यह किताब नारी विमर्श से आगे बढ़ कर है। नारी विमर्श या स्त्री विमर्श के नाम पर पिछले 20-30 सालों में पत्र-पत्रिकाओं और किताबों में लाखों पेज लिखे गए। यह किताब उन सब से बढ़ कर पाठकों के मन को झकझोरती है। किताब को ‘कथा अंतर्कथा’, ‘स्त्री लेखन-वाद से विमर्श तक’, ‘अपनी खोई आवाज की तलाश में’ और ‘हिंसा का आकाश’ भागों में संकलित किया गया है। हर भाग विचारोत्तेजक, विरोधात्मक और खोजात्मक भाव लिए हुए है।
पहले भाग में मुझे सबसे ज्यादा पठनीय लगा, ‘देवदास का स्त्रीवादी पाठ।’ भंसाली की फिल्म देवदास को आधार बनाकर वह लिखती हैं, ‘‘जब मैंने यह उपन्यास पढ़ा, मन में सवाल उठ रहा था इसका नाम देवदास क्यों है, पारो या पार्वती क्यों नहीं?’’ लेख के अंत में वह लिखती हैं, ‘‘इतने दिन गुजर जाने के बाद पार्वती का क्या हुआ, वह किस हाल में है और क्या करती है यह कोई नहीं जानता। जानने का मन भी नहीं करता। सिर्फ देवदास के लिए दुख होता है।’’ लेिखका का यह कथन मन को झकझोरता है। इसे पढ़ कर मेरे मन में भी कई स्त्रियोचित सवाल उठे, ‘‘क्या इस उपन्यास का कोई स्त्री पाठ हो सकता है? अगर हां तो क्या?” आगे वह लिखती हैं, “रूढ़िग्रस्त देवदास व्यक्तित्व की अडिगता, तेजस्विता में पार्वती के सामने नहीं ठहरता।” उपन्यास के सभी पात्र पार्वती के साहसी और स्वाभिमानी होने की बात कहते हैं। पार्वती का चरित्र इसका प्राण तत्व है।
इस संदर्भ में मैं कमल कुमार के ही रामायण में सीता की मौन शक्ति की याद दिलाना चाहूंगा। दूसरे खंड का यह पहला लेख है, ‘स्त्री स्वतंत्रता संघर्ष की महागाथा-मीरा लाइट हाउस की तरह।’ वह बताती हैं, ‘‘मीरा ने समकालीन जड़ताओं को तोड़ा, फिर भी जनता ने उसे भरपूर आदर दिया। मीरा ने अपने पति राजा भोजराज से शारीरिक संबंध स्थापित करने से इनकार कर दिया, कृष्ण को ही अपना पति मानती रहीं। अपने समय की शक्तिशाली सामंतशाही के सारे नियम रीति-रिवाजों परंपराओं को तोड़ा। उसने परिवार, विवाह, जातिभेद, वर्ग भेद, लिंगभेद, यहां तक कि भक्ति की रूढ़ियों को भी तोड़ा। मीरा ने अपना मार्ग स्वयं निश्चित किया, अपना सत्य स्वयं निर्धारित किया। दिए गए सत्य से अलग वह अपने ही सत्य पर आरूढ़ अपने मार्ग पर निर्भय हो कर चलीं। स्त्री संघर्ष की महागाथा में मीरा आज भी हमारे सामने लाइट हाउस की तरह है दिशा देती हुई।” इसी तरह चंद्रकिरण सौनरेक्सा का जीवन कमल जी को स्त्री संघर्ष की महागाथा नजर आता है। इसी खंड में आती है, कृष्णा सोबती से उनकी बातचीत। नौटंकी की अदाकारा गुलाब बाई, असाधारण मन्नु भंडारी आदि जो कमल जी के लिए रोल मॉडल हैं।
अगले खंड में दूसरी रचना है, ‘अपनी अस्मिता की तलाश में।’ इसमें उनका कहना है, “इस समय अस्मिताओं के वैशिष्ट्य का साहित्य रचा जा रहा है, समग्रता के विरोध में पॉकेट अस्मिताओं के साहित्य का वर्चस्व है।” स्त्री विषयक बहस आमतौर पर वैदिक युग की गार्गी और मैत्रेयी विदुषियों से प्रारंभ की जाती है। बुद्ध की समकालीन बौद्ध भिक्षुणियों की थेरी गाथाओं के कई उदाहरण दिए जाते हैं। सीमंतनी उपदेश या ताराबाई शिंदे की ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ जैसी पुस्तकों की बात की जाती है। साथ ही भरे सभागार में मन्नु की पंक्तियां उद्धृत की जाती हैं, ‘‘िस्त्रयां और नीच जाति के लोग अधम हैं। उनका धर्म है, जूते खाएं और स्वामी (पति) की सेवा करें। बलात्कृता औरत की बोटी-बोटी काटकर कुत्तों को डाल देना चाहिए वह भी सरहद के पार।’’
यह एक अजीब सा विरोधाभास है। स्त्री विमर्श की अवधारणा को पश्चिम की देन समझा जाता है। उसके पक्ष और विपक्ष में मत और अवधारणाएं प्रस्तुत की जाती हैं। एक और विरोधाभास है, “विकास की धारा में पिछड़ता आम आदमी और औरत। यह समय वैश्वीकरण, उदारीकरण, नवपूंजीवाद से उपजे बाजारवाद का है। दानवी ताकतें मनुष्यों को उपभोक्ताओं और समाज को मंडियों में बदल रही हैं। स्त्री साहित्य में स्त्री विमर्श अपने समय के यथार्थ से टकराता हुआ भी अन्यायपूर्ण व्यवस्था के विरोध में मानवीय संवेदना और मानवीय अधिकारों का विमर्श है। कमल जी का कहना है, “स्त्री आज लेस्बियनिज्म और लिव इन रिलेशनशिप में भीतर और बाहर के अंधेरों और उजालों के साथ जीने के नए प्रयोग कर रही है। वह जोखिम उठाने को तैयार है किसी के छूने भर से पालतू हो जाने वाली पीढ़ी यह नहीं है।” कुल मिला कर कहें तो यह किताब प्राचीन से अब तक, पूर्व से पश्चिम तक, वैश्विक समाज में औरतों की स्थिति का विहंगम दृश्य और सशक्त दस्तावेज है।