जिस तरह हिंदी में शमशेर बहादुर सिंह को ‘कवियों का कवि’ कहा जाता है, उसी तरह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की दुनिया में ग्वालियर घराने के पंडित शरच्चंद्र आरोलकर को ‘गायकों का गायक’ माना जाता है। शमशेर की तरह ही आरोलकर भी कभी धन या यश के फेर में नहीं पड़े, न उन्होंने कभी इस बात की चिंता की कि इस वक्त किस शैली का फैशन है। अपनी अंतरंगता और कला साधना की दुनिया में पूरी तरह रचे-बसे आरोलकर को संगीतकारों और गुणीजनों के बीच बहुत सम्मान मिला। वह लोकप्रिय मंचीय गायक नहीं बन सके, इसका एक बड़ा कारण उनका आध्यात्मिक रुझान, गंभीर कलात्मक मूल्यों के प्रति अविचल निष्ठा और खुद को हमेशा नेपथ्य में रखने की प्रवृत्ति थी। आज यदि वह संगीत रसिकों की सांगीतिक स्मृति का हिस्सा नहीं हैं, तो यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं है।
दो माह बाद दो दिसंबर, 2017 को शरच्चंद्र आरोलकर की 105वीं जयंती मनाई जाएगी। संगीत प्रेमियों के लिए यह हर्ष का विषय है कि उसके ठीक पहले उन पर केंद्रित एकमात्र पुस्तक का हिंदी में भी प्रकाशन हो गया है। 2012 में आरोलकर की जन्मशताब्दी के अवसर पर उनकी पट्टशिष्या नीला भागवत ने उन पर लिखे अपने लेखों, उनके शिष्यों, प्रशंसकों और संगीत-मर्मज्ञों द्वारा लिखे लेखों और संस्मरणों, स्वयं आरोलकर के संगीत विषयक लेखों तथा अन्य महत्वपूर्ण दस्तावेजों को संपादित करके उनका संकलन तैयार किया जो मराठी में ‘शरच्चंद्र आरोलकर: एक लेणे प्रतिभेचे’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। अब उसी पुस्तक का सीमा आचरेकर का किया हुआ हिंदी अनुवाद, ‘खयाल-गायन की अंतरगाथा: मेरे गुरु शरच्चंद्र आरोलकर’ शीर्षक से मुंबई के परिदृश्य प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।
शरच्चंद्र आरोलकर का गायन सुनने का मुझे भी एक बार सौभाग्य मिला था। नवंबर 1985 में भारत भवन, भोपाल में बीसवीं शताब्दी के शीर्षस्थ गायकों में गिने जाने वाले कृष्णराव शंकर पंडित पर केंद्रित एक तीन-दिवसीय प्रसंग का आयोजन किया गया था। उस समय उनकी आयु 93 वर्ष की थी। इस अवसर पर उनके वरिष्ठतम शिष्य शरच्चंद्र आरोलकर ने अपने गुरु के सामने गाकर उनके प्रति आदर प्रकट किया था। वह अत्यंत मार्मिक एवं विलक्षण क्षण था जब 73 वर्ष के बूढ़े, कृशकाय शिष्य ने अपने गायन के जरिए हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के 93 वर्षीय भीष्म पितामह के चरणों में श्रद्धा सुमन अर्पित किए।
प्रख्यात संगीत समीक्षक मोहन नाडकर्णी ने भी कृष्णराव शंकर पंडित पर लिखे एक लेख में इससे ठीक विपरीत घटना का वर्णन किया है, जिसमें उन्हें भी ऐसे ही एक भावविह्वल कर देने वाले क्षण का साक्षी बनने का अवसर मिला था। 1972 में आरोलकर की षष्ठिपूर्ति समारोह में अस्सी वर्ष के गुरु ने अपने गायन को उसकी समूची भव्यता, ओजस्विता और जटिलता के साथ प्रस्तुत करके अपने साठ वर्ष के शिष्य को सांगीतिक आशीर्वाद दिया था।
शरच्चंद्र आरोलकर का जन्म दो दिसंबर, 1912 को कराची में हुआ था। उनके पिता कारोबारी थे और 1930 के दशक में बंबई (अब मुंबई) आ गए थे। आरोलकर ने कराची में गांधर्व महाविद्यालय में विष्णु दिगंबर पलुस्कर के शिष्य लक्ष्मणराव बोडस से संगीत की शिक्षा ग्रहण की थी। पढ़ने-लिखने के बजाय संगीत और अध्यात्म में उनकी रुचि अधिक थी। 1932 में उन्होंने ग्वालियर जाकर कृष्णराव शंकर पंडित का शिष्यत्व ग्रहण किया और बाद में उनके चाचा एकनाथ पंडित एवं कृष्णराव मुले आदि प्रसिद्ध संगीतकारों से भी तालीम हासिल की। इस समय शरद साठे और नीला भागवत उनके वरिष्ठतम शिष्य हैं।
नीला भागवत ने इस पुस्तक में कुछ दुर्लभ सामग्री संकलित की है जो संगीत में गहरी रुचि रखने वालों के लिए बहुत उपयोगी और ज्ञानवर्धक होगी। आरोलकर पर लिखे अपने तीन आलेखों के अलावा उन्होंने तालीम के दौरान संगीत के विभिन्न पक्षों के बारे में व्यक्त आरोलकर के विचारों को भी अपनी डायरी से निकाल कर प्रस्तुत कर दिया है। इसके साथ ही स्वयं आरोलकर के दो लेख ‘ग्वालियर घराना एवं खयाल गायकी’ और ‘टप्पा गायन’ तथा प्रसिद्ध गायक के. जी. गिंडे एवं संगीत समीक्षक मोहन नाडकर्णी द्वारा कोलकाता की संगीत रिसर्च एकेडेमी के तत्वावधान में उनसे लिया गया साक्षात्कार भी शामिल किए गए हैं। इनसे आरोलकर की सूक्ष्म संगीत दृष्टि और मौलिक संगीत चिंतन का परिचय प्राप्त होता है।
इस समय देश के शीर्षस्थ तबला वादकों में गिने जाने वाले सुरेश तलवलकर के लेख से पता चलता है कि शरच्चंद्र आरोलकर जितने बड़े गायक थे, उतने ही बड़े ताल-विद्वान भी थे। तलवलकर के अनुसार ठेके और ताल के बीच के सैद्धांतिक और व्यावहारिक अंतर का ज्ञान उन्होंने आरोलकर से ही पाया। इसी तरह ‘सम’ किस प्रकार हमारे संगीत का ‘परम भावनात्मक बिंदु’ है, इसका विवेचन भी आरोलकर ने ही किया। पुस्तक में केवल संगीत से जुड़े लोगों के लेख ही नहीं बल्कि कवि दिलीप चित्रे, फिल्म निर्देशक अरुण खोपकर तथा पत्रकार अमरेन्द्र धनेश्वर जैसे अन्यान्य क्षेत्रों के ख्याति प्राप्त व्यक्तियों के लेख और संस्मरण भी संकलित किए गए हैं। कुछ पत्र भी हैं जिनमें कृष्णराव शंकर पंडित का आरोलकर को लिखा पत्र और आरोलकर का उनको लिखा पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज है। इस पुस्तक से पता चलता है कि आरोलकर ने विभिन्न रागों में तीस बंदिशों की रचना भी की थी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)