपने घर जैसा महसूस करता है तो यह उनका बड़प्पन ही होगा। मंदसौर की सलमा बहन कितना बेबस महसूस करती होंगी? फरीदाबाद में जिन दलित बच्चों को जिंदा जलाया गया, उनके परविार को क्या महसूस होता होगा? यदि ईद के मौके पर रहस्यमय ढंग से मंदसौर, नीमच जिला मुख्यालय बंद हो जाते हैं तो एक मजहब विशेष को कितना तिरस्कृत महसूस होता होगा?

नवरात्र में जहां कुछ गरीब मोहल्लों में हिंदू-मुस्लिम साथ मिलकर गरबों का आयोजन करते रहे हैं, वहां यदि एक मजहब विशेष के लोगों को गरबा क्षेत्र से प्रतिबंधित किया जाए तो वे क्या महसूस करेंगे? यदि कोई नौजवान फेसबुक पर दो संगठनों के बारे में अपना कोई विचार बेबाकी से रखता है तो उसके लिए उसे तुरंत गिरफ्तार किया जाता है। तो क्या यह उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं है? क्या किसी दलित कार्यकर्ता के अहिंसक प्रदर्शन की प्रतिक्रिया में सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओं को उसे मारने का हक मिल जाता है? क्या अपने ही घर में ऐसे व्यवहार की उम्मीद की जाती है? प्रश्न यह भी है कि क्या किसी को भी यह अधिकार दिया जा सकता है कि वे दूसरों के पहनावे, आचार-व्यवहार, खान-पान, रीति-रिवाज पर अपनी टिप्पणी या सही-गलत का ठप्पा लगा सकते हैं? उसे अच्छा या बुरा कह सकते हैं?

गोरक्षा के नाम पर एक अबला गरीब महिला को मारा जाता है और इस अनुचित अधर्म को करने वाले स्वयं को हिंदू कहने की हिमाकत भी करते है। जबकि हिंदू धर्म में नारियों की पूजा करने और दरिद्र नारायण की सेवा करने की मुखर पैरवी की गई है। कितने गोरक्षक हैं जो पॉलीथिन खाने के लिए विवश गायों की सेवा करते हैं? इन तथाकथित गोरक्षकों के व्यवहार का खोखलापन और दोगलेपन की पराकाष्ठा तब प्रकट होती है, जब भैंस के प्रति वे संवेदन शून्य हो जाते हैं। आखिर अधिकांश लोग तो उसी का दूध पीते हैं। तो क्या अश्वेत होने के कारण वे हमारी वर्णवादी व्यवस्था में अवर्ण या दलित हैं? उसका जीवन सस्ता है? अनेक हिंदुओं के धार्मिक स्थानों पर पशुबलि चढ़ाई जाती है। तब हमारे रक्षक कहां रहते हैं? यहां पर कतई किसी के प्रति दुराव व्यक्त करना हमारी भावना नहीं है।

गांधीजी ने स्पष्ट तौर पर कहा कि गोवंश संरक्षण को वह अपना निजी धर्म मानते हैं। मगर उसके नाम पर किसी मजहब विशेष के इनसानों पर हिंसा कतई सत्य या धर्म नहीं हो सकता। वह तो प्रतिबंध के कानून के पक्ष में भी नहीं थे क्योंकि देश में अनेक धार्मिक मतावलंबी रहते हैं। ऐसा कानून व्यक्ति स्वातंत्र्य का हनन और दमनकारी हो सकता है।

हमारी साझी संस्कृति में अनेक ऐसे साथियों के उदाहरण हैं जिन्होंने गोवंश संरक्षण को अपना निजी धर्म समझा। स्वयं को समर्पित किया। सागर के अब्दुल गनी साहब ने गोवंश संरक्षण का अभियान चलाया।  मगर इनमें से किसी भी महापुरुष ने गोवंश संरक्षण के लिए मजलूमों को मारने, सताने का न तो सुझाव दिया और न ही ऐसा कार्यक्रम बनाया।

हम सब ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाते हैं। देश के पहले प्रधानमंत्री ने इस पर अपनी पुस्तक में विस्तार से लिखा है। दरअसल ‘भारत माता’ भारत के भिन्नताओं से भरे असंख्य लोग ही तो हैं और यह उन्हीं का जयकारा है। फिर वह चाहे किसी भी धर्म, मजहब, भाषा, क्षेत्र, लिंग, जाति, व्यवसाय अंचल के क्यों न हों। वे सब ‘भारत माता’ ही हैं। हमारी पीढ़ी का दायित्व है कि हम ऐसे स्वराज की स्थापना के लिए प्रयत्नरत रहें, जहां अत्यंत गरीब भारतीय को भी यह महसूस हो कि यह देश उसका अपना घर है। जहां उस पर संदेह नही किया जाएगा। उसे अपनापन और प्यार मिलेगा। कर्त्तव्य और अधिकार का मिश्रित संरक्षित मुक्त वातावरण मिलेगा।

(लेखिका कांग्रेस की पूर्व सांसद हैं)

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